संविधान दिवस पर संविधान की आत्मा का बयान
कनक तिवारी
हे पवित्र संविधान! आज संविधान दिवस के अवसर पर मैं इकबाल करता हूं कि मैं तुम्हारे यज्ञ की समिधा हूं.
मैंने संविधान को जन भाषा में नागरिक जिरह में लाने की कोशिश की है. ऐसी कोशिश और किसी ने की है मुझे पता नहीं. मेरे लिए संविधान एक अहिंसक हथियार है, जो जनता के हाथ में है.
उसके रहते जनता को कोई जिबह नहीं कर सकता. दुख इस बात का है कि जनता ने इस बात को नहीं समझा. अपने अज्ञान और अपनी दकियानूसी विचारधाराओं के प्रहार से नहीं बचने की पराजय की हताशा में आज इसीलिए संविधान को कुचला जा रहा है.
ये वे लोग हैं जो संविधान बनने के वक्त संविधान सभा में आने के काबिल नहीं थे अपनी कुंठित और अवाम विरोधी विचारधाराओं के कारण. वे अंग्रेजों के तरफदार थे और देश के दौलतमंद पूंजीपतियों की दलाली करते थे.
उनके कारण संविधान के मुखड़े में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को शब्दों के रूप में नहीं लिखा जा सका, जिससे देश में गरीब और अमीर की खाई बनी रहे और हिंदू मुस्लिम इत्तहाद का खात्मा हो. वे अंग्रेजों के साथ मिलकर, बराबर संविधान निर्माताओं की टांग खींचते रहे. उनके कारण संविधान सभा में कहलवाया गया कि इस संविधान के विरोधी कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट हैं. सोचिए कितनी विसंगत बात हुई.
ऐसे लोगों के रहते नागरिक आजा़दी को कारगर और देश के चरित्र का अक्स बनाने के लिए गांधी के महान सिद्धांतों अहिंसा, सत्याग्रह, सिविल नाफरमानी, पैसिव रेजिस्टेंस वगैरह के खिलाफ भी जिरह की गई. अभी हालिया सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने, अब तो संदिग्ध हो चुके चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में यह फैसला कर दिया कि सभी तरह की निजी संपत्ति को सरकार राष्ट्रीय प्रयोजनों के लिए भी हस्तगत नहीं कर सकती. इसका बीज मंत्र संविधान के अनुच्छेद में 39(ख) में रखा गया था, जिसे लेकर समाजवादी सदस्य चीख चीख कर कहते रहे कि उसे सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा जाए. उसके लिए पब्लिक सेक्टर बनाया जाए. लेकिन निहित स्वार्थ के लोगों ने जो आज सत्ता में हैं, के पूर्वजों ने यह सब पुण्य नहीं होने दिया.
संपत्ति पर अपनी मजबूत पकड़ बनाकर भारतीय पूंजीपति अंग्रेजी पूंजीपतियों के साथ कदमताल कर संविधान में समाजवाद को लाने, गरीबी का उन्मूलन करने और नागरिक आजा़दी को महसूस करने, अमल में लाने के प्रतिरोध के रूप में अपनी खलनायक भूमिका अदा करते रहे.
संविधान में घुस गए इस वायरस को निकालना आज की पीढ़ी का कर्तव्य है. उसे 75 वर्षों के संविधान अनुभव के बाद भी मुनासिब तौर पर किया नहीं जा सका. आज सत्ता में बैठे लोग संविधान का पुरोहित ब्रांड गुणगान करेंगे क्योंकि इससे उनका फायदा होता है. लेकिन यह नहीं बताएंगे कि अपनी सत्ता के दौरान, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के खिलाफ कानून बनाकर, संविधान की देह में कितने छेद उन्होंने कर दिए हैं.
एक नकली और सत्तापरक चुनाव आयोग है. उसके कारण देश में लोकतंत्र का सफाया हो गया. जहां नागरिक प्रतिरोध है, सत्ता ने उन राज्यों का कबाड़ा कर दिया. जम्मू कश्मीर की हैसियत घटा दी. दिल्ली सरकार की हैसियत घटा दी. आदिवासी इलाकों में डकैती कर दी. मणिपुर को तो दोजख बना दिया.
लचीले संविधान ने भविष्य की पीढ़ियों को कहा था कि जनता की ज़रूरतों के अनुकूल संविधान में ऐसे प्रावधान करें, जिससे पूर्वजों की आत्मा को क्लेश न हो. इसके बावजूद देश की सुप्रीम कोर्ट को ही एक तरह से राजनीतिक बंधक बनाकर लोकतंत्र के खात्मे की अंतिम तैयारी भी हो चुकी है और संविधान का इतिहास देख रहा है.
संविधान किसी अबूझ भाषा का मंत्र उच्चार नहीं है. हमें ऐसा नहीं करना चाहिए. हमें उसकी एक-एक इबारत को जज़्ब करना चाहिए. हमको मालूम होना चाहिए कि हम जनता के लोग संविधान के मालिक हैं. हम उसके लेखक हैं. हम उसके रचयिता हैं.
हम उसके पाठक नहीं हैं. ग्राहक नहीं हैं. भिक्षुक नहीं हैं. देश का हर बड़े से बड़ा संविधान का अधिकारी, वह जनता का सेवक है. मालिक नहीं है. संविधान नागरिक जीवन का ऑक्सीजन है. सत्ता के हर हथकंडे से अगर हमको जनता की आवाज़ को उसके तेवर को उसके भविष्य को मजबूत करना है, सुरक्षित रखना है, तो संविधान का ऐसा जनवादी पाठ हमको पढ़ना पड़ेगा.