अम्बेडकर, राष्ट्र और राहुल
कनक तिवारी
अपनी हालिया भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने अपनी वैचारिक परिपक्वता के कई उदाहरण पेश किए हैं. वह पहले के राहुल अब नहीं रहे जिनका लोग मजाक उड़ाते थे और कहते थे पप्पू हैं. अब लोगों को उनका विरोध करने में तकलीफ तो होना शुरू हो गई है. एक महत्वपूर्ण बात राहुल ने कही.
कई बातों के अलावा राहुल ने ‘राष्ट्र‘ शब्द को रेखांकित करते कहा कि भारत को सीमित, एकांगी या केवल भाषायी अर्थ में राष्ट्र कहा या समझा नहीं जा सकता. भारत राज्यों का संघ है. राज्यों की संवैधानिक इकाइयों के रूप में स्वायत्त अहमियत है. राज्य केन्द्र के तहत शासित इकाई नहीं है. उसे लोकतंत्र की जरूरी धड़कन समझना आवश्यक होगा. इसी विचार बिन्दु से राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयकरण जैसे शब्दों का कुटुम्ब या परिधि बनाने की कोशिश करता है.
रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी अपने समय के भारत की हालत देखते राष्ट्र शब्द मुफीद नजऱ नहीं आया था. ऊपरी तौर पर राहुल का कथन जुमला नज़र आता है. इसलिए उसे नासमझ हमलों का शिकार भी होना नामुमकिन नहीं है. निष्पक्ष, तटस्थ, वस्तुपरक और विचारमूलक नज़र से राष्ट्र जैसी अवधारणा को टटोलने पर उसमें मौजूदा भारत के संविधान और शासन संस्थाओं को लेकर पश्चिमी समझ का ही वातायन खुल पाता है. नई लोकतांत्रिक पारिभाषा के अनुसार भारत को बहुत पुराने इतिहास की खिड़कियां खोलकर इस तरह नहीं ढूंढ़ा जा सकता मानो राष्ट्र शब्द भारत के अस्तित्व की समझ के लिए निर्विकल्प रहा हो.
पश्चिमी नस्ल की डेमोक्रेसी और शासन प्रबंधन सहित हर तरह की सामाजिकी और अंततः संविधान रचने पर केवल शब्द छटा के आधार पर राजनीतिक थ्योरियां न तो गढ़ी जा सकती हैं और न ही उनसे सर्वमान्य राजनीतिक सिद्धांत स्थिर होते हैं. शब्दों, वाक्यों, उद्धरणों, कथनों और समझ की संभावनाएं विकसित करने के भी लिए लोकतांत्रिक गणराज्य में संवैधानिक जुमलों, फतवों वगैरह का हुक्मनामा नहीं है. उसे तरह तरह के रंगीन चश्मों से देखा, समझा जा सकता है. 300 सदस्यों के औसतन, तीन वर्ष के श्रम के बाद जो हासिल आया वही संविधान तय करता है कि आखिरकार राष्ट्र और राष्ट्रवाद जैसे शब्दों का सर्वमान्य साध्य या प्रमेय क्या बन सकता है?
‘राष्ट्र‘ शब्द को लेकर रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानन्द, गांधी, नेहरू सहित कई दक्षिणी और वामपंथी विचारकों ने भाषायी समझ की समवेत व्याख्याओं को अपनी अपनी समझ की मुट्ठी में भींचने की कोशिश की है. मौजूदा भारत के लिए किसी हवाई सर्वेक्षण या वायवी जुमलों में डूबे बिना बाबा साहेब अम्बेडकर ने राष्ट्र को एक ठहरी हुई उपपत्ति नहीं माना. उसे समय के आयाम में संभावित और भविष्यमूलक संदर्भों में भी साफ साफ रेखांकित किया.
राहुल के शब्द अलग हैं. इसलिए जाहिर है उनकी समझ भी अलग होगी. संभव है उनकी बौद्धिक टीम ने अम्बेडकर के अधिकारिक और सर्वसम्मत पारित वक्तव्य में से राष्ट्र संबंधी थ्योरी को समकालीन बनाते राहुल को कुछ सूत्र दिए होंगे.
25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने आखिरी सम्बोधन में बाबा साहेब ने सर्वाधिक व्यापक वक्तव्य दिया. वह संविधान रचने की भूमिका, चुनौतियों, कठिनाइयों, संभावनाओं और आशंकाओं तक को लेकर वक्त की स्लेट पर एक ऐसी इबारत उकेरता है जो अमिट नहीं है, लेकिन उस समझ के आधारमूलक ढांचे को तोड़ा मरोड़ा नहीं जा सकता.
तल्खी में अम्बेडकर ने कहा कुछ राजनीतिक प्रतिनिधियों ने संविधान के मुखड़े में ‘हम भारत के लोग‘ शब्दांश को रखे जाने की मुखालफत की थी. उसके एवज में ‘भारत एक राष्ट्र‘ शब्दांश को शामिल करने की पुरजोर पैरवी की. अम्बेडकर ने कहा मेरी राय है कि हम एक राष्ट्र हैं कहकर बड़े मायाजाल में खुद को फंसा रहे हैं. हजारों वर्षों से जातियों में बंटे फंसे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं?
