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बोलो कॉमरेड क्या करोगे

नई दिल्ली| सुदीप ठाकुर: भारत के वामपंथी एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं और लगता है कि उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है. कम्युनिस्ट पार्टियों की आज जो हालत हो गई है, एक दशक पहले 2004 में कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. उस दौर में कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं ने माकपा महासचिव प्रकाश करात को देश के सबसे ताकतवर लोगों में शुमार किया था. यूपीए की पहली सरकार कम्युनिस्ट पार्टियों के बाहरी समर्थन से ही टिकी थी. तब वाम मोर्चे को लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक 59 सीटें मिली थीं. और आज हालत यह हो गई है कि वाम पार्टियां ले देकर दहाई का आंकड़े तक पहुंच पाईं.

मगर लोकसभा या विधानसभा में मौजूदगी से भी गंभीर मसला उनके अस्तित्व से आ जुड़ा है. नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपा के उभार से सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टियों को ही चुनौती नहीं मिली हैं, इससे कांग्रेस की नेहरूवादी समाजवाद की धारा को भी गहरा झटका लगा है, जिसे उदार वामपंथ के करीब माना जाता है.

हैरत नहीं होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के पूरे अभियान में कांग्रेस को ध्वस्त करने के लिए सबसे पहले नेहरू को निशाना बनाया था. उनकी यह रणनीति कारगर साबित हुई, जिसे न तो कांग्रेस समझ पा रही थी और न ही वामपंथी पार्टियां. बात सिर्फ मोदी या भाजपा की कारगर रणनीति की नहीं है, देश की जनता में यदि किसी परिवर्तन की जरूरत महसूस हो रही थी, तो उसकी थाह पाने में ये पार्टियां नाकाम रहीं.

जाहिर है, यह बहस अभी पूरी नहीं हुई है कि मोदी की जीत हुई है या नेहरूवादी समाजवाद की पराजय! और विडंबना देखिये कि 14 नवंबर को स्वच्छता अभियान से जोड़कर मोदी गांधी और पटेल की तरह नेहरू को विचारधारा के खांचे से भी बाहर निकालने की तैयारी कर रहे हैं और ऐसा कर वह उन्हें सिर्फ एक राष्ट्रीय प्रतीक में बदल देंगे!

मगर सबसे फजीहत तो वामपंथियों की हो रही है, जो अंधी सुरंग से बाहर नहीं निकलना चाहते. जबकि दक्षिणपंथ के उभार के साथ एक उदार वामपंथ की गुंजाइश लगातार बनती जा रही है. और कॉमरेड, राजनीति सिर्फ चुनाव लड़ने के लिए नहीं की जाती! सच यह भी है कि भाजपा का यह उभार मुश्किल से तीस-बत्तीस फीसदी वोटों के दम पर है.

ऐसा लगता है कि विपक्ष की अपनी पारंपरिक भूमिका भी वामपंथी भूलते जा रहे हैं. ऐसे समय जब दिल्ली में दोनों बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां मंथन कर रही हैं, मेरे पास उनके लिए कुछ बिन मांगे सुझाव हैं:

पहला, प्रतीकों को पहचानें. यह देश प्रतीकों का देश है, जिसे भाजपा खासतौर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बखूबी समझता है. हैरानी की बात है कि वामपंथी पार्टियों ने अपने प्रतीकों को ही हाशिये पर डाल रखा है. संभवतः अब किसी को ठीक से याद भी नहीं होगा कि पहली लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार ई एम एस नंबूदरीपाद ने बनाई थी और वह देश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री भी थे. इस वर्ष 8 जुलाई को ज्योति बसु जैसे दिग्गज वामपंथी नेता का सौवां जन्मदिन गुजर गया और किसी को ठीक से खबर तक न हुई!

