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गुम बच्चों के ग़म को समझे

डॉ.चन्द्रकुमार जैन | राजनांदगांव: भारत में बच्चों की गुमशुदगी की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. आज स्थिति यह है कि देश में हर छह मिनट में कहीं न कहीं से एक बच्चे को गायब कर दिया जाता है. सरकारी आँकड़ों के मुताबिक वर्ष 2009 में 68227, वर्ष 2010 में 77133, तथा 2011 में 90654 बच्चे गायब हुये. इनमें से लगभग 40 फीसदी का कोई अता-पता नहीं चल पाया. यही हाल बाद के वर्षों में भी रहा. अगर बच्चे देश के भविष्य हैं, तो फिर सोचना ही होगा कि बच्चे अगरा गुम होते रहे तो देश का वह आने वाला कल भी क्या अंधेरी गलियों में गुम नहीं हो सकता ?

बेबस की मुट्ठी में तकदीर नहीं
विडम्बना देखिये कि इतने जघन्य अपराध की रोक-थाम के लिये देश में न ही कोई कारगर कानून बना है और न ही देश की संसद में एक बार भी इस गम्भीर मुद्दे पर चिन्ता दिखाते हुये कोई चर्चा करायी गयी. गाहे-बगाहे, इक्के-दुक्के सवाल पूछ भी लिए गए तो उसी अन्दाज़ में सरकारी महकमों के मुंशियों द्वारा तैयार किया गया घिसा-पिटा जवाब पढ़कर सुना दिया जाता है. दरअसल बच्चों के मामले में बचकानी सोच के तंग दायरे अभी तक बदस्तूर बने हुए हैं. शायद हमें यही लगता है कि इतनी विशाल आबादी में से मुट्ठी भर बच्चों के खो जाने से क्या फर्क पड़ता है ?

लेकिन,याद रहे कि इन्हीं बच्चों के लिए नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है जैसे तराने भी इसी धरती पर गूंजे हैं. अब आप ही बताइये कि खो जाने वाले या गुम कर दिए जाने वाले गुमसुम बच्चे आखिर कैसे कहेंगे – मुट्ठी में है तक़दीर हमारी. बेबस बच्चे भला अपनी किस्मत को बस में करने का ऐलान कैसे कर सकते हैं ?

पाठकों को स्मरण होगा कि बच्चों के गायब होने के सम्बन्ध में कुछ साल पहले ही देश में एक गम्भीर काण्ड का खुलासा हुआ था जिसने पूरी मानव सभ्यता के सिर को शर्म से झुका दिया था. दिल्ली से सटे निठारी गाँव जो अब नोएडा उप नगर का एक भाग बन चुका है, में जब एक दिन सफाई कर्मचारियों को गटर में बच्चों के जिस्मों के टुकड़े मिले तो पूरा मुल्क सन्नाटे में आ गया था. लेकिन इससे पहले जब-जब भी गुमशुदा बच्चों के माता-पिता अपनी गुहार लेकर स्थानीय पुलिस थाने पहुँचे तो उनको निराश और अपमानित होकर ही लौटना पड़ा. बाद में पता चला कि इंसानी शक्ल के नरभक्षी दरिन्दे उन मासूम बच्चों का खून निकालकर पीते थे और टुकड़े-टुकड़े करके माँस खा जाते थे.

इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या होगी कि इतने नृशंस व हृदय विदारक घटना के बाद भी न तो हमारी सरकार चेती और न उमड़ी समाज की संवेदना ज्यादा दिनों तक टिकी रह सकी.

गुमशुदगी एक सामाजिक अपराध
शान्ति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित बचपन बचाओ अभियान के शिल्पकार कैलाश सत्यार्थी का कहना बेहद माकूल मालूम है कि बच्चों की गुमशुदगी, बच्चों और उनके माता-पिता व परिजनों के साथ ऐसा घिनौना और यातनामय अपराध है जिसे किसी भी सभ्य समाज में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिये.

गुमशुदा बच्चों में ज्यादातर झुग्गी-बस्तियों, विस्थापितों, रोजगार की तलाश में दूर-दराज के गाँवों से शहरों में आ बसे परिवारों, छोटे कस्बों और गरीब व कमजोर तबकों के बच्चे होते हैं. चूँकि ऐसे लोगों की कोई ऊँची पहुँच, जान-पहचान या आवाज नहीं होती इसलिये पुलिस, मीडिया और यहाँ तक कि पड़ोसी भी उनको कोई तवज्जो नहीं देते हैं.

बच्चे बचाएं, बचपन संवारें
माता-पिता भी ज्यादातर अशिक्षित तथा डरे-सहमे होते हैं. जानकारी के अभाव में पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने के बजाय वे लोग अपने बच्चे के गुमशुदा होने के कई घण्टों अथवा एक-दो दिन बाद तक स्वयं ही खोज-बीन में लगे रहते हैं. अगर समाज और पुलिस की मुश्तैदी से बच्चों का चुराया जाना रोका जा सके तो ऐसे अनेक अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है. विडम्बना इतनी ही नहीं है के बच्चे गुम हो रहे हैं,त्रासदी यह भी है कि अनगिनत ऐसे बच्चे भी हैं जिनका बचपन ही गुम हो गया है.

ये काम पर जाने वाले बच्चे हैं. लिहाज़ा, बच्चों की गुमशुदगी के साथ-साथ बचपन की नामौजूदगी दोहरी चुनौती हमारी व्यवस्था के सामने है. इस चुनौती से मुंह फेरना एक ऐसे इतिहास में खुद को दर्ज़ करने की तैयारी है जो हमें कभी माफ़ नहीं करेगा. हम याद रखें कि बच्चे बचेंगे तो देश बचेगा और बचपन बचेगा तो देश संवरेगा.

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