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आकाश अंबानी और श्लोका के गीत गाता मीडिया

मुंबई | संवाददाता: मीडिया को अब अगले कुछ दिनों के लिये नया काम मिल गया है. चुनाव और श्रीदेवी के बाद तुरंत-फुरंत कुछ ‘नये’ की तलाश चल रही थी. और बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया.

मीडिया अब मुकेश अंबानी के बेटे आकाश अंबानी और हीरा कारोबारी रसेल मेहता के बेटे श्लोका मेहता की सगाई और शादी में व्यस्त रहेगा. माना जा रहा है कि सगाई के बाद शादी और फिर हनीमून से लेकर बच्चे पैदा होने तक कई सौ स्टोरी पत्र-पत्रिकाओं में लिखी जायेंगी और चैनलों पर दिखाई जाएंगी.

दिलचस्प ये है कि पिछले 24 घंटों से जारी आकाश अंबानी और श्लोका के ब्याह की ताबड़तोड़ ब्रेकिंग खबरों के बीच अब तक अंबानी या मेहता परिवार की ओर से कोई पुष्टि नहीं हुई है. मीडिया तरह-तरह के कयास में जुटा हुआ है. यह सही है कि देश के सबसे अमीर व्यक्ति के बेटे की शादी में मीडिया और पाठक और दर्शक की स्वाभाविक रुचि हो सकती है. लेकिन क्या इस रुचि का निर्माण भी किया जा रहा है? क्या इस रुचि को विस्तारित भी किया जा रहा है? आकाश अंबानी और श्लोका के ब्याह की खबर क्या देश की दूसरी महत्वपूर्ण खबरों को पीछे छोड़ कर, देश में खाये-पीये-अघाये किस्म के लोगों की रुचि को आम रुचि में परिवर्तित कर देने की मुहिम नहीं है?

मीडिया एक के बाद एक ऐसी ही खबरों के साथ कान पक जाने तक खबरें परोसता जाता है और फिर ऐसी ही डिटर्जेंट के झाग जैसी खबर की तलाश में फिर निकल जाता है. याद करिये तीन तलाक, उत्तर प्रदेश का चुनाव निपटते ही देश में अब सारी मुस्लिम बहनों की समस्या सुलझ गई. पाकिस्तान की जेल में बंद कुलभूषण जाधव को याद करिये. चैनलों में राष्ट्रवाद ऐसे उबाल मार रहा था, गोया चैनल के रिपोर्टर पाकिस्तान पर हमला बोल कर जाधव को छुड़ा कर ले आयेंगे. लेकिन याद करिये, तीन तलाक या जाधव के मामले पर आपने अंतिम खबर कब पढ़ी या देखी? मामला केवल ‘टाइमिंग’ भर का नहीं है. मामला मीडिया के चरित्र का भी है.

श्लोका मेहता आकाश अंबानी
श्लोका मेहता

वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया ने कोई 13 साल पहले एक लेख लिखा था. यहां उस लेख के अंश पढ़ने लायक हैं.- अपने देश में क्या सचमुच पूर्णत: कोई समाचार चैनल है? इस समय यदि एक सर्वे किया जाए कि व्यवस्था के विभिन्न अंगों की तरह मीडिया से लोगों की कितनी शिकायतें हैं तो उसके आश्चर्यजनक परिणाम सामने आएंगे. मीडिया में खबरों की जगह अमिताभ बच्चन, एश्वर्या राय, आमिर खान और सानिया मिर्जा के जन्मदिन ने अपनी जगह बना ली है. मीडिया जब चाहता है सलमान खान और एश्वर्या राय के बीच बातचीत का ऑडियो टेप दिनभर सुना देता है. पन्ने दर पन्ने रंग देता है. और जब चंडीगढ़ के लैब से फर्जी साबित कर दिया है तो उसका क्या बिगड़ता है. दर्शक और पाठक ठगा सा रह जाता है. वह पूछता है कि मीडिया को कैसे दंडित करें? मीडिया कहता है कि खबरदार वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है.

