मेरे लिए भगतसिंह
कनक तिवारी
23 मार्च भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जैसे क्रांतिवीरों की शहादत और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्मदिन है.भावुकता या तार्किक जंजाल से भगतसिंह के व्यक्तित्व को समझा नहीं जा सकता.
इतिहास, भूगोल, सामाजिक और तमाम आनुशंगिक परिस्थितियों के आकलन के बिना व्यक्ति का तटस्थ मूल्यांकन नहीं होता. भारतीय समाजवाद के सबसे युवा चिंतक इतिहास में भगतसिंह ही स्थापित होते हैं.
विवेकानंद, जयप्रकाश, लोहिया, नरेन्द्रदेव, सुभाष बोस, मानवेन्द्र नाथ राय और जवाहरलाल नेहरू आदि ने ‘समाजवाद‘ का आग्रह उनसे ज्यादा उम्र में किया है.
क्रांतिकारियों के सिरमौर चंद्रशेखर आजाद से भी ज्यादा लोकप्रिय भगतसिंह पंजाबी, संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के लेखक-विचारक थे. मार्क्सवाद से पूरी तौर पर प्रभावित होने के बावजूद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बनना स्वीकार नहीं किया था.
भगतसिंह स्वतंत्रता संग्राम के अकेले ऐसे योद्धा हैं, शहादत के पहले ही जिनकी ख्याति महात्मा गांधी के मुकाबले हो गई थी. यह पट्टाभिसीतारमैया ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास‘ में स्वीकार किया है.
भगतसिंह ने कांग्रेस और क्रांतिकारियों के लोकप्रिय नारे ‘वन्दे मातरम्‘ की जगह मार्क्सवादी नारा ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ भारतीयों के कंठ में क्रांति का प्रतीक बनाकर इंजेक्ट किया. धार्मिक आस्थाओं के आह्वान ‘अल्लाह ओ अकबर‘, ‘सत श्री अकाल‘ वगैरह नारे उछालने में उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया.
साम्यवादी विचारकों मार्क्स, लेनिन, एंजिल्स आदि को पढ़ने के अतिरिक्त भगतसिंह ने अप्टॉन सिंक्लेयर, जैक लंडन, बर्नर्ड शा, चार्ल्स डिकेन्स, आदि सहित तीन सौ से अधिक महत्वपूर्ण किताबें पढ़ रखी थीं. शहादत के दिन भी लेनिन की जीवनी पढ़ते पढ़ते ही फांसी के फंदे पर झूल गए.
यह दुर्भाग्य है कि अपनी सुविधा के अनुसार एक हिंसक, क्रांतिकारी, कम्युनिस्ट या कांग्रेस के अहिंसा के सिद्धांत का विरोधी बताकर इस अशेष जननायक का मूल्यांकन करने की कोशिश की जाती है.
उनका उत्सर्ग कच्चे माल की तरह रूमानी क्रांतिकारी फिल्मों का अधकचरा उत्पाद बनाकर उस नवयुवक पीढ़ी को बेचा जा रहा है जिसके सामने अपने देश में बेकारी का सवाल मुंह बाए खड़ा है.
भगतसिंह का असली संदेश किताबों को पढ़ने की ललक और उससे उत्पन्न अपने से बेहतर बुद्धिजीवियों से सिद्धांतों की बहस में जूझने के बाद उन सबके लिए एक रास्ता तलाश करने का है जिन करोड़ों भारतीयों के लिए बहुत कम प्रतिनिधि-शक्तियां इतिहास में दिखाई देती है.
कौम के मसीहा वे ही बनते हैं जो देश की लड़ाई या प्रगति को मुकाम तक पहुंचाते हैं और खुद अपने वैचारिक मुकाम तक पहुंचने का वक्त जिन्हें मिल जाता है. भगतसिंह अल्पायु में दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद इतिहास की दुर्घटना नहीं थे. वे संभावनाओं के जननायक थे.
उनसे कई मुद्दों पर असहमति भी हो सकती है लेकिन बौद्धिक मुठभेड़ किए बिना तरह तरह की विचारधाराओं का श्रेष्ठि वर्ग उनसे कन्नी काटता रहा है. यह तकलीफदेह सूचना है कि भगतसिंह ने लगभग तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें जेल में लिखी थीं जो बाहर पहुंचाए जाने के बावजूद लापरवाही, खौफ या अकारण नष्ट हो गईं.
‘जेल की डायरी‘ उनकी आखिरी ज्ञात किताब है. उसके टुकड़े टुकड़े जोड़कर उनके तेज दिमाग के तर्कों के समुच्चय को पढ़ा और प्रशंसित किया जा सकता है.
