अर्नब गोस्वामी को जमानत और नागरिक की स्वतंत्रता के चेहरे
त्रिभुवन | फेसबुक
अगर अर्नब गोस्वामी ने रायगढ़ या देश के किसी हिस्से का कोई साधारण वकील किया होता तो वे अब तक जमानत पा चुके होते! वे आठ दिन के बजाय अधिक से अधिक तीन दिन ही जेल में रहते. लेकिन वे जिस तरह बाहर आए, उससे ये उजागर होता है कि यह उनकी या उनके वकील हरीश साल्वे की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था.
लेकिन आप अगर किसी अदालत में जाते या अर्नब के प्रति सहानुभूति रखने वाले वकीलों से भी मिलते तो आपको वे इस बात से क्षुब्ध और स्तब्ध नज़र आते कि उनके विश्व यशस्वी वकील हरीश साल्वे ने कानून की सामान्य समझ से काम क्यों नहीं लिया? और अर्नब को इतने दिन जेल में क्यों रख दिया?
कुछ कानून दाँ मित्र कह रहे थे कि हरीश साल्वे जैसे प्रसिद्ध वकील ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका क्यों लगाई? यह बंदी प्रत्यक्षीकरण का तो प्रकरण ही नहीं है.
मैं कानून का जानकार तो नहीं, लेकिन विधिवेत्ताओं की दृष्टि में हेबियस कॉर्पस (habeas corpus) तो अर्नब के मामले में बिलकुल ही सही नहीं प्रतीत हो रही थी. वकील मित्रों का भी कहना था कि हेबियस कॉर्पस तो इलीगल डिटेंशन में लागू होती है. और यह इलीगल डिटेंशन कैसे है? ऐसा लगता है कि इससे तो उनकी रिहाई में ही मुश्किलें होंगी; जो कि हो ही रही थीं.
लेकिन एक पुराने अनुभवी अधिवक्ता और संघनिष्ठ मित्र ने बहुत सही कहा, साल्वे ने बहुत सोच-समझकर ये रास्ता अपनाया होगा. वे अर्नब गोस्वामी को पुख़्ता राह दिला सकते हैं; लेकिन हाईकोर्ट में नहीं, सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट से. और वही हुआ.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा : अगर राज्य सरकारें किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाती हैं तो उन्हें ध्यान रहे कि यहाँ सुप्रीम कोर्ट भी है. और इतना ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट को लेकर तो यहाँ तक कहा: उच्च न्यायालय ने अंतरिम बेल खारिज़ करने के मामले में चूक की. एक नागरिक की स्वतंत्रता का संरक्षण करने में विफल रहा. एक जगह ये भी कहा कि हम विध्वंस की राह पर चल पड़े हैं. कुछ लोग तो सिर्फ़ ट्वीट करने भर के कारण जेलों में हैं. यह मामला शायद पश्चिम बंगाल सरकार को लेकर था. मुझे लगा कि उत्तरप्रदेश सरकार के मामलों पर भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह का कुछ कहा होगा; लेकिन इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है.
लेकिन नागरिक स्वतंत्रता का यह चेहरा कितना अलग है. आपके साथ 75 लाख (या जो भी है) की पर हियरिंग वाला वकील नहीं है तो आपकी आवाज़ अनसुनी है. हम ज़मीन पर जिसे अन्याय समझते हैं, वह कई बार आसमान में न्याय की उच्च कोटि भी हो सकती है.
मुझे मालूम है, आकाश फिर से धूसर और मटमैला ही रहेगा और वह कभी अपना नैसर्गिक नीलापन प्राप्त नहीं कर पाएगा. ज़हरीला धुआँ ऐसे ही उड़ता रहेगा. लेकिन न्याय की बात न्याय की तरह कहनी चाहिए. चाहे सामने मित्र हो कि शत्रु.