हरियाणा में गोहाना स्थित दलितों के मोहल्ले पर दिनदहाड़े हमले की पूरी दास्तां जब एक चैनल बताता है तो दो चैनल हमलावरों की तरफ खड़े हो जाते हैं. इन चैनलों ने ग्रामीण इलाके में चल रही हमलावरों की पंचायत के सीधे प्रसारण की व्यवस्था की. पंचायत में दलितों के मोहल्ले को चंबल की घाटी घोषित किया जा रहा था. दलितों के नामों का माखौल उड़ाया जा रहा था. गालियां निकाली जा रही थी. यही नहीं पूरी संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाई जा रही थी. क्या एक चैनल के जवाब में दो टीवी चैनलों के हमलावरों के पक्ष में ग्रामीण इलाके से सीधे प्रसारण की व्यवस्था बाजार के अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ सवाल है? या नहीं. यह मीडिया के सामाजिक चरित्र को उजागर करता है? दूसरी तरफ इस घटना से पहले यह देखा गया कि समाचार पत्रों ने गोहाना में दलितों के मोहल्ले पर हमले की चेतावनी की खबर सोनीपत जिले और आसपास के इलाके से बाहर ही नहीं आने दी. चार दिन पहले से इस हमले की योजना खुले आम बन रही थी. यदि यह खबर उस इलाके से बाहर राज्य और देश के बड़े हिस्से के सामने आ जाती तो संभव था कि जागरूक तबका हमले को रोकने में अपनी भूमिका अदा करता. आखिर क्या कारण है कि समाचार पत्र अपने स्तर पर एक जिले से दूसरे जिले के लोगों से काटकर रखने वाले संस्करणों का विस्तार कर रहे हैं. क्षेत्रीय संस्करणों को बाजार विस्तार का बहाना बताया जा रहा है तो क्षेत्रीय स्तर पर ही समाचारों की विषय वस्तु और उसके सामाजिक सरोकारों से समझौता किसके दबाव का नतीजा है? यहां हमें प्रतिस्पर्धा से मिलने वाले लाभ के तर्कों का सच सामने आता है.

इस कड़ी में पूछा जाए कि पाकिस्तान की जेल में बंद अपने पंजाब का सरबजीत मीडिया के माध्यम से “राष्ट्रवाद” का प्रश्न बन गया है. अब क्या हुआ. कहां गया सबरजीत? हिसाब लगाया जाए कि सरबजीत के मामले को चैनलों में कितना समय और समाचार पत्र-पत्रिकाओं में कितनी जगह मिली. किसी भी एक व्यक्ति को निर्दोष होने की स्थिति में सजा मिलने की स्थिति को कोई भी संवेदनशील समाज स्वीकार नहीं कर सकता है. मीडिया की यह जिम्मेदारी होती है कि वह इस तरह के किसी मामले को एक अभियान की शक्ल दें. लेकिन कुछ सवालों के जवाब भी ढूंढने होंगे. पहला तो यह कि सरबजीत के मामले का फैसला किस देश की अदालत करेगी? क्या पाकिस्तान को यह छूट दी जा सकती है कि वह भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी को दी गई सजा को चुनौती देने और उसे गलत बता सकते हैं?

भारत में अभी तक यह देखा गया है कि जिन्हें मीडिया ने अपराधी मान लिया यदि उसे अदालतों ने बरी कर दिया तो मीडिया अदालतों के फैसलों के खिलाफ भावनाओं को भरपूर जगह देने लगती है. संसद भवन में हथियारबंद घुसपैठ के आरोप में एसएआर जिलानी का मामला केवल एक उदाहरण है. दूसरा कि भारतीय जेलों में न जाने कितने मंहगू राम, कैलू दुसाध, राम प्रवेश कुशवाहा और अंबिका चौधरी वर्षों से निरपराध सड़ रहे हैं और उनके निरपराध होने की तथ्यात्मक जानकारी कई मानवाधिकार संगठनों ने मुहैया कराई है, लेकिन ऐसी कितनी रिपोर्टों को अभियान की शक्ल में बदला गया है. आखिर यह मीडिया कैसे संचालित होता है? अपने देश के हरिजन-गिरिजन के चेहरे को देखकर इसके “राष्ट्रवाद” का दिल नहीं पसीजता है और इस्लामिक देश होने की वजह से पाकिस्तान “राष्ट्रवाद” जगाने की दवा बन जाता है? सरबजीत फिर सुर्खियों से गायब भी हो जाता है.

