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जनादेश को पढ़ने के लिये…

बादल सरोज
जनादेशों के पाठ करने में उन्माद और अतिरेक हो तो आ चुके नतीजों के बारे में किसी नतीजे पर पहुंचना तो दूर रहा उन्हें समझा भी नहीं जा सकता. हाल के चुनाव परिणामों के बाद आयी प्रतिक्रियायें कुछ ऐसा ही आभास देती हैं. ईवीएम – मुमकिन भी है, कयास भी है. जब तक ये अंदाज या आशंका भर है तब तक उन्हें आधार मानकर चलना जल्दबाजी होगी. इसी तरह इस जनादेश को ईरोम शर्मिला चानू को मिले 90 वोट के बाद लिखा गया लोकतंत्र का शोकगान मानना भी अतिरंजना है, भारतीय लोकतंत्र और मतदाताओं को न समझना है. अपनी सारी अन्तर्निहित खूबियों, कमियों, सीमाओं और औचक फैसलों के बावजूद भारतीय लोकतंत्र ने, अबतक, एक ऐतिहासिक भूमिका भी निबाही है. इसका शोकप्रस्ताव लिखने की इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं.

इन परिणामों, खासकर उत्तरप्रदेश के नतीजों ने भलेमानुस लोगों को चौंका भले दिया हो. चुनाव परिणामों का कॉमन सेन्स से कोई ज्यादा रिश्ता नहीं होता. ट्रम्प की जीत के बाद तो इसे दुनिया ने मान लिया है. यूपी भी आश्चर्यजनक या अप्रत्याशित कतई नहीं है. लगता है गिनती करते में लोग सिर्फ दिखती इबारत का जोड़ घटाव कर रहे हैं. वे भूल रहे हैं कि जोड़ घटाव में एक और संख्या होती है, जिसे हासिल (मराठी में हात चे, अंग्रेजी में इन हैण्ड) कहते हैं. यह लिखे अंकों में नहीं दिखती. अदृश्य होकर भी उपस्थित होती है. मगर कुल मीज़ान को यही तय करती है. चुनाव नतीजे समझने हैं तो कम से कम साढ़े तीन बड़े हासिल शुमार में लेने होंगे.

पिछली चौथाई सदी में जिन नीतियों को, सत्ता पार्टियों ने आम सहमति- कॉन्सेंसस- बनाकर लागू किया, सारे तटबंध तोड़कर खेती, रोजगार, स्वास्थय, शिक्षा, रसोई तक बाढ़ की तरह बिछा दिया. लोगों की ज़िंदगी में बड़े बदलाव करके अहम सवाल खड़े कर दिये. पूरे चुनाव अभियान में उनकी अनदेखी करेंगे, कोई विकल्प या समाधान नहीं देंगे, जुमलों के मुकाबले डायलॉग भर देंगे, तो किस आधार पर भिन्नता सामने आएगी? लोग इतने भोले नहीं है कि वे मानलें कि नीतियां तो वही की वही, मगर जेटली गलत और चिदंबरम सही !! ऐसे में जो पहले से बढ़त में हैं उसी की बढ़त लॉजिकल बात है. देश-जनता के आर्थिक सवालों से मुंह चुराना नामाकूल हरकत होती है. यह पहला हासिल है.

दूसरा हासिल है, धर्म- धर्मान्धता और राजनीति के अप्राकृतिक सम्बन्ध !! इसमें दूध का धुला कौन है ? बाकी सत्तापार्टियों ने इसे दबे छुपे किया. भाजपा खुले खजाने कर रही है. आप अगर 42 साल पुराने ताले खुलवायेंगे, तो जिन्हें सिर्फ शंख भर फूंकना आता है वे गर्भगृह में घंटा बजाने पहुंचेंगे ही. आप अगर शाहबानो के गुजारे भत्ते पर आँख लगा कर कठमुल्लों के साफे चमकायेंगे तो ओवैसी इतने नासमझ नहीं कि उनमे कलफ़ लगाने न पहुँचें.

धर्मनिरपेक्षता कोई शाश्वत मूल्य नहीं है- यह सभ्य समाज की सायास विकसित की जाने वाली चेतना है. भारत के लिए धर्मनिरपेक्षता स्वतन्त्रता संग्राम की कमाई है. आज़ादी की लड़ाई से ही उसका वैर था सो धर्मनिरपेक्षता से भाजपा का बिदकना स्वाभाविक है. इस मामले में भी उनकी एक संकुचित परिकल्पना है, जो उसके शीर्षस्थ नेता के चारेक दिन तक बनारस के हर मंदिर में जाने मगर 5 किलोमीटर दूर बुध्द के सारनाथ को भूल जाने में देखी जा सकती है. उन्हें छोड़िये बाकी सत्ता पार्टियों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्य विकसित करने के लिये क्या किया ? ये कैसी धर्मनिरपेक्ष परवरिश है जो बहुगुणा बंधु-भगिनित्व गुणधर्म बनकर साम्प्रदायिक पार्टी के सांसदों विधायकों का बहुमत बनी बैठी है.