सुप्रीम कोर्ट की आज की टिप्पणियां शायद हमारे इर्दगिर्द के उन पत्रकारों को भी राहत देंगी, जिनके पास न इतना पैसा है और न इतनी कूवत कि कोई हरीश साल्वे या प्रशांत भूषण उनके साथ खड़े हों. लेकिन मेरे लिए ये हैरान होने का समय है कि आख़िर चौरीचौरा से राजघाट तक एक शांति यात्रा करने वाली नवोदित पत्रकार क्यों इतने दिन जेल में रख ली जाती है और उसे ऐसा न्याय क्यों नहीं मिल पाता? या जब देश के मुस्लिम बहुल आंदोलनकारी दिल्ली में सड़क के किनारे आंदोलन करते हैं तो वह पुलिस, राजनीतिक लोगों और अदालतों के वंदनीय न्यायाधीशों को क्यों आपत्तिजनक लगता है; लेकिन जब एक जाति विशेष के लोग या किसान ट्रेन की पटरियों पर बैठ जाते हैं तो उस पर वैसी नाराज़गी और प्रतिक्रियाएं क्यों नहीं आतीं?
बहरहाल; अर्नब गोस्वामी सीधे सुप्रीम कोर्ट गए. वे वहाँ नहीं गए, जहाँ उन्हें जाना चाहिए था. सुप्रीम कोर्ट से उनकी जमानत होने से पहले मैं सोच रहा था, यह छोटे और सामान्य के प्रति उनके घमंड की झाग है. वे छोटे को गर्हित और घृणित दृष्टि से देखने के आदी हैं. वे छोटे और सत्ता से अपदस्थ कर दिए गए लोगों को घुड़काते हैं और गरियाते हैं, लेकिन सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों से वे कभी प्रश्न नहीं करते. इसलिए उनके दर्प की ठंडी झाग बैठ जाएगी और उनके धनबल का धूआँ एक यशस्वी वकील पूँछ उठाकर उड़ा देगा. लेकिन मेरा सोचना एक तरल कल्पना मात्र थी. पूरी तरह एक सय्याल तसव्वुर!
लेकिन मैं तो मैं हूँ. कोई वकील नहीं. लेकिन हाईकोर्ट और सेशन कोर्टों के उन वकीलों के बारे में क्या कहूँ, जो इस प्रकरण पर हँस रहै थे.
सच तो ये है कि जैसे ही सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ स्वयं मैंने सुनीं, देखीं और समझीं तो मेरे भीतर के भी धूमिल और फणीश्वरनाथ रेणु एकदम निर्मल वर्मा हो गए!
मुझे रघुवीर सहाय के कविता संग्रह का नाम याद आने लगा : “हँसो हँसो जल्दी हँसो!” रघुवीर सहाय के इस संग्रह की इसी शीर्षक वाली कविता की बड़ी सुंदर पंक्तियाँ हैं :
“हँसो हँसो जल्दी हँसो
इसके पहले कि वह चले जाएँ
उनसे हाथ मिलाते हुए
नज़रें नीची किए
उसको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी हँसे थे !”
मुझे भारतीय लोकतंत्र बहुत अच्छा लगता है. वह जैसा भी है. कम डिग्री का. इस देश के आम नागरिक के फटे और मैले वस्त्रों जैसा. मैं इस लोक के निर्णय का सम्मान करता हूँ. मोदी जी का भी, भाजपा का भी, काँग्रेस का भी, कम्युनिस्टों का भी; लेकिन नरेंद्र मोदी के शासन ने नंगे सिर निर्वस्त्र टहलते इतने प्रेत देश में छोड़ दिये हैं कि यह लोकतंत्र कई बार किसी प्राचीन भवन का भुतहा खंडहर नज़र आने लगता है. यह मेरा पूर्वग्रह भी हो सकता है.
और ऐसे निर्वसन प्रेतों में एक प्रेत बायस्ड मीडिया चैनलों का भी है. अर्नब आज वंदे मातरम वादियों के नायक हैं तो क्या यह तथ्य झूठा हो जाएगा कि वे हमारे इन बायस्ड चैनलों के अग्रदूत हैं. लेकिन वे बायस्ड क्यों नहीं हो सकते अगर और बहुत सारे चैनल बायस्ड हो सकते हैं?
मैं सोच रहा था, …और साफ़ है कि वे अदालतों के मामले भी वही सोच रखते हैं. इसलिए छोटी अदालत, छोटे वकील, छोटी चीज़ें और कमज़ोर माने जाने वाले लोग उनके लिए तौहीन हैं. और इसीलिए अर्नब और उनके विश्व प्रसिद्ध वकील के लिए एक सेशन कोर्ट के प्रति कोई सम्मान नहीं है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट से आए ऑर्डर और उसकी टिप्पणियों के बाद मेरी कॉमनसेंस औंधे मुँह गिरी!
