रोजगार ऐसे तो नहीं बढ़ता है
रोजगार से जुड़े सही आंकड़े तब सामने आएंगे जब एक निश्चित अंतराल पर सही आंकड़ों पर आधारित नियमित सर्वेक्षण हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक टेलीविजन साक्षात्कार में एक गलत दावा यह किया कि कर्मचारी भविष्य निधि संगठन यानी ईपीएफओ में 18 से 25 साल आयु वर्ग के 70 लाख लोगों ने खाते खुलवाए हैं. उन्होंने यह जानकारी बगैर यह बताए दी कि किस अवधि में ये नए रोजगार पैदा हुए हैं. ऐसा लगता है कि उनका यह आंकड़ा नीति आयोग को दिए गए एक अध्ययन से निकला है. इसमें 31 मार्च, 2018 तक काम काज पैदा होने की संभावना का जिक्र है. रोजगार सृजन से जुड़े जितने विश्वसनीय स्रोत हैं, उनमें से किसी से भी यह संभावना नहीं दिखती कि 2017-18 में पिछले साल के मुकाबले अधिक रोजगार पैदा होंगे.
नीति आयोग के पास जो अध्ययन दिया गया है उसके जरिए देश में रोजगार का अंदाज लगाने के तौर-तरीकों को बदलने की कोशिश हो रही है. श्रम मामलों से जुड़े अर्थशास्त्रीयों का कहना है कि रोजगार का अंदाज लगाने से संबंधित पद्धति को बदलना चाहिए. क्योंकि मौजूदा व्यवस्था में सैंपल का आकार छोटा होता है और ये सर्वेक्षण नियमित तौर पर नहीं होते. लंबे समय से व्यापक सर्वेक्षण और वास्तविक समय पर रोजगार की स्थिति की जानकारी देने वाली पद्धति की जरूरत महसूस की जा रही है. काम काज के आंकड़ों में सुधार के लिए गठित कार्य बल की रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके लिए ईपीएफओ, ईएसआईस और राष्ट्रीय पेंशन योजना के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
इन आंकड़ों के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि चालू वित्त वर्ष में हर महीने 5.9 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा. इससे यह स्पष्ट है कि इन सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में किसी के शामिल होने को ही कार्य बल ने रोजगार माना है. लेकिन इस अध्ययन के जिन श्रमिकों को शामिल किया गया है, उनकी संख्या कुल श्रमिक संख्या में काफी कम है. इसलिए इस आधार पर रोजगार में बढ़ोतरी का दावा करना ठीक नहीं है. इससे तो यही अंदाज लगाया जा सकता है कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में लोगों की भागीदारी बढ़ रही है. यानी रोजगार औपचारिक हो रहे हैं. इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि नए रोजगार पैदा हो रहे हैं.
कार्य बल की रिपोर्ट में प्रशासनिक आंकड़ों से जुड़ी दूसरी समस्याओं का भी उल्लेख है. इन आंकड़ों में प्रॉक्सी का इस्तेमाल होता है. सरकार की नीतियों में बदलाव की वजह से इनमें पूर्वाग्रह भी आते हैं. क्रियान्वयन की गहनता और इच्छा में साल दर साल बदलाव भी दिखता है. कई बार सरकार की ओर से इन योजनाओं में शामिल कराने को लेकर दबाव भी होता है. इससे रोजगार के आंकड़े बढ़े हुए दिखते हैं. ईपीएफओ हाल के दिनों में अति सक्रिय रही है और ठेके पर काम करने वाले लोगों को भी इसमें शामिल करने का दबाव प्रतिष्ठानों पर बनाया है.
अगर कोई अस्थाई श्रमिक स्थायी श्रमिक बनता है तो इससे पे-रोल बढ़ता है लेकिन नया रोजगार नहीं पैदा होता. इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ईपीएफओ, ईएसआईसी और एनपीएस के आंकड़ों के इस्तेमाल से एक ही व्यक्ति की गिनती एक से अधिक बार होने की आशंका बनी रहती है. अगर इसे दूर भी कर लिया जाता है तो भी ये आंकड़ें गलतियों से मुक्त नहीं हो सकते.
अर्थव्यवस्था के लिए 2016-17 और 2017-18 अलग तरह के साल रहे हैं. नोटबंदी और जीएसटी की वजह से कई आर्थिक गतिविधियों पर नकारात्मक असर पड़ा. इससे अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों के सामने अधिक नियमन स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा. इससे सामाजिक योजनाओं में पंजीयन तो बढ़ा लेकिन रोजगार नहीं बढ़ा.
नीति आयोग को दिए गए अध्ययन के लेखक ने यह भी कहा है कि कैसे उनकी पद्धति से अमेरिका के ब्यूरो ऑफ लेबर स्टैटिस्टिक की तरह हर महीने गैर-कृषि रोजगार का आंकड़ा जारी किया जा सकता है. हालांकि, अमेरिकी संस्था इसके लिए परिवारों के स्तर पर सर्वेक्षण करती है. उनका सैंपल काफी बड़ा है. ये नियमित तौर पर किए जाते हैं. जाहिर है कि प्रशासनिक आंकड़ों के आधार पर ऐसे सर्वेक्षण नहीं किया जा सकता. श्रम सर्वेक्षण में रोजगार सिर्फ एक पक्ष है. इसके अलावा कामकाजी परिस्थितियों का सर्वेक्षण भी जरूरी है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था काफी हद तक औपचारिक है. इसके बावजूद वास्तविक जानकारी के लिए वहां भी सर्वेक्षण पद्धति का ही सहारा लिया जाता है.
इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रशासनिक आंकड़ों पर आधारित अध्ययन से आर्थिक तंत्र के औपचारिक होने का अंदाज मिलता है न कि रोजगार सृजन का. जोर इस बात पर होना चाहिए कि नैशनल सैंपल सर्वे कार्यालय और श्रम ब्यूरो अधिक व्यापक रोजगार सर्वेक्षण करें. सालों से इन लोगों ने सर्वेक्षण की वैसी पद्धति विकसित की है जो भारतीय परिस्थितियों के अधिक अनुकूल हैं. इसके तहत औपचारिक क्षेत्र में अनौपचारिक रोजगारों, अनौपचारिक क्षेत्र में विभिन्न तरह के रोजगार, रोजगार चक्र और अर्धबेरोजगारी का सर्वेक्षण किया जाता है.
इस अध्ययन के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि न तो पूरा अध्ययन और न ही पूरा प्रशासनिक आंकड़ा सार्वजनिक किया गया है. नई पद्धति की कोई समीक्षा या मूल्यांकन नहीं किया गया है. ऐसे में इसके निष्कर्षों को राजनीतिक लाभ के लिए लोगों के बीच उठाना ठीक नहीं है.
1966 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय