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‘दलित’ राजनीति में ‘वर्गीय विभाजन’

अर्चना प्रसाद
प्रतिनिधित्व की राजनीति और वर्गीय गठन के बीच का संबंध, एक ऐसा विषय है जिस पर दलित अध्ययनों में भी और मार्क्सवादी विश्लेषण में भी, कम ही ध्यान दिया गया है. इस पर ध्यान न दिए जाने की एक वजह यह लगती है कि दलित राजनीतिक पहचान और मजदूर वर्ग के गठन के ऐसे साथ-साथ चल रहे विकास होने को नहीं प्राय: नहीं पहचाना गया है, जिसने हमारे देश में हर प्रकार के दलित तथा मजदूर वर्गीय प्रतिरोध को गढ़ा है. स्वातंत्र्योत्तर भारत के संदर्भ में यह परिघटना विशेष रूप से सच है, जहां दलितों के पक्ष में सकारात्मक प्रावधानों ने एक ओर अगर एक मजबूत दलित नेतृत्व पैदा किया है, तो दूसरी ओर यह भी सच है कि सार्वजनिक क्षेत्र दलितों का यह प्रतिनिधित्व, विभिन्न सामाजिक तबकों के बीच की बढ़ती असमानताओं की समस्या को हल नहीं कर पाया है.

यहां पेश किए जा रहे विश्लेषण में हमने कुछ ऐसे चुनिंदा राज्यों में वर्ग के निर्माण के प्रश्नों को लिया है, जो ऐतिहासिक रूप से दलित राजनीति और वामपंथी राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण रहे हैं. इस विश्लेषण में हमने एक ओर तो आंबेडकरी राजनीति के पहलू से महत्वपूर्ण रहे महाराष्ट्र व उत्तर प्रदेश तथा मूलगामी दलित राजनीतिक आंदोलनों के पुरोधा रहे तमिलनाडु को लिया और दूसरी ओर, देश में वामपंथी आंदोलन के महत्वपूर्ण केंद्र रहे पश्चिम बंगाल तथा केरल को. इस तरह के विश्लेषण के माध्यम से हम अखिल भारतीय संदर्भ में, दलितों के बीच असमानता की समस्या को, दलित तथा वामपंथी राजनीतिक आंदोलनों के प्रभाव के साथ जोडऩे की कोशिश करेंगे.

अनुसूचित जातियां और भूमि तक पहुंच

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण-2013 के हाल ही आए आंकड़ों के अनुसार, भारत में दूसरे किसी भी सामाजिक समुदाय के मुकाबले में, दलितों के बीच सबसे ज्यादा असमानताएं हैं. 2013 के सर्वेक्षण से निकले आंकड़े दिखाते हैं कि अनुसूचित जाति के 54.9 लोगों के पास, सिर्फ वह जमीन है जिस पर उनका घर बना हुआ है और 4.4 फीसद के पास, घर की जमीन भी नहीं है. अनुसूचित जाति के लोगों में करीब 81.1 फीसद के पास, घर की जमीन के अलावा 0.2 हैक्टेयर जमीन भी नहीं है. इनमें से 21.2 फीसद को, अपनी झोंपड़ी की जमीन के सिवा और जरा सी भी जमीन तक पहुंच हासिल नहीं है. शेष हिस्सा भी लगभग या व्यावहारिक मानों में भूमिहीन है क्योंकि वह अपनी आजीविका के लिए मुख्यत: दूसरों के लिए मजदूरी करने पर ही निर्भर है. इस तरह, दलितों के बीच सबसे पहले तो भूमि के पहलू से ही असमानता है. एक ओर वह तबका है जिसके पास घर/ झोंपड़ी की जमीन के अलावा भी जमीन है. एक हैक्टेयर से ज्यादा जमीन रखने वाले, करीब 7.2 फीसद दलितों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है. दूसरी ओर, भूमिहीन या लगभग भूमिहीन हैं.

यही पैटर्न राज्यों के स्तर पर भी प्रतिबिंबित होता है, जहां दलितों के बीच बढ़ती भूमिहीनता के साथ, भूमिहीन व भूमि गंवानेवाले दलितों और खेती की जमीन रखने वाले दलितों के बीच स्तर विभाजन बढ़ रहा है. तालिका-1 में 1999 से 2011 के बीच, एक दशक के दौरान खेती की जमीन के स्वामित्व में हुए बदलाव को प्रदर्शित किया गया है.

