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एक महाकाव्य जैसी विचरती बनलता

जोशना बनर्जी | फेसबुक
बनलता सेन, एक अधीरा जो ट्राम से न कट सकी. बनलता यथासंभव अभी तक जीवनानंद दास का उपचार कर रही है. जिस प्रकार चन्दन के वृक्षों की सुगंध के कारण लताओं वाले वन को विलासस्थली समझ कर पथिक क्षणिक बैठकर सुख पाते हैं, उसी प्रकार बनलता की रूपरेखा इस प्रकार से उकेरी गयी है जैसे दृश्य में वह एक नायिका हो और अंतरमन से मानव अस्तित्व के विस्तार के लिए एक पूरा समय हो जिसे अंततः चार ऋतुओं में बँटना ही है.

मैं अपनी कल्पना में देख रही हूँ कि शृंगारदानी से अनभिज्ञ बनलता सेन बैठी है एक पक्षीपंख हाथ में लिए और बनलता का उबटन करते जीवननानंद दास कहते हैं बनलता सेन से कि हे पूज्यवरा, रवितनया समान, मैं एक चंद्रमा हूँ और तुम कुन्द का फूल. बनलता यथासंभव अभी तक जीवनानंद दास का उपचार कर रही है.

बनलता वास्तव में थी अथवा नहीं, यह प्रश्न तो बाद में आता मन में, प्रथम, आ जाती है महिका, फिर आता है शहर नॉटोर (अब बांग्लादेश में), फिर कल्पनाएँ सारी हाँफते हुए आ जाती हैं, तदोपरांत आती है कविता यह कहते हुए कि कुंद, नावें, डाकियें, सिंहल के मोती, समुद्र सभी अन्धकार में छिप जायेंगे. प्रकाश में मात्र बनलता सेन ही रह जायेगी और वह जिस पाण्डुलिपि के विषय में कविता में लिखा गया है, वह कतई किसी प्रकाशक को देने के लिए नहीं है. वह मनुष्यों से इतर पक्षी, नदियों, एकांत, ओस और दिशाओं के लिए हैं.

प्रिय कवि अपनी कल्पनाओं से एक यथार्थ का बहुत बड़ा दृश्य बनाते हैं जैसे बनलता सेन को पृथ्वी बनने के पहले के समय से ही हाथ पकड़ कर ले आये हों, अपने साथ अपनी यात्राओं में चलते हुए बनलता को और आगे के समय के लिए हाथ पकड़कर आगे कर दिया हो.

कविता प्रेमियों के लिए बनलता, कविता प्रदेश की नायिका है. जिस प्रकार चंद्रदेव अपनी नक्षत्र सेना के साथ आकाश में भ्रमण करते हैं, ठीक उसी प्रकार बनलता सेन, जीवनानंद दास की कविताओं में बार बार लौट लौटकर आती है. बनलता साहित्य की एक ऐसी किरदार है जो कभी पुष्पधन्वा कामदेव की नायिका हो जाती है, कभी ऋतुओं की भाग्यराशि, कभी कथाओं का प्राण और कभी स्वयं जीवनानंद ही बन जाती है.

कविता के बाकी सभी अक्षर जैसे प्रेमातुर होकर बनलता को स्पर्श करने का प्रयास करते हैं और जीवनानंद दास से कहते हैं कि बनलता सेन कविता लिखकर तुमने असंख्य पापिष्ठों को मुक्त किया. कलाओं के भण्डार की देवी बनलता सेन जैसे आस्ते आस्ते मनुष्यों को आमंत्रण दे रही हो कि आओ कवि बन जाओ. एक सुधाकिरण की तरह उदित होती हुई बनलता अपनी पीड़ाएँ किसी गुप्त स्थान पर रख आई है. जीवनानंद दास की मस्तक मणि बनलता सेन अपने ऐश्वर्य से अनेक कवियों से अनेक कविताएँ लिखवा बैठी है.

करूबासोना नामक उपन्यास में बनलता पहली बार आई थी परंतु यह उपन्यास 1986 में प्रकाशित हुआ था. बनलता सेन, कविता में पचंम स्वर की तरह आलाप लेती है. एक आश्रित भ्रान्ति की तरह नहीं, एक मेघमाला की तरह यह स्त्री उठती है और करूणाप्लावित वचन की तरह सबकी कर्णप्रिया बनकर अभी तक वहीं उसी कविता में एक शासिका की तरह विराजमान है. उसकी तपोराशि ही उसे अन्य से भिन्न करती है. उसकी जलराशि ही उसे पाठकों से जोड़कर रखती है. एक ग्रामदेवी की भाँति बनलता पर हम विश्वास कर बैठे हैं और यह श्रेयस्कर भी है.

रचनात्मकता, बौद्धिक खुलेपन और कामनाशीलता की उर्जा में लिपटी बनलता सेन साहित्य की एक ऐसी स्त्री है जिसकी दृष्टि और शैली कभी भी स्मृतिहीनता की परत को छू भी नहीं सकती. वह संसार जो जीवनानंद दास की कविता की परिनिष्ठित दृश्यमयता है, उस एक एक दृश्य के बिंब, उचक, चिंताएँ, दावेदारियाँ और उर्जा इस प्रकार से पाठकों के मन में छपी हुई हैं जैसे कोई पुरानी परंपरा के तहत पुनः पुनः कोई लोकधुन बज उठे.

कई कविताओं के चरित्र हमें सदैव याद रह जाते हैं, कविता में यह प्रयोग बौद्धिक बैचेनी के साथ साथ स्थापत्य को भी सिद्ध करती है. बनलता सेन का रूप, रंग, आकार हमनें नहीं देखा परंतु कविता के प्रत्येक शब्द के अंदर से बनलता उभरती हुई एक राग संरचना की तरह दिखाई देती है जैसे किसी आशय की नश्वरता को निस्पन्नता प्रदान करती हुई बनलता हमसे कह रही हो कि जब जीवनानंद ट्राम से कट रहे थे, कट रही थी मैं भी परंतु मैं पुनः जीवित हुई हूँ जीवनानंद को जीवित रखने के लिए, एक अलभ्य सुषमा और अभेद्य मौन धारण किए बनलता पाठकों को असमाप्य बंधन में बाँध देती है.

एक पंक्ति देखिए, “और पाण्डुलिपि कोरी, जिसमें कथा बुनेगी रात उतरती”, इस पंक्ति की आवृत्ति में कोई विकल्प नहीं, यहाँ कामचलाऊपन जैसा कुछ नहीं, यहाँ कलात्मकता का एक रूपक जो एकान्तिकता का सृजन कर रही है. कवि के संसार में अनेकों स्त्री, पुरूष, कीट, पक्षी, देव विचरते हैं, इन अनेकों के संसार से अनेक अनेक बार ऐसा हुआ है कि किसी चरित्र ने हमें अंदर तक छुआ हो, हमें हिलाया हो, हमारा हाथ पकड़कर हमें पास बिठाया हो और हमसे कहा हो कि यही हमारे सभी प्रश्नों के उत्तर हैं.

बनलता सेन एक रूप की तरह उभरती है जिसके चेहरे पर अनेकों रेखाएँ हैं और प्रत्येक रेखा एक सड़क की तरह महसूस की जा सकती है, प्रत्येक सड़क की अलग अलग भाव की दिशाएँ और साथ ही एकसेपन की सशक्त सक्रियकृत गरिमा जो हमें यह एहसास दिलाती है कि मनुष्य होना ही सर्वोत्तम उपलब्धि नहीं है अपितु मनुष्य होते हुए मनुष्यता बचाए रखना ही सबसे श्रेष्ठ है, मनुष्य होते हुए दुःखों को भी पर्याप्त प्रेम देना ही हमारी प्रमुख नैतिकता है. निरन्तरता और परिवर्तन अनेकस्तरीय होने के साथ साथ जटिलता को भी दर्शाते हैं.

बनलता एक ऐसा चरित्र है जिसकी चर्चा साहित्य में सुदीक्षित तरीके से सर्वथा होती रहेगी, यह एक ऐसा विस्तार है जिसमें जीवनानंद दास के मन के विभिन्न भाव पाठकों के समक्ष सदैव अपनी विडम्बनाएँ और अपनी निर्भिकता लिए सदैव प्रस्तुत रहेंगे.

कविता की मुक्ति ही इसी में है कि वह अपने लक्ष्य को भेदते हुए अपने नितान्त एकांत में भी पाठकों के मध्य रहते हुए उनके जीवन से घुसपैठ करे और पाठक दो घड़ी रूककर यह सोचने पर विवश हो जाए कि यह तो मैं भी कहीं दर्ज कर सकता था. यह कतई अलक्षित न रह जाए कि किस प्रकार से एक कवि अपने समस्त जीवन को अपनी हथेली पर रख कर अपनी लिखी हुई कविता के चरित्रों को समर्पित कर दे.

