भाजपा में पार्टी से बड़ा हुआ नेताओं का कद
नई दिल्ली | एजेंसी: चुनाव कोई भी हो और इनमें नेताओं की साख दांव पर लगी रहती हो, लेकिन सरकार कोई नेता नहीं, बल्कि सियासी दल बनाता है. यही वजह है कि पार्टी को ‘नेता’ से बड़ा माना जाता है. सियासत का दूसरा चेहरा हालांकि यह भी है कि कभी-कभी किसी नेता के कद के आगे पूरी पार्टी ही बौनी नजर आने लगती है.
खुद को ‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ कहने वाली भाजपा का हाल इन दिनों कुछ ऐसा ही है. लोकसभा चुनाव के लिए शह और मात का खेल जैसे ही शुरू हुआ, पार्टी विरोधियों से पहले अपनों से जूझती नजर आ रही है. इसकी शुरुआत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने के साथ ही हो गई.
मोदी का कद बढ़ा तो कभी राजग सरकार में अटल-आडवाणी के हमनिवाला-हमप्याला रहे नीतिश ने ऐसी भृकुटी तानी कि पुराने रिश्तों को खत्म होते एक पल नहीं लगा और शरद यादव की काफी कोशिशों के बाद भी जदयू और भाजपा की दोस्ती बच न सकी और इसकी वजह बने सिर्फ मोदी. अब जब चुनाव सिर पर है तो एक पौधे की तरह पार्टी को सींचकर वृक्ष बनाने वाले लालकृष्ण आडवाणी को मोदीमय हो चुकी भाजपा के आगे घुटने टेकने को मजबूर होना पड़ा.
आडवाणी के भोपाल से चुनाव लड़ने की इच्छा धरी की धरी रह गई और आखिरकार वही हुआ जो मोदी चाहते थे. अब आडवाणी पहले की तरह मोदी के गुजरात के गांधीनगर से चुनाव लड़ेंगे. वैसे आडवाणी ही क्या जिस भाजपा के लिए कभी अटल, आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी तीन सबसे अहम चेहरे माने जाते थे और तीनों ही राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर रह चुके थे. उसमें जोशी को भी मोदी के पार्टी से बड़े हो चुके कद के आगे अपने हथियार डालने पड़े. जोशी अपनी संसदीय सीट वाराणसी छोड़कर अब कानपुर का रुख कर चुके हैं.
‘पार्टी विद ए डिफरेंस’ में सिर्फ ये दो अहम नाम ही नहीं हैं जो सियासत की बदली आबो-हवा के कारण बीमार होने को मजबूर हुए हों. अटल-आडवाणी के बेहद करीबी एक अन्य वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह भी ऐड़ी चोटी का जोर लगाने के बाद राजस्थान के बाड़मेर से लोकसभा टिकट हासिल नहीं कर पाए. खासतौर से तब, जब वह सार्वजनिक रूप से कह चुके थे कि वह अपना अंतिम चुनाव अपने गृह क्षेत्र बाड़मेर से लड़ना चाहते हैं.
यहां भी राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा का बड़ा कद पार्टी के वरिष्ठ नेता पर भारी पड़ा और कांग्रेस से आये सोनाराम चौधरी बाड़मेर से भाजपा प्रत्याशी घोषित होने के बाद जसवंत सिंह को मुंह चिढ़ाते नजर आ रहे हैं. हालांकि जसवंत ने आडवाणी और जोशी की तरह झुकने के बजाय बगावत करना बेहतर समझा और अब वह बाड़मेर से निर्दलीय चुनाव लड़ने की बात कह रहे हैं.
कुछ इसी तरह का हाल लखनऊ में बीते दस सालों से अटल बिहारी वाजपेयी की राजनीतिक विरासत संभाल रहे सांसद लालजी टंडन के साथ भी हुआ. टंडन एक बार फिर लखनऊ से चुनाव लड़ना चाहते थे.
लखनऊ से उनका रिश्ता किसी से छिपा नहीं है. वह लखनऊ में पार्टी का सबसे अहम चेहरा हैं और राजनीति का ‘ककहरा’ भी उन्होंने इसी लखनऊ से सीखा. विधायक से लेकर सांसद तक बने लेकिन जब मामला राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के लखनऊ से चुनाव लड़ने का हो, तो बेचारे टंडन भी खामोश होकर बैठने को मजबूर हो गए.
एक पुरानी कहावत है कि ‘बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है’ या फिर ‘जल में रहकर मगर से बैर’.. दोनों ही भाजपा की मौजूदा सियासत पर सटीक बैठती नजर आ रही है. नेताओं का पार्टी से बड़ा होता कद अन्य वरिष्ठ और जमीनी नेताओं को खा रहा है या फिर पार्टी में रहकर पार्टी से भी सशक्त हो चुके इन नेताओं से बैर लेने का साहस अन्य नेता नहीं कर पा रहे हैं.