इंद्रजीत गुप्त और गीता मुखर्जी जैसे वामपंथी सांसद जिनकी कमी आज भी संसद में महसूस की जा सकती है, जिन्हें भुला ही दिया गया है. क्या कम्युनिस्ट पार्टियों को अपने इन नेताओं को याद नहीं करना चाहिए और उनके योगदान को देश के सामने नहीं लाना चाहिए.

दूसरा सुझाव यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियां खुद का भारतीयकरण करने पर विचार करें. हैरानी की बात है कि कम्युनिस्ट पार्टियां आज तक भारतीय मानकों के अनुरूप खुद को नहीं ढाल सकी हैं. मार्क्स ने धर्म को अफीम बताया था, लेकिन भारत में धर्म जीवनशैली का हिस्सा है. धर्म की व्यापकता को हिंदुत्व के इन दिनों प्रचलित खांचे से बाहर निकालकर देखने की जरूरत है. इसका शिक्षा और ज्ञान से कुछ लेना देना नहीं है.

अंध भक्ति, अंधविश्वास, कट्टरता, धर्मांधता आदि से अलग एक उदारवादी भारतीय चेहरा भी है, जो मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर और सूफी संतों की मजारों में जाता है, व्रत रखता है और सोच में प्रगतिशील है. वह उत्सवधर्मी भी है, जिसकी झलक पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा के समय दिखाई देती रही है, जहां तीन दशक तक माकपा की सरकार रही. ऐसे समय जब धर्म को लेकर संकुचित तरीके से माहौल बनाया जा रहा है, वामपंथी पार्टियां चुप बैठी हैं. उन्हें धर्म को लेकर असमंजस से निकलना पड़ेगा. इस देश को उस धर्म की जरूरत है, जिसकी पैरवी एक अन्य नरेंद्र ने सौ साल पहले की थी.

तीसरा सुझाव कांग्रेस को लेकर है. कम्युनिस्ट पार्टियों को कांग्रेस के साथ अपने रिश्ते को लेकर स्पष्ट होना चाहिए. वे कांग्रेस के साथ रहेंगी, या उसे समर्थन देंगी या उससे अलग चलेंगी? कांग्रेस के साथ अब तक उनकी राजनीति सुविधा की राजनीति थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उन्हें अपना नजरिया बदल लेना चाहिए.

इसी तरह उन्हें मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, मायावती और अन्नाद्रमुक तथा द्रमुक को लेकर अपना नजरिया स्पष्ट करना चाहिए. मायावती और जयललिता पर लगाए गए उनके दांव सिरे ही नहीं चढ़ सके थे, इसलिए उन्हें संभावित सहयोगियों को लेकर स्पष्ट होना चाहिए.

चौथा सुझाव इतिहास से जुड़ा है. इतिहास भी विचित्र संयोगों के साथ उपस्थित होता है. ठीक पचास वर्ष पूर्व पंडित जवाहर लाल नेहरू की मौत हुई थी और उसी वर्ष देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ था. सच तो यह है कि नेहरू के प्रधानमंत्री रहते नंबूदरीपाद की सरकार को बर्खास्त किया गया था. इसके बावजूद विचारधारा के स्तर पर नेहरू और कम्युनिस्ट पार्टी एक दूसरे के काफी करीब थे. आज पचास वर्ष बाद जब नरेंद्र मोदी नेहरू की विरासत को चुनौती दे रहे हैं, ठीक उसी समय वामपंथी पार्टियां अपने सबसे दुर्दिन देख रही हैं.

हालत यह है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की मान्यता ही खतरे में पड़ गई है. क्या यही ठीक समय नहीं है, जब इतिहास को नए सिरे से लिखा जाए और देश की दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां माकपा और भाकपा आपस में मिल जाएं. विचारधारा और पार्टी लाइन अपनी जगह है, लेकिन जब आधार ही नहीं बचेगा तो विचारधारा का क्या करोगे. वैसे भी आपके पास खोने के लिए अब बहुत कुछ नहीं बचा है.

*लेखक अमर उजाला, दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं.

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