यह तालिका दिखाती है कि जहां बढ़ती भूमिहीनता देश के अधिकांश राज्यों में दलितों के सामने उपस्थित मुख्य समस्याओं में से एक है. यह एक गौरतलब तथ्य है कि अखिल भारतीय स्तर पर दलितों के बीच भूमिहीनता बढ़ रही है और घर की जमीन को छोडक़र, भूमि तक पहुंच की दूसरी सभी श्रेणियों के मामले में गिरावट ही नजर आती है. लेकिन, यह दिलचस्प है कि प्रमुख राज्यों के बीच गुजरात में भूमिहीनता के फीसद में बढ़ोतरी तो सब से कम हुई है, फिर भी इस राज्य में दलितों की मंझली तथा बड़ी जोतों के हिस्से में बढ़ोतरी, इस राज्य में दलितों के बीच भूमि-स्वामित्व के सुदृढ़ होने को दिखाती है. दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र जैसे राज्यों में, जहां अंबेडकरी राजनीति की काफी ताकत है, खेती की जोतों के स्वामित्व के लिहाज से भूमिहीनता बढ़ती रही है और इन दो राज्यों में 80 फीसद से ज्यादा दलित भूमिहीन हैं. इसके विपरीत, केरल तथा पश्चिम बंगाल जैसे वामपंथी राजनीति के प्रभाववाले राज्यों में, भूमि मिल्कियत के पहलू से भूमिहीनता तो बढ़ी है, किंतु इन राज्यों में दलितों के बीच भूमि-असमानता सबसे कम है. उधर, मूलगामी दलित राजनीति के अगुआ माने जाने वाले तमिलनाडु में, 91.1 फीसद दलित भूमिहीन हैं. भूमिहीन दलितों का यह हिस्सा, पश्चिम बंगाल तथा केरल जैसे वामपंथी राजनीति से प्रभावित राज्यों के मुकाबले काफी ज्यादा है.

कृषि-आधारित रोजगार की स्थिरता/ अस्थिरता

बहरहाल, भूमि की मिल्कियत की असमानताएं, भूमि पर आधारित असमानता की पूरी कहानी नहीं कहती हैं. भूमिहीन दलितों का एक ऐसा भी हिस्सा है जो बंटाईदारी आदि के जरिए, दूसरों की मिल्कियत वाली जमीनों पर खेती करने पर निर्भर है. लेकिन, भूमि सुधार वाले राज्यों में बेदखलियों में बढ़ोतरियां दर्ज न होने का अर्थ यह है कि इन राज्यों में सुरक्षित कृषि रोजगार पैदा किया जा सका है. दूसरी ओर, अन्य राज्यों में दलितों की जोतों तथा भूमिहीनता में मौसूमी उतार-चढ़ाव, कृषि रोजगार की असुरक्षा तथा इससे जुड़ी अशक्तता को दिखाता है.

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (2013) के आंकड़े दिखाते हैं कि महाराष्ट्र तथा उत्तर प्रदेश जैसे अंबेडकरी राजनीति की मजबूत परंपरावाले राज्यों में, जहां भूमि सुधार नहीं हुए हैं, बंटाईदारी की खेती में, दो फसलों के बीच अंतर देखने को मिलता है. मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में बंटाई की जमीन की खेती का औसत आकार एक फसल में 0.277 हैक्टेयर और दूसरी में 0.321 हैक्टेयर बैठता है और भूमिहीनता में फसली बदलाव यानी दोनों में से एक ही फसल में खेती की भूमि तक कोई पहुंच हासिल न कर पाने वाले दलितों के हिस्से में 4 फीसद तक बदलाव होता है. दूसरी ओर महाराष्ट्र में बंटाई की जमीन का औसत आकार दो फसलों के बीच क्रमश: 0.13 हैक्टेयर और 0.5 हैक्टेयर रहता है और दो फसलों के बीच भूमिहीनता में बदलाव 3 फीसद तक रहता है.

उधर तमिलनाडु में, जो मूलगामी दलित राजनीति का अगुआ रहा है, बंटाईदारी की खेतियों का आकार तो अपेक्षाकृत छोटा ही रहा है, फिर भी भूमिहीनता में 6 फीसद तक फसली बदलाव देखने को मिलता है. दूसरी ओर, वामपंथी राजनीति से प्रभावित पश्चिम बंगाल तथा केरल में दलितों की बंटाई की जोतों का आकार स्थिर रहा है और यही बात भूमि तक पहुंच की अवधि पर भी लागू होती है, जिसका पता भूमिहीनता में कोई फसली बदलाव न होने से चलता है. इसकी मुख्य वजह यह है कि इन राज्यों में महत्वपूर्ण भूमि सुधार हुए हैं और उसी के हिस्से के तौर पर इन राज्यों में बंटाईदारी अधिकार दर्ज किए गए हैं और ये अधिकार स्थायी हैं तथा उत्तराधिकार का भी हिस्सा हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि मजबूत वर्ग-आधारित गोलबंदी वाले राज्यों में दलितों को भूमि-आधारित आजीविका की सुरक्षा, ऐसे राज्यों के मुकाबले कहीं ज्यादा जहां दलित राजनीति मुख्यत: राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल पर केंद्रित रही है.

आय की असमानताएं

खर्चे के आंकड़ों से निकाली जा सकने वाली आय की असमानता, एक और पहलू है जिससे हमें इसका पता चलता है कि दलितों के सर्वहाराकरण का, दलित समुदाय के अंदर असमानताओं पर किस तरह का असर पड़ रहा है. समय के साथ असमानता सूचकांक में आए बदलावों पर गौर करना खासतौर पर दिलचस्प होगा. हाल ही में आए एक अध्ययन में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों का सहारा लेकर इसकी पड़ताल की गयी है.

तालिका-2 दिखाती है आर्थिक सुधार के बाद के वर्षों में, सभी सामाजिक समुदायों के बीच असमानताएं बढ़ती गयी हैं. दूसरी ओर, यह भी स्पष्ट है कि 1980 के दशक के आखिरी वर्षों में, दलितों के बीच असमानाएं घट रही थीं. असमानताओं में इस कमी को एक हद तक उन कदमों का नतीजा माना जा सकता है, जो 1970 के दशक के आखिरी हिस्से से लगाकर उभरकर सामने आयी दलित, आदिवासी तथा वामपंथी राजनीति की नयी लहर के दबाव में, शासन को उठाने पड़े थे. केरल तथा पश्चिम बंगाल के आंकड़े भूमि सुधारों के चलते, दलितों के बीच असमानताओं में स्पष्ट रूप से कमी को दिखाते हैं. इसके विपरीत, इसी दौर में ‘अन्य’ की श्रेणी में आने वालों के लिए असमानताएं बढ़ती ही नजर आ रही थीं.

बहरहाल, आर्थिक सुधार के बाद के दौर में जैसे इस प्रक्रिया को पलट ही दिया गया. ‘अन्य’ की श्रेणी में आने वालों के लिए असमानताएं घट गयीं जबकि कमजोर तबकों और खासतौर पर अनुसूचित जातियों के मामले में असमानताएं बढ़ गयीं. बहरहाल, उत्तर प्रदेश तथा महाराष्ट्र जैसे अंबेडकरी राजनीति से प्रभावित राज्यों में दलितों के बीच असमानताएं बहुत तेजी से बढ़ी हैं. यह तमिलनाडु के बारे में भी सच है जहां पैंथर कहलाने वालों ने दलित राजनीति के अंदर, वर्गीय सवाल को भी उठाने की कोशिश की है. इस तरह, दलित समुदाय में असमानता में बढ़ोतरी की दर उन क्षेत्रों में अपेक्षाकृत कम रही है, जहां वर्ग-आधारित गोलबंदियां, दलित पहचान पर आधारित आंदोलनों के मुकाबले ज्यादा मजबूत रही हैं.

इन रुझानों से यह बुनियादी सवाल सामने आता है कि क्या, दलितो की बुनियादी समस्याओं को हल करने के लिए, वर्ग-आधारित गोलबंदी को मजबूत करना भी जरूरी नहीं है? और यह भी कि सत्ताधारी वर्ग की गैर-रूपांतरणकारी ‘दलित राजनीति’ की काट करने के लिए, किस तरह की जनतांत्रिक दलित राजनीतिक पहचानों को गढऩे की जरूरत है? याद रहे कि ‘दलित कार्यकर्ताओं’ के बड़े हिस्से की एक पूर्वधारणा यह रही है कि सभी रूपों में दलित प्रतिनिधित्व, अपने आप में रूपांतरणकारी होती है. इस तरह, विभिन्न स्तरों पर दलितों की उपस्थिति भर से, इस सबसे कमजोर तथा ऐतिहासिक रूप से सबसे ज्यादा भेदभाव के शिकार तबके के लोगों की जिंदगियों रूपांतरण हो जाएगा.

जहां तक गैर-वर्गीय दलित राजनीति की संभावनाओं का सवाल है, याद रखने वाली बात है कि ठोस भौतिक स्थितियों का पीछे हम जो विश्लेषण कर आए हैं, वह तो इसी की ओर इशारा करता है कि अंबेडकरी राजनीति की जवाबी वर्चस्व निर्माण की संभावनाएं सीमित ही हैं. जहां यह सही है कि राजनीतिक क्षेत्र में दलितों का प्रतिनिधित्व, जनतांत्रिक ढांचे के सामाजिक आधार को कहीं व्यापक बनाता है, यह न तो अनिवार्य रूप से दलितों की भौतिक दशा में बदलाव करता है और न उसमें सुधार लाता है. वास्तव में राजनीतिक क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उस पर नजर डालने पर तो हम वास्तव में यही देखते हैं कि राजनीतिक क्षेत्र में प्रतिनिधित्व पाने वाले अक्सर सत्ताधारी वर्ग की ही चेतना का प्रदर्शन करते हैं और इसलिए, सामाजिक रूपांतरण की ऐसी परिकल्पना ही प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते हैं, जो जाति के उच्छेद का आधार बन सकती हो. फिर भी आज, दक्षिणपंथी संघ परिवार को ऐतिहासिक रूप से कमजोर सामाजिक समुदायों तथा मेहनतकश तबकों के बीच अपने जहरीले तंतु फैलाने से रोकने की लड़ाई में, गैर-वर्गाधारित दलित राजनीतिक आंदोलन भी, वर्गाधारित आंदोलनों के महत्वपूर्ण राजनीतिक सहयोगी हैं. इस अर्थ में जयभीम लाल सलाम का नारा वर्तमान राजनीतिक यथार्थ के संदर्भ में बेशक प्रासंगिक है. लेकिन, सामाजिक रूपांतरण की परियोजना को आंबेडकर और इस नारे से आगे तक जाना होगा.

