प्रसंगवश

जनयुद्ध के शिकार नेमीचंद

नक्सलियों द्वारा शुरु किये गये जनयुद्ध के शिकार दक्षिण बस्तर के पत्रकार नेमीचंद की हत्या को लेकर अब तस्वीर साफ हो रही है. बस्तर के पत्रकारों द्वारा नक्सलियों के समाचारों का बहिष्कार किये जाने से डर कर, नक्सलियों ने होली के पूर्व एक पत्रकार वार्ता बुलाकर यह आश्वासन दिया कि जिन नक्सलियों ने नेमीचंद की हत्या की है, उन्हें पार्टी से निकाल दिया जायेगा. नक्सलियों ने कहा है कि यह हत्या डिवीजनल कमेटी को अंधेरे में रखकर एरिया कमेटी द्वारा की गई है.

इस घटना से तीन सवाल जहन में आते हैं. पहला तथाकथित जनयुद्ध के निशाने पर कौन हैं- जनता, सरकारी तंत्र जिसमें पुलिस भी शामिल है या लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकार. क्या निशाना ही गलत लगाया था या अब उसे नया कोण देने की कोशिश माओवादी कर रहे हैं? दूसरा क्या एक पार्टी जो माओ को अनुशरण करने का दावा करती है, उसमें इतना भी अनुशासन नही है कि वे इतना बड़ा कदम अपने उच्चतर कमेटी को बताये बिना उठा सकते हैं? तीसरा- क्या आज जनयुद्ध चलाने लायक परिस्थतियां भारत या बस्तर में हैं ?

यह तो तय है कि पत्रकार नेमीचंद की हत्या योजनाबद्ध तरीके से की गई थी. लेकिन नक्सलियों ने इस मामले में लगातार सबको गुमराह करने का काम किया. पहले स्वीकरोक्ति, फिर इंकार, फिर स्वीकरोक्ति, फिर इंकार और फिर अंततः पत्रकारों से बातचीत में एरिया कमेटी पर हत्या का आरोप. जाहिर है, हत्या करते करते नक्सली उसके इतने आदि हो गये हैं कि वे सही गलत में फर्क करने मे अक्षम हैं.

हम इस बहस में फिलहाल नहीं जाना चाहते कि नेमीचंद की किसी मामले में गलती थी या नहीं और नक्सलियों को उनकी हत्या का अधिकार किसने दिया लेकिन यह तो तय है कि नेमीचंद के मारे जाने से व्यवस्था में परिवर्तन नहीं ही हुआ होगा, जिसके लिये नक्सली कथित जनयुद्ध में जुटे हुये हैं. तो फिर क्या नेमीचंद जैसे पत्रकार या किसी भी मनुष्य की नृशंस हत्या नक्सलियों के लिये दिनचर्या की तरह का मामला है? माओ के चेलों की संवेदनशीलता का असली चेहरा क्या यही है?

यह जानना भी दिलचस्प है कि हत्या के बदले हत्या का दावा करने वाले नक्सलियों से जब पत्रकारों ने जानना चाहा कि क्या वे नेमीचंद के हत्यारों लोकल एरिया कमेटी के लोगों के साथ भी वैसा ही बर्ताव करेंगे तो उनका जवाब था- नहीं, हम उन्हें संगठन से निकाल देंगे. तमाम तरह की हिंसा का कट्टर विरोध करते हुये भी पूछने का मन होता है कि अपने मामले में सारी नौतिकता और नियम-कायदे कहां चले जाते हैं कॉमरेड ?

नेमीचंद की हत्या के बाद यह बात और साफ गई है कि माओवादी पार्टी को जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धांत पर नही वरन् अराजकतावादी रुझानों के आधार पर चलाया जा रहा है. व्यक्तिगत निर्णयों को पार्टी का नाम दे दिया जाता है. वर्ना नेमीचंद ने कब कहा था कि समाज में परिवर्तन नही होना चाहिये. इस व्यवस्था के सबसे बड़े दलाल तो आज नक्सल आंदोलन के दामाद बने हुए हैं. इन दामादों की सेवा से मुक्ति पाये बिना कम से कम कोई जनयुद्ध का दावा तो नहीं ही किया जा सकता है.

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