बस्तर में चिकित्सकों का अकाल
कांकेर | अंकुर तिवारी: छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में चिकित्सकों की भारी कमी है. छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर तथा सरगुजा में चिकित्सकों की कमी को दूर करने के लिये राज्य सरकार ने जिले के कलेक्टरों को अधिकार दे रखा है कि वे अनुबंध के आधार पर चिकित्सकों की सीधी भर्ती कर सकते हैं उसके बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है. यहाँ के लोगों की सेहत का ध्यान रखने वाला स्वास्थ्य महकमा खुद बीमार है.
छत्तीसगढ़ के अनुसूचित जनजाति बाहुल्य कांकेर जिलें के आमाबेड़ा में मौजूद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में 85 गांवों के क़रीब 27 हज़ार 7 सौ आदिवासियों का इलाज दो चिकित्सकों तथा एक स्टाफ नर्स के भरोसे किया जा रहा है. आदिवासी क्षेत्र में सरकार ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तो खोल रखा है, मगर आवश्यक सुविधाएं नदारद हैं. जो कि ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की मौजूदा स्थिति और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली को बेपर्दा करती है.
आमाबेड़ा के पीएचसी में डॉक्टरों को तीन शिफ्ट में काम करना पड़ता है. मगर सिर्फ एक स्टाफ नर्स पदस्थ होने के कारण कई बार आपात स्थिति में चिकित्सकों को स्टाफ नर्स का कार्य करना पड़ता है. इतना ही नहीं अंदरूनी इलाकों के गांवों तक स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए यहाँ के चिकित्सकों को कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. ग्रामीण क्षेत्रों में आवागमन के साधन नहीं होने के कारण बीमार मरीजों को इलाज़ के लिए गांव से अस्पताल तक लाना ले जाना बड़ी चुनौती होती है.
लोगों की समस्या यहीं पर ख़त्म नहीं होती. गांव को मुख्यालय से जोड़ने वाली सड़के जर्जर हो चुकी है और कई गांवों में जाने के लिए रास्ता नहीं है. जिसके चलते छोटे-बड़े नदी नालों पर बने लकड़ी की पुलिया को पार कर मरीजों को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में लाया जाता है. डॉक्टर गौतम बघेल के अनुसार अशिक्षा तथा जागरूकता की कमी के कारण मरीजों को समय पर सही इलाज़ नहीं मिल पाता है. गाँवो में आज भी आदिवासी समुदाय के लोगों में अंधविश्वास गहरी जड़ें जमा चुका है.
||डॉक्टर बघेल कहते है, “निमोनिया होने पर मरीजों को गर्म चुड़ी या फिर लोहे से दाग दिया जाता है. अशिक्षा के कारण इस तरह का रूढ़िवादी उपचार थमने का नाम नहीं ले रहा. अंधविश्वास के कारण लोग अमानवीय व असुरक्षित तरीके अपनाते हैं.”||
उन्होंने बताया कि बड़ेतेवड़ा गांव के 18 साल के जय कुमार को निमोनिया की बीमारी हो गई. जिसके बाद उसके घर वालों ने चिकित्सकों से उपचार कराने की बजाय झाड़फूंक कराने के लिए किसी बैगा-गुनिया के पास ले गए. अस्पताल लाने से पहले युवक के शरीर को गर्म लोहे या सरिया से दागा गया था. अस्पताल लाने के कुछ देर बाद ही युवक काल के गाल में समा गया. अगर समय रहते उसे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया जाता तो शायद उसकी जान बच सकती थी.
इसके साथ ही इलाक़े में सक्रिय झोलाछाप डॉक्टरों के द्वारा मरीजों को सरकारी अस्पताल तक पहुंचने नहीं दिया जाता है. गलत उपचार के कारण मरीज की जान पर बन आती है तब उन्हें आनन फानन में स्वास्थ केंद्र भेज दिया जाता है. तब तक मरीज की तबियत और भी ज्यादा बिगड़ चुकी होती है. और कई बार मरीज की मौत भी हो जाती है.
पिछले 41 साल से आमाबेड़ा क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहीं एएनएम मीरा भंडारी कहती हैं, “वर्ष 1975 से इलाकें में कार्य कर रहीं हूँ. गांवों में जाने के लिए पहाड़ी रास्तों पर चलना पड़ता है. गांवों में समय बेसमय लोगों से मुलाकात नहीं होती. और लोग अगर मिलते भी है तो भाषाई संकट के कारण ग्रामीणों को समझा पाना मुश्किल होता है.
बकौल मीरा, “आम तौर पर गांवों में गोंडी भाषा बोली जाती है. ग्रामीणों को यह भी पता नहीं रहता कि हम उन्हें स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए आयें है. अचानक गांवों में जाने से जनता डर जाती है. फील्ड में काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मियों की भारी कमी है. सुदूरवर्ती इलाका होने के कारण यहाँ पर पदस्थ किए गए कोई भी स्वास्थ्य कर्मी अपनी सेवाएं देना नहीं चाहते. ऐसे कर्मी कुछ समय तैनात रहने के बाद अपना तबादला शहरी इलाकों में करा लेते हैं, और चले जाते हैं. महिला स्वास्थ्य कर्मियों को परेशानी का सामना करना पड़ता है. यहाँ पुरूष स्वास्थ्य कर्मियों की जरूत है.”
चिकित्सक इस क्षेत्र में अपनी तैनाती को दंड जैसा मानते हैं. अगर किसी डॉक्टर की तैनाती हो जाती है तो वे दूसरे जगहों पर नियुक्ति कराने के लिए प्रयास करते है और किसी भी तरह यहां से मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं. ऐसे में ये आश्चर्य़जनक नहीं है कि इस इलाके में स्वास्थ्य कर्मियों के कई पद सालों से रिक्त हैं.