ताज़ा खबरविविध

पानी के बिना जिंदगी

हम खुद को अभी भी भ्रम में रखे हुए हैं कि जल संकट से हमें कोई दिक्कत नहीं होगी. वह दिन आने वाला है जब इस्तेमाल के लिए पानी नहीं रहेगा. यह बहुत दूर की बात नहीं है. हालिया सर्वेक्षणों के मुताबिक दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन में यह स्थिति आने वाली है. भारत के भी कम से कम एक बड़े शहर बेंगलुरु में यह संकट पैदा हो सकता है. केपटाउन ने बेहतर संरक्षण उपायों के जरिए पानी के बिना वाले दिनों को अप्रैल से टालकर जुलाई में पहुंचाने में सफलता हासिल की है. वहां हर व्यक्ति के लिए प्रतिदिन 50 लीटर पानी के इस्तेमाल की सीमा तय कर दी गई है. अगर इस साल मई में वहां ठीक बारिश नहीं होती है तो लोगों को पानी के लिए लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ेगा. भारत में बेंगलुरु जैसे जो शहर पानी का संकट का सामना कर रहे हैं, वहां इस तरह की कोई व्यवस्था अब तक नहीं बनी है. इससे पता चलता है कि जल संकट को लेकर हमने व्यावहारिक रुख नहीं अपनाया है. बल्कि हम अब भी इस संकट को लेकर एक भ्रम का शिकार हैं और हमें लगता है कि इसका समाधान खुद ही हो जाएगा.

केपटाउन के संकट से भारत को सबक लेना चाहिए. क्योंकि भारत के कई शहरों में यह संकट पैदा होने वाला है. यह बात भी हमारे ध्यान में रहनी चाहिए कि लोक संसाधनों का इस्तेमाल हमारे समाज की असमानता को भी दिखाता है. भारतीय शहरों में गरीब लोगों के लिए हर दिन पानी का संकट है. उन्हें हर रोज लाइन लगाकर और ठीक-ठाक पैसे खर्च करके पानी लेना होता है. इसकी मात्रा न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने लायक भी नहीं होती. अमीर लोगों के यहां नलों से पानी आता है, टैंक में भरा जाता है और इनक पास इसके दुरुपयोग की काफी गुंजाइश होती है. पानी के बदले जो पैसा उनके लिया जाता है, वह पानी की बचत की प्रवृत्ति बढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं है. उनमें इस बात का अपराध बोध भी नहीं होता कि वे बेशकीमती संसाधन का दुरुपयोग कर रहे हैं.

हमारे यहां पानी के इस्तेमाल और संरक्षण से जुड़ी कई समस्याएं हैं. पानी के प्रति हमारा रवैया ही ठीक नहीं है. हमें इस भ्रम में रहते हैं कि चाहे जितना भी पानी का दुरुपयोग या बर्बादी कर लें लेकिन बारिश से हमारी नदियों और जलाशयों में फिर से नया पानी आ जाएगा. यह रवैया सरकारी एजेंसियों का भी है और आम लोगों का भी. अगर किसी साल बारिश नहीं होती तो इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार ठहराने लगते हैं. हम संरक्षण की बात समझ नहीं नहीं पाते. यह बात हम नहीं समझते कि अगर किसी संसाधन की आज बचत करेंगे तो भविष्य में इसकी उपलब्धता अधिक होगी.

इस तरह की सोच की वजह से हमारे शहरों में जल संरक्षण और इसके वितरण पर खास ध्यान नहीं दिया गया. बेंगलुरु की आबादी 1991 में 45 लाख थी और क्षेत्रफल था 226 वर्ग किलोमीटर. अभी बेंगलुरु शहर 800 वर्ग किलोमीटर से अधिक में फैल गया है और इसकी आबादी 1.35 करोड़ हो गई है. यहां पानी एक स्थायी संकट है. इसके बावजूद जल संरक्षण और इसके स्रोतों को बचाए रखने के लिए जरूरी उपाय नहीं हो रहे हैं. न ही जल की बर्बादी और इसके दुरुपयोग पर किसी दंड का प्रावधान किया जा रहा है. बेंगलुरु कावेरी नदी के पानी पर आश्रित रहा है. इसी आधार पर कर्नाटक सरकार ने हालिया अदालती लड़ाई में कावेरी से अधिक पानी की मांग दोहराई. इसमें सरकार को सफलता भी मिली. लेकिन इससे भी न तो बेंगलुरु की समस्या निपटेगी और न ही जल संकट झेल रहे राज्य के दूसरे शहरों की.

जल के इस्तेमाल के मामले में घरेलू उपयोग की बड़ी भूमिका नहीं है. लेकिन कृषि की है. 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से कृषि में पानी की मांग बढ़ी है. इससे भूजल का दोहन हुआ है जल स्तर नीचे गया है. इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं. जब भी बारिश नहीं होती तब संकट पैदा होता है. नदियों के पानी का मार्ग बदलने से भी समाधान नहीं हो रहा. नर्मदा नदी पर विरोध के बावजूद सरदार सरोवर बांध और अन्य बांध बनाए गए. इसके बावजूद नर्मदा का जल स्तर नहीं नीचे ही गया है. कई बार तो इतना पानी भी नहीं होता कि आश्रित शहरों में इसकी आपूर्ति हो सके. कृषि के लिए इस्तेमाल की बात तो दूर है. इसके बावजूद नर्मदा का पानी अहमदाबाद से गुजरने वाली साबरमती में ले जाया गया है. अहमदाबाद में इस नदी पर रिवर फ्रंट बनाकर इस शहर के लोगों की पानी की प्यास बुझाने का काम किया गया है.

सार्थक महत्व के बजाए रस्म अदायगी का मौका 22 मार्च का विश्व जल दिवस बन गया है. भारत भी इसे मनाएगा. हर साल इस मौके पर जल संरक्षण को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करती है. लेकिन इसके बाद पूरे साल ये बातें न तो शहरी नियोजन में दिखती है और न ही कृषि या अन्य किसी क्षेत्र में. इसके बजाए हम इस भ्रम में जीते रहते हैं कि जल संकट टल जाएगा. किसी समाज में पानी का किस तरह से उपयोग या दुरुपयोग होता है, उससे उस समाज में न्याय और पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता का पता चलता है. अभी जो स्थिति है, उसमें भारत इन पैमानों पर शून्य अंक हासिल करेगा.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!