प्रसंगवश

राज्य सत्ता का थप्पड़

जब से समाज में दो वर्गो का उदय हुआ है तभी से इन वर्गो के बीच टकराहट को रोकने के लिये राज्य सत्ता का उदय हुआ है. जिसमें पुलिस, सेना, जेल, न्यायपालिका एवं कार्यपालिका शामिल है. समाज़ में अलग-अलग समय यह राज्य सत्ता अलग-अलग वर्गो की सेवा करता आया है. यह निष्कर्ष सोवियत संघ के संस्थापक राष्ट्रपति व्लादिमर लेनिन ने अपनी पुस्तक राज्य और क्रांति में जारशाही तथा तत्कालीन समाज व्यवस्था का अध्धयन कर निकाला था.

शुक्रवार को जब दिल्ली में 5 साल की गुड़िया के साथ बलात्कार का विरोध कर रही 17 वर्षीया बीनू रावत को उच्च पुलिस अधिकारी ने थप्पड़ मारा तो यह साफ हो गया कि लेनिन ने कितना सटीक निष्कर्ष निकाला था. उनकी राज्य सत्ता पर की गई टिप्पणी सौ साल बाद भी पूरी तरह से प्रासंगिक है.

जब 16 दिसंबर 2012 को दामिनी पर अत्याचार हुआ था, उस वक्त भी देश भर में आक्रोश फूट पड़ा था. तब भी पुलिस ने दिल्ली में प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस के गोले छोड़े थे एवं पानी की बौछारे मारी थीं. पुलिस किसी भी प्रदर्शन का विरोध को रोकने के लिये तत्पर रहती है. वह यह नही देखती कि प्रदर्शन या विरोध के मूल में क्या है.

उसका तो यह ऐतिहासिक कर्तव्य है कि समाज में शांति-व्यवस्था कायम रहे. थप्पड़ से जनता में उपजी गुस्से की लहर को ठंडा करने के लिये पुलिस के उस अधिकारी को निलंबित कर दिया गया है परंतु यह वक्ती तौर पर ही किया गया है. कुछ दिन बाद वे ही अधिकारी फिर से उसी पद पर विराज़मान हो जायेंगे. हो सकता है कि किसी दूसरे स्थान पर.

दिल्ली पुलिस पर तो यह भी आरोप है कि उसने मामले को रफा-दफा करने के लिये पीड़िता के पिता को उल्टे 2000 रुपये रिश्वत की पेशकश की थी. जब पीड़ित बच्ची लापता थी तो उसकी मां को कहा गया कि वह खुद ही अपनी बच्ची को तलाश ले. मतलब ये कि पुलिस पूरी तरह से इस मामले को दबाने में जुटी हुई थी और बेहद अमानवीय होने की हद तक लापरवाह भी थी. लेकिन जब आक्रोश बढ़ा, जनता सड़कों पर आई तो सरकार जागी और गुड़िया के साथ अत्याचार करने वाले दो आरोपियों को गिरफ्तार किया गया.

प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि समाज अपने अंदर झांके. प्रधानमंत्री का बयान एक तरह से ठीक लगता है लेकिन पूछने का मन करता है कि क्या यह व्यवस्था का भी प्रश्न नहीं है? वही व्यवस्था, जिसके मुखिया मनमोहन सिंह हैं. पुलिस से लेकर अदालत तक की व्यवस्था दरअसल ऐसी अव्यवस्था में बदल गई है, जिसमें कहीं कुछ ठीक नहीं है. इसके ठीक हो जाने भर से कोई जादू नहीं हो जाता और ऐसी घटनाएं खत्म नहीं हो जातीं, लेकिन इस पर काबू पाने में मदद तो जरुर मिलती.

दिक्कत ये है कि पुलिस भी राज्य सत्ता का अंग होने के कारण अपराधियों को पकड़ने के पहले शांति-व्यवस्था कायम करने में जुट जाती है. रिश्वत की पेशकश भी मुद्दे को दबाने के लिये ही की गई थी. पुलिस शुरुआत में रपट लिखने से भी आना-कानी कर रही थी. वह अपराध को रोकने के बजाये कागज कलम में उसे कमतर दिखाने में ज्यादा मशगूल थी. सवाल पुलिसिया कार्यवाही का नही वरन् यह है कि उसका उदय ही समाज में टकराहट को रोकने के लिये हुआ है, बलात्कार को रोकने के लिये नही. जब बीनू रावत इस व्यवस्थागत प्रतिफलन का विरोध करने उठी तो राज्य सत्ता ने उसे थप्पड़ जड़ दिया. लेकिन अगर व्यवस्था को अव्यवस्था में बदलने के लिये जिम्मेवार लोगों को ऐसा ही थप्पड़ मारना हो तो पहला गाल किसका होगा मनमोहन सिंह जी ?

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