कविता में अनहोना जैसा कुछ नहीं. कविता की भाषा की शक्ति ही भाषा को बचाए रखने का कार्य करती है. जनवादिता से कविता का सरोकार है अथवा नहीं, यह एक लंबी बहस है परंतु अभिप्रायों और मानवीयता की धुरी पर घूमती हुई कविता कभी कभी हमसे ही युद्धघोष कर बैठती है, कभी मशाल दिखाती हुई कहती है बढ़ते चलो और कभी रूठती हुई कहती है मनाओ मुझे, इसी प्रकार बनलता सेन आम आदमी के दुःख, सुख साधते हुए और हमारे अंदर की क्रांति को हवा देती हुई कहती है कि विफलता तुम्हारी देह का उबटन है, इसके पीलेपन से स्वयं को स्वर्ण करते रहो.

जीवनानंद दास जब ट्राम से कटे थे, तब लोगों ने यह कहा था कि शायद वे किसी कविता के ध्यान में ही मग्न थे. कविता ही उन्हें मृत्युलोक से निकाल कर उनकी किसी अपनी जगह पर ले गयी. बाद में जब अस्पताल में उनकी मृत्यु हुई तब लोगों ने ट्राम को जला फूँका था.

अवश्य ही कवि ने जब यह जाना होगा उन्हें कष्ट हुआ होगा, पीछे से उनकी रचनाएँ उनका जयघोष करती हुई रह गयीं. यहाँ नेमिचन्द्र जैन जी की कुछ पँक्तियाँ स्मृति में उभर आती हैं, “मेरा मन एक तरह का ख़ालीपन चाहता है कविता लिखने के लिए या तो बिल्कुल अपरिचितों के बीच में कविता लिख सकता हूँ. अक्सर ये दोनों बहुत सुलभ नहीं होती. मैंने अपने उपन्यास के आलोचना में कविता की ही खोज करने की कोशिश की है. मुझे यह लगता है कि कविता केवल छन्दबद्ध अथवा लयबद्ध एक विशेष प्रकार की रचना मात्र ही नहीं है, वह जीवन और रचना को देखने की दृष्टि और पद्धति भी है बल्कि एक बुनियादी मूल्य है.”

मन में याचना, आँखों में प्रेम, जीवन में संघर्ष और हथेलियों पर स्याही की नक्काशियों को लिए जब जीवनानंद दास बनलता को रच रहे थे तब उन्हें भी इसका भान न होगा कि वर्षों तक बनलता हमारा मन बुनती रहेगी. बनलता दुःख से उभरकर संतोष की देवी का रूप लेती है और फिर अगले ही क्षण प्रेमिका, संगिनी, मित्र बनती है, तदोपरांत एक पुण्यकारक की तरह पाठकों के मन की आसक्ति बन जाती है.

बनलता स्वयं एक महाकाव्य की तरह विचर रही है.

क्रूर संसार से अनुराग व्यक्त करती बनलता एक सगुणता और प्रतीती की तरह पुनः पुनः इस बात का सत्यापन करती है कि संघर्ष भी एक प्रेमिल स्पर्श है, एक ललित कला है, इस स्पर्श को अपना स्पर्श देना और आकार देना अति आवश्यक है. एक तरह के पदार्थमयता से ऊपर उठते हुए दिव्यता की तरह इस चूक से बच जाना अत्यंत आवश्यक है कि अभाव एक पीड़ा है. यह पंक्तियाँ देखिए – “थम जाती सारी आवाज़ें; चमक जुगनुओं की रह जाती.”

फिर यह पंक्तियाँ पढ़िए –
“सब चिड़ियाँ-सब नदियाँ-अपने घर को जातीं
चुक जाता है जीवन का सब लेन-देन .
रह जाता केवल अन्धकार-सामने वही बनलता सेन !”

यह पंक्तियाँ सृजन करती हुई दिख रही हैं. यह कहती हुई कि जब समस्त ध्वनियाँ ख़त्म हो जायेंगी और सब चले जायेंगे तब बचेगा मौन और बच जायेगी रात और रात में उभरे समस्त भाव, जब कोई नहीं होता तब हमारा मन ही हमारे पास रह जाता है. अंत में जब हर कोई लौट जाता है अपने घर को, खाली हो जाता है आकाश, खाली हो जाती है पृथ्वी, खाली हो जाती हैं सब जगहें, तब अकेली बनलता सेन ही कवि के जीवन को सरल बना रही है और इस बात की अनिवार्यता से पाठकों को मिला रही है कि जीवन अवश्य ही सरल नहीं परंतु अधिक सरलता भी एक प्रकार का विष है.