तालिका-1

चुनिंदा राज्यों में खेती की जमीन के स्वामित्व में दशकीय बदलाव, 1999-2011
राज्य – जोत की जमीन (हैक्टेयर)
भूमिहीन- 0.001-0.40- 0.41-1.0- 1.01-2.0- 2.01-4- 4.0 से ज्यादा
केरल- 4.3- -2.3- -0.7- -1.3- 0- 0-
महाराष्ट्र- 9.4- -5.3- -4.4- 1.5- -0.3- -0.9-
तमिलनाडु- 9.7- -6.7- -2.6- -0.8- 0.3- 0-
उत्तर प्रदेश- 7.9- -4.1- -2.0- -0.7- -1.0- -0.1-
प0 बंगाल- 9.1- -2.9- -3.8- -2.2- -0.5- -0.1-

अखिल भारत- 5.7- -3.1- -1.6- -0.5- -0.2- -0.1-
स्रोत: विभिन्न वर्षों के लिए राष्टï्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के आधार पर गणना.

तालिका-2
सामाजिक ग्रुपवार आर्थिक असमानता का अनुपात
राज्य- 1983-84- 1993-94- 2011-12-
अजजा- अजा- अन्य- अजजा- अजा- अन्य- अजजा- अजा- अन्य-
केरल- 7.7- 7.7- 7.4- 7.2- 5.7- 7.2- 7.2- 9.2- 7.2-
महाराष्ट्र- 7.0- 8.7- 6.6- 7.6- 6.8- 7.5- 7.3- 8.8- 7.0-
तमिलनाडु- 6.3- 7.2- 9.8- 7.2- 6.8- 8.1- 6.1- 9.7- 12.1-
उ0 प्र0- 6.3- 7.1- 6.9- 6.8- 6.8- 6.4- 6.1- 9.6- 12.1-
प0 बंगाल- 7.0- 7.8- 7.7- 7.9- 6.2- 7.5- 10.9- 7.3- 8.6-
अ0 भारत- 7.2- 7.4- 7.3- 8.1- 6.8- 6.9- 8.1- 9.1- 9.0-

नोट: आर्थिक असमानता अनुपात की गणना, सबसे संपन्न दस फीसद के औसत खर्च और सबसे दरिद्र दस फीसद के औसत की तुलना से की जाती है. यह आंकड़ा संबंधित सामाजिक समूह के अंदर असमानता की स्थिति को दर्शाता है.

तालिका-3
असमानता (गिनी गुणांक)
राज्य- 1983-84- 1993-94- 2011-12-
अजजा- अजा- अन्य- अजजा- अजा- अन्य- अजजा- अजा- अन्य-
केरल- .045- .280- .298- .143- .254- .311- .187- .306- .242-
महाराष्ट्र- .277- .261- .305- .205- .240- .289- .256- .269- .293-
तमिलनाडु- .304- .233- .377- .264- .156- .291- .249- .264- .297-
उ0 प्र0- .265- .178- .320- .266- .271- .305- .168- .347- .447-
प0 बंगाल- .267- .278- .304- .207- .207- .323- .296- .278- .316-
अ0 भारत- .276- .280- .304- .267- .254- .288- .273- .287- .315-

नोट: गिनी गुणांक 0 से 1 तक के पैमाने पर मापा जाता है. सूचकांक 1 के जितने करीब होगा उतनी ही ज्यादा असमानता का सूचक होगा.

स्रोत: आशीष सिंह, कौशलेंद्र कुमार तथा अभिषेक सिंह के लेख, ‘एक्सक्लूज़न विदिन एक्सक्लूडेड: द इकॉनमिक डिवाइड विदिन शेड्यूल्ड कास्ट्स एंड ट्राइब्स’, इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली, वर्ष-50, संख्या-42, 17 अक्टूबर, 2015 की, तालिका-4 तथा 5 के आधार पर.

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