भगतसिंह के साथ दिक्कत यही है कि हर संप्रदाय, जाति, प्रदेश, धर्म, राजनीतिक दल, आर्थिक व्यवस्था उन्हें पूरी तौर पर अपना नहीं पातीं. उनके चेहरे की जुदा जुदा सलवटें अलग अलग तरह के लोगों के काम आती हैं. वे उसे ही भगतसिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं.
असली चेहरा तो पारदर्शी, निष्कपट, स्वाभिमानी, जिज्ञासु, कर्मठ और वैचारिक नवयुवक का है. वह रूढ़ व्यवस्थाओं को लेकर समझौतापरक नहीं हो पाया. असमझौतावादी भगतसिंह को तेईस चौबीस वर्ष में ही काला कफन ओढ़ना पड़ा. भगतसिंह की शायद यही नियति हो सकती थी.
उनकी शहादत के अस्सी वर्ष बीत जाने पर भी दुनिया और भारत उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं जिन्हें भगतसिंह ने वक्त की स्लेट पर स्थायी इबारत की तरह उकेरा था. साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अधिनायकवाद और तानाशाहियां अपने जबड़े में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वहारा और पूरे भविष्य को फंसाकर लीलने के लिए तत्पर हैं.
भगतसिंह की भाषा पढ़ने पर कुछ भी पुराना या बासी नहीं लगता. वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे. उन्होंने जो कुछ पढ़ा, अधिकांशअंग्रेजी और पंजाबी में, लेकिन जो कुछ लिखा और बोला उसका अधिकांश हिन्दी में. यह भगतसिंह की नए भारत के बारे में सोच है. इसकी डींग उन्होंने नहीं मारी.
हिन्दुस्तान को पूरी आजा़दी भगतसिंह के अर्थ में नहीं मिली है. अंगरेजों के रचे काले कानून देश पर हावी हैं. सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से लेकर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री फतवे जारी करते हैं कि संविधान की रक्षा होनी है.
संविधान में अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, केनेडा, स्विट्जरलैंड, जर्मनी, जापान वगैरह कई और देशों की अनुगूंजें शामिल हैं. इसमें याज्ञवल्क्य, मैत्रेयी, चार्वाक, कौटिल्य और मनु के सर्वकालिक विचारों के अंश नहीं हैं. गांधी, भगतसिंह, लोहिया भी नहीं हैं.
इसमें निखालिस भारतीय समावेशी परम्पराएं नहीं है. संवैधानिक विधायन को लेकर देश क्या किसी अंतर्राष्ट्रीय साजिष का शिकार हो गया है? भारत के स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों ने संविधान की कितनी रचना की? सेवानिवृत्त आई.सी.एस. अधिकारियों, दीवानसाहबों, रायबहादुरों और कई पश्चिमाभिमुख विधिक बुद्धिजीवियों ने दरअस्ल मूल पाठ रचा. संविधान की पोथी का अपमान अभीष्ट नहीं है.
रामायण, गीता, कुरानशरीफ, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहब पर यदि बहस होती है कि इनके सच्चे अर्थ क्या हैं. तो जिस पोथी की आड़ में प्रशासन चल रहा है, उसकी भी आयतों के मर्म को बहस के केन्द्र में डालने का भी अधिकार जनता को लेना चाहिए. यही भगतसिंह का तर्क है.
उन्होंने तर्क के बिना किसी भी विचार या निर्णय को मानने से परहेज किया. उनके तर्क में भावुकता है और भावना में तर्क है. भगतसिंह देश के शायद पहले विचारक हैं जिन्होंने दिल्ली के क्रांतिकारी सम्मेलन में कहा था कि सामूहिक नेतृत्व के जरिए पार्टी को चलाने का शऊर सीखना होगा. यदि कोई चला भी जाए तो पार्टी नहीं बिखरे क्योंकि व्यक्ति से पार्टी बड़ी होती है और पार्टी से सिद्धांत बड़ा होता है.
देश को बार बार तमंचे भांजने वाला भगतसिंह क्यों याद कराया जाता है. यदि कोई थानेदार अत्याचार करे तो यह उत्तेजना भगतसिंह की है कि उसे गोली मार दी जाए? वह अजय देवगन या धर्मेन्द्र के बेटे सनी देओल का पूर्वज संस्करण नहीं हैं. वह फिल्म के इतिहास में नहीं, इतिहास की फिल्म के नायक बतौर जीवित रहेंगे.