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प्रसार भारती यानी सरकार की आवाज

प्रसार भारती में एक स्वायत्त प्रसारक का कोई भी लक्षण दूर-दूर तक नहीं दिखता. नरेंद्र मोदी सरकार या पहले की किसी भी सरकार ने यह कभी नहीं चाहा कि सरकारी प्रसारक स्वतंत्र तौर पर स्वायत्त होकर काम करे. जब कभी भी देश के सरकारी प्रसारक प्रसार भारती और सरकार में मतभेद होता है तो प्रसार भारती की स्वायत्ता का मुद्दा उठता है. ताजा विवाद प्रसार भारती बोर्ड और सूचना व प्रसारण मंत्रालय के बीच नियुक्तियों को लेकर है. बोर्ड का कहना है कि नियुक्ति के बारे में निर्णय लेना उसका हक है. इसके बाद जब मंत्रालय ने दूरदर्शन और आकाशवाणी के कर्मचारियों के तनख्वाह के लिए पैसे जारी नहीं किए तो बोर्ड ने कहा कि सरकार बदले की भावना के साथ काम कर रही है. लेकिन यह मामला शांत पड़ गया. अब लग रहा है कि यह आपसी पारिवारिक झगड़ा था.

1975-77 के बीच आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने जिस तरह से दूरदर्शन और आकाशवाणी का दुरुपयोग किया था, उसके बाद से इनकी स्वायत्ता की मांग उठी. 1977 में सत्ता में आने वाली जनता पार्टी ने इसके लिए वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज की अध्यक्षता में एक समिति गठित की. भारत में इसके लिए जो तरीका अपनाया जाना चाहिए था, उसके लिए बीबीसी का मॉडल चुना गया. वर्गीज समिति की सिफारिशों के आधार पर प्रसार भारती कानून 1990 में पारित हुआ. इसके सात साल बाद प्रसार भारती का गठन हुआ.

लेकिन अभी तक किसी सरकार ने इस कानून को ठीक से नहीं लागू किया. प्रसार भारती को सरकार के हस्तक्षेप से बचाने के लिए कानून में 22 सदस्यीय संसदीय समिति के गठन का प्रावधान है. लेकिन अब तक यह समिति नहीं बनी और कोई राजनीतिक दल इसकी मांग नहीं करता. पिछली सरकार ने जो सैम पैत्रोदा समिति गठित की थी, उसने अपनी रिपोर्ट में इस विषय को उठाया था. इस तरह की व्यवस्था कितनी कारगर हो सकती है, यह राज्यसभा टीवी के मामले में दिखा. 2011 में इसकी शुरुआत हुई थी. उस वक्त उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की अध्यक्षता में एक समिति बनी. विभिन्न दलों के सांसदों को इसका सदस्य बनाया गया. इसका काम था राज्यसभा टीवी के कामकाज पर नजर रखना. राज्यसभा टीवी ने कुछ समय तक देश को वैसी सामग्री दी जैसी सामग्री की उम्मीद सरकारी प्रसारक से रहती है. निजी समाचार चैनलों के शोरगुल में इसकी एक अलग पहचान बनी. लेकिन यह प्रयोग ज्यादा दिनों तक नहीं चला.

कानून में एक प्रसारण परिषद के गठन की बात भी है. इसमें सार्वजनिक जीवन में विशिष्ट पहचान रखने वाले 11 लोगों को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाने का प्रावधान है. चार सांसदों को भी इसका सदस्य बनाना प्रस्तावित है. कानून में कहा गया है कि अगर प्रसार भारती की सामग्री से किसी को कोई आपत्ति होगी तो वह इस परिषद से शिकायत कर सकता है. लेकिन यह परिषद भी अब तक नहीं बनी. कानून में भारतीय प्रसारण निगम का गठन काॅरपोरेट संस्था के तौर पर करने की भी बात है. लेकिन यह भी अब तक नहीं हुआ.

अभी दूरदर्शन और आकाशवाणी उसी ढंग से काम कर रहे हैं जैसे ये सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधीन होने पर काम करते थे. प्रसार भारती बोर्ड को शायद ही स्वतंत्र कहा जा सकता है. इस बोर्ड में सत्ताधारी पार्टी की विचारधारा का समर्थन करने वाले लोग होते हैं. मौजूदा बोर्ड का भी यही हाल है. बोर्ड और सरकार के बीच कभी विचारों पर विवाद नहीं होता है बल्कि अपने अधिकारों को लेकर ये विवाद होते हैं. ऐसे में प्रसार भारती को सार्वजनिक प्रसारक कहना गलत होगा. अब भी यह सरकारी प्रसारण एजेंसी की तरह काम कर रही है.

जब तक किसी पब्लिक प्रसारक पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का किसी भी तरह का कोई नियंत्रण रहेगा तब तक उसकी स्वायत्ता की बात करना बेमानी है. सवाल तो यह भी पूछा जाना चाहिए कि भारत में यह मंत्रालय ही क्यों है? सरकार का प्रोपगेंडा करने और निजी मीडिया समूहों को लाइसेंस देने के अलावा इसके और क्या काम हैं? सरकार के पास प्रोपगेंडा के लिए आकाशवाणी और दूरदर्शन हैं. लाइसेंस देने का काम कोई और संस्था कर सकती है. किसी लोकतंत्र में ऐसे किसी मंत्रालय का होना क्या किसी समस्या से कम है?

एक स्वायत्त पब्लिक प्रसारक विकसित करना बेहद महत्वपूर्ण है. ऐसी संस्था बहुत सारे ऐसे विषयों को उठा सकती है जिसकी अनदेखी निजी मीडिया समूह करते हैं. निजी चैनलों के मुकाबले यह सार्थक विमर्श का एक सशक्त मंच भी बन सकता है. भारत की विविधताओं को समेटने और प्रदर्शित करने का एक माध्यम भी यह बन सकता है. आकाशवाणी ने पहले भी देश के अलग-अलग हिस्से के संगीत के सहेजने का काम किया है. एक स्वतंत्र पब्लिक प्रसारक की कई और भूमिकाएं हो सकती हैं. प्रसार भारती इन मोर्चों पर कहीं नहीं ठहरता.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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