जितनी जल्दी हम महसूस कर लें कि इस शब्द के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अर्थ में अब भी हम एक राष्ट्र नहीं हैं, उतना ही बेहतर होगा. तब ही महसूस कर सकेंगे कि राष्ट्र होने की क्या ज़रूरत है और उस अहसास को हासिल करने कौन से रास्ते और प्रविधियां अपनाई जाएं. बाबा साहेब ने कहा इस मकसद को हासिल करना अमेरिका जैसे राज्य के मुकाबले ज़्यादा कठिन है. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में कोई जाति समस्या नहीं है.
भारत में उसके बरक्स जातियां ही जातियां हैं. जातियां ही एंटी नेशनल हैं. पहला कारण यह कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव पैदा करती हैं. इसलिए भी एंटी नेशनल हैं क्योंकि एक जाति दूसरी जाति के खिलाफ जलन, द्वेष और नफरत पैदा करती है. हकीकत में हम यदि राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले इन कठिनाइयों पर जीत हासिल करनी होगी. बंधुत्व या बंधुता तब ही एक सच हो सकता है.
राष्ट्र अस्तित्व में हो, तब ही बंधुता सही मायनों में हासिल हो सकती है. बंधुता के बिना बराबरी फकत किसी दीवार पर पुते पेन्ट की परतों से ज़्यादा कुछ नहीं है.
इस संदर्भ में ‘राष्ट्र‘ नामक शब्द के परखचे उखाड़े बिना उसे नकली और उद्दाम देशभक्ति के पचड़े में नहीं डालें, तो राहुल का बयान अम्बेडकर की संवैधानिक पाठशाला में चुनौतीपूर्ण फलसफे की तरह क्यों नहीं पढ़ा जा सकता?
कई चेतावनियां अम्बेडकर ने इन्हीं सन्दर्भों में बिखेरी थीं. उनकी ओर आज़ादी के बाद अनदेखी है, और लापरवाही बल्कि ढिठाई सरकारों में कायम रही है. अम्बेडकर ने कहा रिश्तों के इस तिलिस्म को समझने के लिए नज़रों में मकड़जाले नहीं होने चाहिए.
राजनीतिक विश्लेषण और व्याख्या करते उन्होंने कहा यदि देश पर राजनीतिक पार्टियों की विचारधारा को अहम बनाकर लादा जाएगा तो लोकतांत्रिक अस्तित्व ही पराजित होगा. एक अलग बात उन्होंने कही कि संविधान के साथ साथ हमें संविधानवाद में भरोसा करना होगा.
उन्होंने ठोस सवाल पूछा सामाजिक लोकतंत्र क्या है सिवाय इसके कि वह एक ऐसा जीवन तंत्र है जिसमें आज़ादी, समानता और बंधुत्व ही बुनियादी आधार हो सकते हैं? 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र घोषित होने वाले देश में भले ही हम समानता और एक व्यक्ति एक वोट की संवैधानिक बराबरी का दावा कर लें लेकिन देश का आर्थिक और सामाजिक ढांचा पहले ही चरमरा चुका है.
उस विरोधाभास के रहते कैसे वंचित वर्गों को सामाजिक आर्थिक बराबरी पर नहीं लाने पर भी ठेंगा दिखाते रहेंगे. यदि लंबे अरसे तक यही चला तो ये वर्ग उस पूरे ढांचे को ही फूंक मारकर उड़ा देंगे.
अम्बेडकर ने अमेरिका का उदाहरण देते बताया एक गिरजाघर में अमेरिकन आज़ादी के बाद शुरुआती प्रार्थना में ईश्वर के लिए आह्वान जोड़ा जाने की तजवीज की गई, ‘हे ईश्वर हमारे राष्ट्र को आशीर्वाद दे.‘ इस पर इतनी आपत्तियां उठाई गईं कि ये शब्द छोड़कर यह लिखना पड़ा ‘हे ईश्वर इन संयुक्त राज्यों को आशीर्वाद दो.‘
इसी का समानांतर अन्वेषित करते अम्बेडकर ने दमदारी के साथ संविधान की उद्देशिका में उसका मकसद एक राष्ट्र बनाने के पहले राष्ट्र शब्द के समर्थकों की आपत्ति को समायोजित करते भी यह वाक्यांश मंजूर कराया, ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता; प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए.‘
इन ऐतिहासिक, संवैधानिक परिस्थितियों, तथ्यों को देखने के बाद राष्ट्र शब्द की एकांगी, पक्षपातपूर्ण, अवैज्ञानिक और संकुचित समझ बाधित होती है. जब तक सही संदर्भ में शब्द-व्युत्पत्ति के इतिहास को नहीं जज़्ब किया जाएगा, व्हाट्सएप विश्वविद्यालय से तरह तरह की डिग्री प्राप्त और फिर उनके राजनीतिक प्रशिक्षु हर शब्द को अपने वजूद के लिए पेटेंट कराते रहेंगे. भले ही देश, इतिहास, संविधान और भविष्य का कबाड़ा होता रहे.