बस्तर के पिटारे पर राजनीतिक दांव
दंतेवाड़ा | सुरेश महापात्र: क्या बस्तर में बदलाव की बयार बह रही है? या महिलाओं के ऐतिहासिक मतदान का मतलब भाजपा शासन को महिलाओं का समर्थन माना जाए? इसका जवाब तो 8 दिसंबर को ही मिलेगा. पर इस चुनाव के परिणाम आने से पहले ही एक बड़ा परिणाम आ गया है. वह है किसी भी समस्या से निपटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति व ईमानदार प्रयास की जरूरत की कमी का. जनता द्वारा भारी मतदान के बाद इस फैसले को इसी तरह से समझा जाना चाहिए….
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के पहले चरण में बस्तर की सभी 12 और राजनांदगांव की छह सीटों के लिए मतदान बीते 11 नवंबर को सफलता पूर्वक संपन्न हो गया. यह बेहद सुखद, आश्चर्यजनक, सुरक्षामूलक और नवजागृति का संदेश देने वाला चुनाव अभियान रहा. इस कार्य की सफलता के लिए निर्वाचन आयोग को निश्चित तौर पर बधाई मिलनी ही चाहिए. पर शर्तों के साथ….
शर्त यही कि आने वाले चुनाव में वे किसी भी मतदान केंद्र को शिफ्ट नहीं करेंगे और हर मतदाता तक उसके अधिकार और कर्तब्य का अभियान पहुंचाकर दिखाएंगे. आखिर वजह भी साफ है जिस इलाके में सबसे ज्यादा नक्सली दबाव महसूस किया जा रहा था वहां आयोग ने सुरक्षा बलों की मौजूदगी में निष्पक्ष मतदान की प्रक्रिया शांतिपूर्ण माहौल में पूरा कर बड़ा संदेश दे ही दिया है.
इस चुनाव के दौरान कई अति संवेदनशील इलाकों से लौटे मतदान दलों की अपनी-अपनी कहानियां रोचक तस्वीर बयां कर रही हैं. मेरी कुछ ऐसे मतदान दलों के सदस्यों से चर्चा हुई जिनका अनुभव यह बता रहा है कि वे जिन क्षेत्रों में चुनाव के लिए भेजे गए थे, वहां शायद पहली बार मतदान हुआ. वह भी रिकार्ड करीब 80 फीसदी! वास्तव में अंदरूनी क्षेत्रों से निकली कहानियां बदलते बस्तर की तस्वीर बयां कर रही हैं.
एक इलाके की कहानी पीठासीन अधिकारी की जुबानी (सुरक्षा के मद्देनजर इलाके और अधिकारी का नाम नहीं दे रहा हूं.)-
“हमें हेलिकाप्टर से दोपहर को ही बेस कैंप में उतार दिया गया. वहां पहुंचने के बाद पता चला कि जिस जगह हमें उतारा गया है वहां से करीब 20 किलोमीटर का फासला तय करना है.
सीआरपीएफ के जवानों ने हमें बता दिया कि आप अब तैयार रहें. किसी भी वक्त रवानगी होगी. यह नहीं बताया पैदल या वाहन से. अल सुबह करीब साढ़े तीन बजे हमें निकलने के लिए कहा गया. चार लोगों के सुरक्षा के लिए 50 जवान मुस्तैद. जो घेरा बनाकर सुरक्षा कवच बनकर हमें मुकाम तक ले जा रहे थे.
जिस राह से हमें ले जाया गया उसमें दो नाले पड़े, जिसे हमें पार करना पड़ा. इसे देखकर लगा कि यहां इससे पहले प्रचार करने भी शायद ही कोई पहुंचा होगा. करीब ढाई घंटे में हम उस स्थल तक पहुंचे जहां हमें मतदान करवाना था. मतदान केंद्र के चारों ओर जवान सुरक्षा का ताना-बाना बुनकर खड़े थे. सुबह ठीक सात बजे पहला मत डालने गांव का एक वृद्ध सबसे पहले पहुंचा. उसके हाथ में बीएलओ द्वारा बांटी गई वह पर्ची थी, जिसमें उसके मतदाता होने का सबूत था. इसके बाद लोग आते गए, मतदान होता गया. दोपहर तीन बजे मतदान पूरा होने तक करीब 80 फीसदी मतदाताओं ने मतदान में हिस्सा लिया. जितने भी लोग पहुंचे सभी के पास बीएलओ द्वारा बांटी गई पर्ची थी.
यह कहना भी आसान नहीं है कि वहां लोगों ने किस मुद्दे, किस मांग और किस लालच में वोट डालने पहुंचे! जैसी चुनाव को लेकर परंपरागत धारणा बनी हुई है. मतदान केंद्र में उपयोग की गई वोटिंग मशीन में ऊपर से नीचे तक और नीचे से ऊपर तक अंगूठे का निशान बता रहा था कि यहां किसे ज्यादा मत मिला है, इसका भी अंदाजा लगाना कठिन! जाहिर है यहां ‘नोटा’ इनमें से कोई नहीं का भी प्रयोग हुआ होगा. भले ही इसके मतलब से लोग वाकिफ हों या न हों.
मतदान के लिए लोगों के रुझान पर सुरक्षा बलों ने बताया कि मतदान से पहले ही इस इलाके में अतिरिक्त जवानों ने डेरा डाल दिया था. पूरे गांव को कवर किया गया था. सो लोग निर्भय होकर मतदान में हिस्सा लेने पहुंचे.”
चलो इस कहानी से यह तो पता चला कि इस बार बहुत से ऐसे इलाकों में मत पड़े. जहां लोकतंत्र को जिंदा रखने की उम्मीद नाउम्मीद में बदल चुकी है. चुनाव आयोग ने पर यह करके दिखा दिया कि अगर सही तैयारी की जाए और लोगों का विश्वास हासिल हो तो नामुमकिन कुछ भी नहीं.
अब इसी बस्तर में ऐतिहासिक मतदान को लेकर राजनीतिक दलों के कयासों का दौर देखने-सुनने में आनंद की अनुभूति हो रही है. जो दल अंदरुनी इलाकों में अपने पार्टी का संदेश देने तक नहीं पहुंच सके, वे अब उन्हीं इलाकों के दम पर अपने जीत-हार का ककहरा पढ़ा रहे हैं. बस्तर के बंद पिटारे पर राजनीतिक दांव पर जुबानी जोर आजमाईश की जा रही है. सरकार किसकी बनेगी और बस्तर में किसे फायदा मिलेगा. क्या बस्तर में बदलाव की बयार बह रही है? या महिलाओं के ऐतिहासिक मतदान का मतलब भाजपा शासन को महिलाओं का समर्थन माना जाए? इसका जवाब तो 8 दिसंबर को ही मिलेगा. पर इस चुनाव के परिणाम आने से पहले ही एक बड़ा परिणाम आ गया है. वह है नक्सली समस्या से निपटने के लिए सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति व ईमानदार प्रयास की जरूरत की कमी. जनता द्वारा भारी मतदान के बाद इस बंद पिटारे के फैसले को इसी तरह से समझा जाना चाहिए.
* लेखक बस्तर इंपैक्ट के संपादक हैं.