भगतसिंह के कंधे पर कृतघ्न देश
कनक तिवारी | फेसबुक:आज के मनहूस दिन भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को अंगरेज जल्लाद ने फांसी दी थी. दुनिया के नवयुवकों, स्वतंत्रता संग्राम सैनिकों और अवाम के मन गहरा असंतोष चुनौती बनकर उभरा था. क्रांतिकारी चाहते तो इस हादसे से बच सकते थे. युवा विचारक का आकलन था इतिहास निर्णायक मोड़ पर मनुष्य के हौसलों को ललकारता है. असंदिग्ध है भगतसिंह और साथी कुरबानी के इम्तहान के लिए हर वक्त तैयार थे. लाला लाजपत राय को लाठियों से मौत के मुंह में धकेलने वाले अंगरेजों को सबक सिखाने भगतसिंह ने प्रतीकात्मक हिंसा का इस्तेमाल कर सार्जेंट सांडर्स की हत्या का आरोप अपने सिर ले लिया. असेम्बली बम कांड में भगतसिंह ने ऐसा कुछ नहीं किया था कि उन्हें अंगरेजी कानून के तहत मौत की सजा मिलती.
भगतसिंह के साथ दिक्कत है. वे सबके लिए फकत जुबानी नारा हैं. उनकी राजनीतिक समझ किसी पार्टी के काम की नहीं है. भगतसिंह फांसी चढ़ते लेनिन की जीवनी पढ़ते जल्लाद से कह रहे थे. मित्र थोड़ा रुक जाओ. एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है. लेनिन की मूर्ति तोड़ने वाले कुलक्षणी राजनेता और उनके नादान, मासूम, अशिक्षित, बंधुआ मजदूर राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने भगतसिंह के नाम को कलंकित कर दिया. भगतसिंह और हिंदुत्व शब्द ईजाद करने वाले विनायक दामोदर सावरकर नास्तिक थे. दोनों का जातिवाद में विश्वास नहीं था. भारत को पितृभूमि कहते सावरकर की राष्ट्रीयता की समझ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की समझ से अलग थी. फिर भी सावरकर से भगतसिंह की पटरी नहीं बैठी. भगतसिंह की राष्ट्रवादी थीसिस का निष्कर्ष मजहब भारतीयता का समानार्थी नहीं है. क्रांतिधर्मिता के बावजूद सावरकर ने जेल से छूटने कई असफल और अंतिम सफल माफीनामे लिखे. इसके बरक्स भगतसिंह अपनी प्रसिद्धि के क्वथनांक पर चढ़े दुनिया के सबसे कम उम्र के गैर समझौतावादी शहीद के रूप में धु्रवतारे की तरह प्रतिष्ठित हुए.
इतिहास प्रसिद्ध दुर्गाभाभी को लेकर कलकत्ता जाने में भगतसिंह को केश और दाढ़ी कटानी पड़ी. कुछ सिक्ख धार्मिकों के उलाहना देने पर आस्तिक सिक्ख की मुद्रा में भगतसिंह ने कहा गुरु गोविंद सिंह ने सिखाया है. देश और मनुष्यता के कौल के लिए शरीर का अंग अंग कटा दो. मैंने केश कटाए हैं. जरूरत पड़ी तो गरदन कटा दूंगा. यही उन्होंने किया.
कम्युनिस्टों ने भी भगतसिंह का मंत्रोच्चार धीमा कर दिया है. कामरेड सोहनसिंह जोश के आग्रह के बावजूद भगतसिंह कम्युनिस्ट नहीं बने. नैष्ठिक प्रतिबद्धता के बावजूद भगतसिंह को अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलनों में निमंत्रण नहीं मिला. भगतसिंह ने हिंदुत्व के बरक्स वामपंथी राष्ट्रवाद को सिर माथे लगाया. इतिहास को तमीज सिखाई सभी सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और अंतर्राष्ट्रीय नासमझी की वर्जनाओं को किस तरह तोड़ा जा सकता है. बेहद पढ़ाकू भगतसिंह ने कच्ची उम्र में 300 से ज्यादा ग्रंथ पढ़ लिए थे. अमेरिका और यूरोप के देशों से भारतीय विचारकों को प्रेरणा मिली है. इनमें विवेकानंद, गांधी और नेहरू शामिल हैं. भगतसिंह के जेहन में केवल अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी मार्गदर्शक बने. पूंजीवाद और अंतर्राष्ट्रीय मिश्रित आर्थिक समझ के खिलाफ भगतसिंह समाजवादी थे. वह समाजवाद नहीं जो संविधान का मुखड़ा होने के बावजूद मुफलिसों का दुखड़ा है.