फ़ैज़ का एक शेर ज़ेहन में गूंज उठा तो मुझे मेरे भीतर की मुस्कुराहट से कुछ संबल मिला:
सियाह ज़ुल्फ़ों में वारफ़्त नकहतों का हुजूम,
तवील रातों की ख़्वाबीदः राहतों का हुजूम.
दरअसल अनुभव बताता है कि हाई और सुप्रीम शब्दों का भी कुछ ख़ास अर्थ है. विधायिका हो, कार्यपालिका हो, न्यायपालिका हो या हम मीडिया वाले; जो जितना हाई और जो जितना सुप्रीम है, उसके नैतिक लोक का दायर उतना ही और उसी डिग्री के हिसाब से व्यापक है.
न्याय और नैतिकता की सब बस्तियाँ गर्दोगुबार में डूबी हैं और सब सड़कें बेहयाई की बर्फ के नीचे टाइटन की तरह टूटी पड़ी हैं!
हम आए दिन देखते हैं कि छोटी अदालत को, छोटे अफसर को, छोटे नेता और छोटे पत्रकार को बहुत बड़े अन्याय के समर्थन में खड़े होने में डर लगता है और उसे उसकी आत्मा की धिक्कार को सहन करने की क्षमता नहीं होती! लेकिन बड़ा नेता, बड़ा अफसर, बड़ा पत्रकार और बड़ा न्यायाधीश बड़े अन्याय को बहुत शालीन, सुघड़, सुचिंतित और संवैधानिक तरीके से प्रस्तुत कर अन्याय को भी न्याय दिखा ही सकता है.
जैसे यह हमारी बौद्धिक संकीर्णता ही है कि हम महानतम और युगांतरकारी पत्रकारिता को भी शिटस्टोर्म समझने लगते हैं! इसकी अपनी अन्तरकथाएँ (जी हाँ, अंतर्कथाएँ नहीं) हैं.
हमें कानून के कॉलेज में संविधान के मेधावी शिक्षक बलदेवसिंह निर्वाण ने पढ़ाया था कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट को संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार उच्चतम न्यायालय की घोषित विधि भारत राज्य क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर अनिवार्य तौर पर लागू होगी. और अनुच्छेद 142 कहता है कि किसी लंबित विषय में उच्चत्तम न्यायालय अगर पूर्ण न्याय करने के लिए उचित समझे तो अपनी अधिकारिता के प्रयोग में डिक्रियां या आदेश पारित करेगा. लेकिन अगर कोई वैकल्पिक उपचार उपलब्ध है (जैसा कि अर्नब गोस्वामी को शुरू से ही प्राप्त रहा है), तो अनुच्छेद 142 के सहजाधिकार की शक्ति का प्रयोग नहीं किया जा सकता! लेकिन हो गया तो हो गया.
हो तो वही सब रहा है, जो काँग्रेस के शासन काल में होता ही रहा है. लेकिन भाजपा शासित संस्कृति में सब कुछ फूहड़ तरीके से होता है, इसलिए उसके प्रेत निर्वस्त्र और डरावने लगने लगते हैं; और कॉंग्रेस काल के प्रेत कई बार प्रेम करने लायक और पुरस्करणीय प्रतीत होते हैं. इस बारे में मुझे प्रसिद्ध लेखिका अरुंधती रॉय की समझ बहुत सही और सच के करीब जान पड़ती है.
समालोचक मित्र पंकज चतुर्वेदी ने अपनी आलोचना पुस्तक ”निराशा में भी सामर्थ्य” में एक जगह लिखा है, जीवन में आभिजात्यता तो आ जाती है, लेकिन गरिमा बड़ी मुश्किल से आ पाती है.” आज बहुत से लोगों का मानना है कि अर्नब गोस्वामी ने एक बड़े सत्ता प्रतिष्ठान के एचएमवी की भूमिका में आकर और छोटे प्रतिष्ठान पर प्रश्नों की बौछार के बावजूद न केवल गरिमा को खो दिया है, उन्होंने अपनी पिछली प्रतिष्ठा की पूंजी को भी छिछलेपन की उफनती धारा में बहा दिया है.