धर्मनिरपेक्षता के संस्कार का परिष्कार रोजा इफ़्तार में टोपियां पहनकर, माता के जागरण में त्रिपुण्ड पोत साफा डाल के, अकालतख्त को सरोपा देकर या क्रिसमस की छुट्टी घोषित करके नहीं हो सकता. धर्मनिरपेक्ष होने के लिए नास्तिक होना बिलकुल जरूरी नहीं. हर नास्तिक धर्मनिरपक्ष हो यह भी कतई आवश्यक नहीं है. इसके ठोस उदाहरण कहीं बाहर गाँव की बजाय खुद हमारे देश में हैं. वीडी सावरकर खुद को हिन्दू नास्तिक कहते थे और ज़िन्ना कितने इस्लामिक मुसलमान थे यह दुनिया जानती है.

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है सरकारों का किसी भी धर्म विशेष से नाता न रखना, धर्म का राजनीतिक धंधे के लिए इस्तेमाल प्रतिबंधित करना, नागरिकों के उनकी निजी आस्थाओं के मानने न मानने का अधिकार सुनिश्चित करना. सत्तापार्टियों ने ठीक इसके उलट किया. गुपचुप सुरंग बनायेंगे तो उनमें से विषधरों की आवाजाही क्या ख़ाक रोक पाएंगे.

यूपी चुनाव नतीजे जाति की राजनीति की हार नहीं है, जाति की अब तक लड़ी गयी सबसे योजनाबध्द लड़ाई से सिद्ध चमत्कार है. जातिवादी शोषण से लड़ने के नाम पर अब तक दलितों और पिछड़ों के स्वयंभू अलम्बरदार हिस्सेदारी की तराजू बाँट लेकर बैठते रहे हैं. डॉ. अम्बेडकर और जोतिबा फुले की तख्ती टांग कर ठीक उनका उलटा करते रहे हैं. डॉ आंबेडकर ने पौने तीन, सवा पांच या साढ़े आठ प्रतिशत के हिस्साबाँट की गिनती नहीं की. जातिवाद के ध्वंस की, जातियों के विनाश की बात की थी. उनके तथाकथित अनुयायी जातियों की संरचना के कांक्रीट के खम्भों की तराई करने के ही काम में प्रसन्न होते रहे हैं.

कथित दलित अस्मिता के इन अपने मुंह मियां मिट्ठू सौदागरों ने सामाजिक चेतना को कितना आगे बढ़ाया है इसका नमूना पश्चिमी उत्तरप्रदेश की एक सीट पर एक अति दलित उम्मीदवार के जुगुप्सा जगाने वाले प्रचार ने दे दिया. ये जनाब, जिनके पिता भी सांसद रह चुके थे, इस चुनाव प्रचार में अपनी जेब में अपना ग्लास लेकर चलते थे. जमीन पर बैठकर, यह कह कर कि हम तो यही ठीक है, चाय पानी उसी में पीते थे. वे चुनाव जीत गए हैं या कहें कि अस्पृश्यता को दंडनीय बताने वाला संविधान चुनाव हार गया है.

इन्होंने अपनी जमातों को भी यही परसेंट-परसेंट खेलना सिखाया. हिस्सेदारी भी ऐसी कि ज़िंदा गाय तुम्हारी, मरी हमारी, दूध तुम्हारा, गोबर हमारा, पंगत तुम्हारी, झूठी पत्तल हमारी. अब ऐसे में कोई ज्यादा चतुर व्यवसायी, जिसके खून में ही व्यापार हो, कुबेर मय थैलियों के उसके साथ हो, आधुनिक डिजिटल तराजू और अच्छा बारदाना लेकर आ जायेगा तो बोरियां उसी के गोदाम में ज्यादा जमा होंगी. यह तीसरा हासिल है, जिसे मीज़ान के वक़्त शामिल करना होगा.

बहादुर ईरोम किस बात पर दुःखी हैं ? भगत सिंह के तीनों जीवित बचे साथी शिव वर्मा, पंडित किशोरी लाल और बटुकेश्वर दत्त इस तरह के तजुर्बों से ईरोम चानू के पैदा होने से पहले गुजर चुके हैं. इन दिनों वास्तविक समाजसेवी और ईमानदार जनसेवी चुनाव लड़ने को बेवकूफी मानने लगे हैं. चुनावों में पैसे, जो हमेशा कालाधन ही होता है, का वर्चस्व अब सम्पूर्ण हो चुका है. हद तो यह है कि मतदाता भी अब इसे चुनाव का स्वीकार्य तरीका मान बैठे हैं. चोम्स्की से उधार लें तो- लोग नहीं जानते कि कि वे नहीं जानते. पूंजी का ढेर पाप धोने के मामले में गंगा से ज्यादा बेहतर पुन्यस्थान स्थापित हो चला है.

लोकतंत्र की खैर चाहिए तो इन प्रस्थापनाओं पर प्रहार करने होंगे. चुनाव प्रणाली में आमूलचूल सुधार करने होंगे. लोकतन्त्र जाग्रत और परिपक्व समाज का आभूषण है. यह वोटिंग मशीन पर अंगुली दबाना भर नहीं है, बाकी के 4 साल 364 दिन की दिनचर्या है. परिवार और समाज के जीवन में अगर लोकतांत्रिकता के अवशेष तक नहीं होंगे तो देरसबेर लोकतंत्र भी शेष नहीं रहेगा.

लोकतंत्र के लिए यह मुश्किल समय है. तिकड़मों और जुमलों की घनगरज से एकाध बैटल जीती जा सकती है- युध्द का हारा जाना तय है.

बात तने और जड़ की है. पत्तियों को गिनने से कुछ नहीं होने का.

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