एक बात यहाँ लिख देना चाहती हूँ कि एक बार प्रयाग शुक्ल जी से कविता पर बात हो रही थी. वे जीवनानंद दास के कविताओं के अनुवाद की बात बता रहे थे. उन्होंने ही बनलता को बंगाल से निकाल कर अन्य राज्यों तक पहुँचाया. कविता पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि, “कविता लिखने का अर्थ है कि हम जीवन के अभाव के दिनों के लिए कविता लिखकर अपने लिए अन्न, जल और सुख जोड़ते हैं.”

यह बात उनसे सुनकर मुझे लगा कि एक स्थायीभाव हम सब कवियों को एक साथ जोड़ता है. इस जोड़ने के संसार में अनचीन्हे की एक मौलिकता बची रहनी चाहिए तभी हम अपने आस पास की चीज़ों से चकित हो सकेंगे, जो कि हमारी लेखनी के लिए एक खाद्य का कार्य करेगा. इसी खाद्य से बनी है बनलता. जीवनानंद जी के एक एक रेशे से कटकर गिरी बनलता, जीवनानंद के दुःखों को काटने में कितना सार्थक रही, यह मैं नहीं जानती परंतु इतना तो अवश्य ही कह सकती हूँ कि बनलता एक परंपरा बन चुकी है अबतक और एक अटूट निरन्तरता बनकर अंत तक यहीं रहेगी.

उसकी अपनी एक स्पन्दित जगह है जो सभी के लिए जगह बना रही है, लिखवा रही है, थाम रही है, कवियों के अश्रुओं में झर रही है, पुनः सूखकर कवियों को बल और प्रसन्नता दे रही है. जब हम कविता में एक लोकवृत्त की बात करते हैं तब अनेक लक्ष्यों की भी बात करते हैं, जीवन की जूझ और पारस्परिक संबधों के ताने बानों से बना मनुष्य जब टूटता है तो वह प्रेम खोजता है और प्रेम न मिलने पर वह कल्पना में प्रेम पाने का प्रयास करता है, इसी कल्पना में वह अपना संसार पाता है.

लक्ष्य की बात करें तो हम अनेक बार विफल हो जाते हैं, गिरते हैं, थमते हैं, रूकते हैं, हताश होते हैं और अंततः हमारा भाषाबोध ही हमें बचा ले जाता है जिस प्रकार जीवनानंद दास मृत्यु के बाद भी स्वयं को बचा ले गये, पीछे से बनलता सेन उनका अंतिम संस्कार करने से बचती रही.

जीवनानंद दास ने बनलता को एक उत्सव की तरह हमें सौंपा, मैं बनलता को एक स्वप्नशीलता की तरह देख रही हूँ. बचपन में जब हमारे परिवार में रबींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, माणिक बंद्योपाध्याय, नारायण गंगोपाध्याय, कमल कुमार मजूमदार, जगदीश गुप्ता, ताराशंकर बंदोपाध्याय, विभूति भूषण बंदोपाध्याय, राजशेखर, सुबोध घोष, नरेंद्रनाथ मित्रा आदि की किताबें पढ़ी और सुनाई जाती थीं तब जीवनानंद दास की बनलता सेन ने ही मुझे आकर्षित किया.

मैं बनलता सेन बन जाना चाहती थी और यह शुभकर हुआ कि शंपा शाह जी ने एक कवि से गद्य लिखवाने का साहस किया. अनेक बार अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ते हुए मुझे लगा कि जैसे बनलता का पुनराविष्कार करने का प्रयास किया जा रहा है परंतु बनलता पूर्ण रूप से जीवनानंद की सधवा ही बनी रहेगी, कहीं और दिखेगी तो अपूर्ण ही दिखेगी. एक पूर्ण बनलता जीवनानंद दास के साथ ही खड़ी मिलेगी.

बनलता ने अपना साम्राज्य बढ़ाया, बनलता ने और बनलताएँ बनाईं. हमारे खुरदुरेपन पर शीतल, कोमल स्पर्श करती बनलता सेन जैसे औषधिकरण की एक मुहिम चलाकर दुःख की महामारी के मध्य सबका उपचार कर रही है. हमारे बाद भी बनलता हाथ में जीवनानंद थामे अंत तक रह जायेगी. हम पुनः पुनः बनलता तक लौट कर आते रहेंगे.

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