और देखिए, (यह भी एक लोकमान्यता है) किस तरह एक सत्ता प्रतिष्ठान के पक्ष में कुलवधू सा आचरण दिखाने वाले चैनल में होने के बावजूद एक सामान्य से और एक समय सिर्फ़ चिट्ठियाँ छाँटने वाले की भूमिका निभाते हुए यहाँ तक पहुँचा एक पत्रकार एक हृदयहीन सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति प्रश्नाकुल होकर किस तरह प्रतिष्ठा और गरिमा अर्जित करता है और उस चैनल की खोखली रीढ़ को भी अपनी मुट्ठी से मज़बूत बनाए रखने में सफल रहता है.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट से जिस तरह अर्नब गोस्वामी को जमानत मिली है, क्या उससे पैदा होने वाले अभिमान को वे गरिमा में बदलने की शालीन कोशिश करेंगे, जिसकी अपेक्षा है?
पत्रकारिता के प्राचीन खंडहर भुतहा भवन के अवशेषों में पक्षधरता का निर्वस्त्र टहलता प्रेत अब निर्दोष हृदयों में भय फैलाने का काम नहीं करेगा, यह मान लेना ठीक नहीं होगा. उम्मीद करनी चाहिए कि वे भयावह नग्नता से बचेंगे.
यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि इस तरह के लोग किसी और की नहीं सुनते. वे अपने आपको असीम बलशाली स्वाभिमानी ही मानते हैं. और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद तो यह ख़तरा और भी बढ़ गया है.
दरअसल, यह वह समय है, जब पत्रकारिता की पापमोचनी, न्यायपालिका की नंदिनी, कार्यपालिका की मंदाकिनी और विधायिका की शैलसुता का नीला तुषारनद आभाहीन और मैला हो गया है.
लोकतंत्र के शिशिर की हताश लहरें निराशा का रेगिस्तान पैदा कर रही हैं. और सपनों के कमल झुलस रहे हैं. तरह-तरह के जाल और नाना प्रकार के उबाल हैं.
मुझे लगता है, अर्नब को भी, मुझे भी, आपको भी; शत्रु से प्रेम करना सीखना चाहिए. शत्रु के सौंदर्य को भी सराहना चाहिए. भय, ईर्ष्या, घृणा, शत्रुता और अविश्वास ध्वंस का सबब बन जाते हैं. हमें दूसरों ही नहीं, अपने पापों की विवेचना भी करते रहना चाहिए!
और छोटी अदालतों को बड़ी अदालतों जैसा, छोटे वकीलों को बड़े वकीलों जैसा आदर देते रहना चाहिए; भले आप मुझ जैसे छोटे पत्रकारों को अर्नब गोस्वामी या रवीशकुमार जैसा आदर नहीं ही दें!!!
परम सम्मानीय सुप्रीम कोर्ट भी बिना किसी हरीश साल्वे या बिना किसी प्रशांत भूषण के भी उन इलीगल डिटेंशन्स में भी राहत दे, जो अपनी आवाज़ इस तरह नहीं पहुँचा पाते हैं!
और अंत में
उदयप्रकाश की एक ख़ूबसूरत कविता है, ”दुआ”, जिसमें बहुत पैना व्यंग्य है. इसमें मानो वे अर्नब और बाकी हम सब मीडिया वालों और समस्त चार स्तम्भों से कह रहे हैं :
जहाँ चुप रहना था,
मैं बोला.
जहाँ ज़रूरी था बोलना,
मैं चुप रहा आया.
जब जलते हुए पेड़ से
उड़ रहे थे सारे परिन्दे
मैं उसी डाल पर बैठा रहा.
जब सब जा रहे थे बाज़ार
खोल रहे थे अपनी अपनी दूकानें
मैं अपने चूल्हे में
उसी पुरानी कड़ाही में
पका रहा था कुम्हड़ा.
जब सब चले गए थे
अपने अपने प्यार के मुकर्रर वक़्त और
तय जगहों की ओर
मैं अपनी दीवार पर पीठ टिकाए
पूरी दोपहर से शाम
कर रहा था ऐय्याशी.
रात जब सब थक कर सो चुके थे
देख रहे थे अलग अलग सपने.
लगातार जागा हुआ था मैं.
मेरे ख्वाज़ा
मुझे दे नीन्द ऐसी
जो कभी टूटे ना
किसी शोर से.
जहाँ मैं लोरियाँ सुनता रहूँ
अपने इस जीवन भर.