मीडिया को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के नाम पर कुछ भी करने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती है. एक बात यह साफ होनी चाहिए कि एक तरफ तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है तो दूसरी तरफ यह कहा जाता है कि इसमें “लाला” के पैसे लगे हैं. लाला ने कोई लूटाने के लिए अपनी यह दुकान नहीं खोल रखी है. बिल्कुल यह ठीक बात है कि इसमें बड़ी पूंजी लगी हुई है. कई मीडिया संस्थान इसे उत्पाद के रूप में प्रस्तुत भी करते हैं. इनमें द टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप सर्वोपरि है. यदि यह उत्पाद है कि ऐसे उद्योग धंधों को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की विशेष सुविधाएं क्यों लेने दी जाए. मीडिया को कोई अलग से अभिव्यक्ति की आजादी की का व्यापार करने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है. वह संविधान में आम नागरिकों को मिली अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का ही इस्तेमाल करते है? लेकिन जब वह लोगों की अभिव्यक्ति को “सनसनी” में परिवर्तित कर देता है तो उसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने का क्या अधिकार रह जाता है. यह लोकतंत्र का उद्योग धंधा है. पूंजी के साथ लोगों के मौलिक अधिकारों से भी खेलता है.

इसी कड़ी में एक मजेदार बात और कर लेनी चाहिए. ऐसा मीडिया बराबर यह तर्क देता है कि बहस के बीच खड़े विषय पर बातचीत की जाए. मीडिया में नौकरी करने वाले खुद को प्रोफेशनल कहलाने का इसे आधार बनाते हैं. लेकिन इस सवाल को एक सिरे से निगल लिया जाता है कि बहस के विषय कौन तय करता है. यहां धर्मवीर नाम का कोई सरकारी नौकर दलित महिलाओं को गाली देता हुआ एक किताब लिख देता है और वह बहस का विषय बन जाता है. सरबजीत कैसे मुद्दा बन जाता है? जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मीडिया भूल जाता है और अमिताभ दिनभर छाया रहता है? किसी विषय को करंट बनाने का कारोबार किस तरह से चलता है. उसका एक दिलचस्प उदाहरण यहां रखा जा सकता है. इन दिनों संसद में इस तरह के सवाल बहुत पूछे जाते हैं कि सरकार को क्या पता है कि फलां समाचार पत्र में फलां खबर छपी है. उसके बारे में सरकार के पास क्या सूचना है. सरकार जवाब देती है कि उसके पास इस तरह की कोई सूचना नहीं है. अक्सर होता यह है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के नाम पर सूत्रों के हवाले से कुछ भी प्रकाशित कर दिया जाता है. अक्सर यह समाचार सरकार और सत्ता के विरोधियों के बारे में होता है. फिर उसे ही आधार बनाकर संसद में सवाल पूछे जाते हैं.

इस तरह से एक विषय को करंट बनाने और उसे करंट बनाए रखने की कवायद कई दिनों तक चलती रहती है. फिर एक दिन अचानक वह खबर गायब हो जाती है. इस बात पर निगाह रखी जानी चाहिए कि अचानक कोई मुद्दा उनके बीच कहां से आ गया. उसकी जड़े कहां तक फैली हुई है. ताजा विषयों का यह तर्क वास्तव में बुनियादी मुद्दों से दूर ले जाने की साजिश का हिस्सा है. इस तरह ताजा विषय सामने आते रहेगें और पुराने विषय दबते चले जाएंगे. संपादकीय पेजों पर अक्सर ताजा विषयों पर लेख लिखे जा रहे है. लेकिन बुनियादी मुद्दे छूटते जा रहे हैं. यदि कहा जाए कि भूमि सुधार पर किसी समाचार पत्र में लेख छपे कितने वर्ष हो गए तो यह किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. अपनी भाषाओं के अखबारों में अंग्रेजी की सोच और तर्क छाते चले गए हैं.

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