करोड़ों नादान, बेकार, अल्पशिक्षित और मजहबी नफरत की घुट्टी चाटते युवकों के जेहन में जहर भरा जा रहा है. भगतसिंह के विचार फिटकरी हैं. उसके स्पर्श से अंधविश्वास के तालाब का काला जल निथारा जा सकता है. महान पुरुषों की तुलना करना आकाश की ओर देखकर थूकने जैसा गंदा काम लोग करते हैं. दिल्ली के तख्तेताऊस पर बैठे रहने यह काम हो रहा है. संप्रदायवादियों के अनुसार भगतसिंह गांधी से बड़े हैं. इस तर्क से वे सरदार पटेल से भी बड़े हुए. सच्चे राष्ट्रवादी पूरी दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति भगतसिंह की क्यों नहीं लगवा सकते. हर विचारधारा भगतसिंह को सबसे बड़ा क्रांतिवीर बताते जुबानी जमाखर्च करती चाहती यही है भगतसिंह जैसा क्रांतिकारी उनके पड़ोस की कोख से उपजे. वह गर्म लावा हैं जिसे हाथ में रखने से अंतर तक जल जाने का खतरा है.
भगतसिंह का चेहरा इतिहास की थाती है. पीढ़ियों तक अमर रहेगा. फैसला वे नहीं कर सकते जो उनके इल्म से बेखबर हैं. हाथ में पिस्तौल, सिर पर फैल्ट हैट और अंगरेजों की पोशाक से लकदक भगत सिंह को नवयुवकों के अपरिपक्व जेहन में उतारा जा रहा है. भगतसिंह के वैचारिक संसार के दरवाजे ताला लगा है. बोर्ड पर लिखा है ‘‘इस आदमी के पास नहीं आओ. वरना तुमको दुनिया का सच्चा इंसान बना देगा.‘‘ भारत प्रांतीयता, भाषा, जातिवाद तथा मजहबी रूढ़ियों का शरणालय है. अपनी उम्र के अनुकूल मुसलमान मित्रों को भी मांस परोसते भगत सिंह चटखारे लेकर कहते थे ‘इसमें हलाल और झटका दोनों किस्म का मांस है. मैं नहीं बता सकता.‘
देश को मादरी जुबान देने पीढ़ियां सिर फुटौव्वल करती रही हैं. 17 वर्ष में कलकत्ता से प्रकाशित ‘मतवाला‘ पत्रिका में ‘पंजाब में भाषा और लिपि की समस्या‘ में प्रथम पुरस्कार पाते नायाब तर्क करते हैं. सब अपनी भाषाएं लिखें, बुनें लेकिन देश की भाषाओं में केवल देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होना चाहिए. पढ़ने में स्फुरण होता है. लोहिया के अनुसार 1909 में लिखी गांधी की ‘हिंद स्वराज‘, गुजराती भाषा और लिपि में और 1913 में नोबेल पुरस्कार पाती गुरुदेव टैगोर की ‘गीतांजलि‘ बांग्ला भाषा और लिपि में लिखी गई थी. भगत सिंह इतिहास के धोबी के यहां धुल चुकी कपड़े की गठरी से एक एक पोशाक निकालकर उस पर वैज्ञानिक तर्क की इस्तरी चलाते रहे. करोड़ों तंगदिल, बुजदिल या गाफिल बने रहें. वे केवल नारे लगाने वाले कंठ हैं. वे नहीं जानते अंधेरे कुओं को महासागर नहीं कहते.
वह नौजवान प्रखर पत्रकार भी था. बलवंत सहित कई उपनामों से उर्दू और अंगरेजी तथा हिन्दी में सबसे वृहद लेखन किया. उसकी कलम में अंगरेजों के खिलाफ तेजाब झरता था. भारतीय जड़ताओं के खिलाफ भी बहुत लिखता रहा. इतिहास को ही चश्मा पहना दिया गया है. भगत सिंह की निखालिस आंखों से इतिहास को देखने पर उसकी विकृतियां समझ आने लगती हैं. भगत सिंह सिक्ख धर्म की भी समझ के इतिहास के हस्ताक्षर हैं. इसलिए वे भारतीय और पूरी दुनिया की उत्तरोत्तर समझ के प्रवक्ता हैं.
जो आज ‘वंदेमातरम‘ का झंडा उठाए हुए हैं तब उनकी घिग्घी बंधी हुई थी. निर्मम सच है हर व्यक्ति भगत सिंह नहीं हो सकता. ज्यादा क्रूर सच है भगत सिंह की केवल जुबानी आरती उतारी जा रही है. शैक्षिक पाठ्यक्रमों में कई कूपमंडूकों की किताबों को जगह मिलती रहती है. जानबूझकर विद्यार्थियों की जहरीली नस्ल पैदा करने से हुकूमत को कारिंदे मिलते हैं. शिक्षा में भगत सिंह का कोई स्थान नहीं है. उनकी वैचारिकता की साझा समझ भी विकसित किए जाने का प्रयोजन नहीं है. देश यहां तक गिर चुका है कि लेनिन तो क्या गांधी, नेहरू, सुभाष, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अंबेडकर वगैरह की मूर्तियां गिराने के बावजूद मूर्ख हिंसकों के हाथ भगतसिंह के गिरेबान के इर्द गिर्द भी जा सकते हैं. यदि इतिहास को वैचारिक विश्वविद्यालय बनाने के बदले नाबदान बनाया जाए. तब भी भगत सिंह का दिमागी सूरज अंधेरे की खोह में दफ्न होने वाला नहीं है.