दो ताक़तों की टकराहट का नतीज़ा क्या निकलेगा?
पुष्परंजन | फेसबुक
एक सवाल है, विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी, जिसके सदस्यों की संख्या 18 करोड़ से अधिक है, उसे लगभग 60 लाख की सदस्यता वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सपोर्ट की ज़रूरत क्यों पड़ती है? वो बार-बार कहते हैं कि हम एक सांस्कृतिक संगठन हैं.
वर्तमान में देश भर में 56 हज़ार 824 स्थानों पर आरएसएस की शाखा लगती है, जो पूरे भारतवर्ष में 5,505 विकास खंडों में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती हैं. 27 सितंबर सन् 1925 को विजयादशमी के दिन डॉ. केशव हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय ही इसके उद्देश्यों को अराजनीतिक बताया था.
डॉ. केशव हेडगेवार ( 1925 से 30 और फिर 1931 से 1940) के बाद के पांच सरसंघ चालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर ‘गुरूजी’ (1940 से 1973), मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बालासाहेब देवरस (1973 से 1993) प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया (1993 से 2000), कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी (2000 से 2009) डॉ. मोहनराव मधुकरराव भागवत (2009 से अबतक) भी मानते रहे, कि हमारा संगठन सांस्कृतिक है. तो विवाद किस बात का?
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विधान में लिखा है कि बीजेपी जब सत्ता में होगी, उसकी निगरानी, निर्देशन और मार्गदर्शन सरसंघचालक करेंगे? संभवतः आरएसएस दुनिया का अकेला ‘सांस्कृतिक संगठन’ है, जिसके किसान-मुसलमान-महिला-युवा-व्यापार-कामगार और विदेशी मामलों जैसे घटकों से जुड़े 22 से अधिक अनुषांगिक तंज़ीमें हैं.
संयोग है कि सरसंघ चालक डॉ. केशव हेडगेवार पेशे से डॉक्टर थे, और उनके मौज़ूदा समकक्ष मोहन भागवत भी डॉक्टर हैं, लेकिन पशुओं के. बीच के सर संघचालकों में से कोई भी डॉक्टर नहीं था, सिवा डॉ. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे के. नागपुर में सभी इन्हें “डॉ. दादा ” के नाम से जानते थे. जंगल सत्याग्रह की वजह से डॉ. हेगडेवार सालभर के लिए जब जेल गए, तो 1930 -31 में ‘डॉ. दादा’ को ही कार्यकारी सरसंघचालक की ज़िम्मेदारी दी गई थी.
बहरहाल, एक डॉक्टर के समक्ष जब ‘मल्टी ऑर्गन डिसऑर्डर’ से ग्रस्त कोई मरीज़ होता है, तो उसके सामने बड़ी चुनौती दरपेश होती है. पिछले दस वर्षों से इस ‘मरीज़’ का इलाज छिप-छिपाकर हो रहा था. लेकिन जब वह लाइलाज होने लगा, तो ‘डॉक्टर की क्लिनिक’ से एक-एक कर बयान बाहर आने लगे.
इसी कड़ी में आरएसएस के राष्ट्रीय कार्यकारी सदस्य इंद्रेश कुमार के बयान को देखा जाना चाहिए. गुरुवार को जयपुर के पास कानोता में रामरथ अयोध्या यात्रा दर्शन पूजन समारोह में इंद्रेश कुमार बोले, “राम सबके साथ न्याय करते हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव को ही देख लीजिए. जिन्होंने राम की भक्ति की, लेकिन उनमें धीरे-धीरे अंहकार आ गया. जो शक्ति उसे मिलनी चाहिए थी, वो भगवान ने अहंकार के कारण रोक दी. इसलिए प्रभु का न्याय विचित्र नहीं है. सत्य है. बड़ा आनंददायक है.”
इंद्रेश कुमार की यह टिप्पणी आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के बयान के कुछ दिनों बाद आई है. सबसे पहले सरसंघचालक मोहन भागवत ने मणिपुर में अनवरत चल रहे अशांति का मुद्दा उठाया था. उसके प्रकारांतर उन्होंने कहा था कि एक सच्चे ‘सेवक’ में अहंकार नहीं होता और वो मर्यादा से चलता है. उस मर्यादा का पालन करके जो चलता है, वह कर्म करता है, लेकिन कर्मों में लिपटा नहीं होता. उसमें अहंकार नहीं आता, कि सबकुछ मैंने किया.
एक सच्चा ‘सेवक’ गरिमा बनाए रखता है. वो काम करते समय मर्यादा का पालन करता है. उसे यह कहने का अहंकार नहीं है कि ‘मैंने यह काम किया’. सिर्फ उस व्यक्ति को सच्चा ‘सेवक’ कहा जा सकता है. मोहन भागवत जिसके लिए कह रहे थे, क्या वह अमर्यादित है? अहंकारी है? ‘सबकुछ मैंने किया’ के सिंड्रोम से ग्रसित है? लेकिन लोग उस व्यक्ति विशेष का नाम जानना चाहते थे.
अटल जी ने तो भरी सभा में ‘राजधर्म’ की याद दिला दी थी. अंततः छायावादी तरीके से बयानबाज़ी का पटाक्षेप हुआ. आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ में संघ के विचारक रतन शारदा ने अपने लेख में स्पष्ट कर दिया कि किनके लिए यह सब बोला जा रहा था.
संघ के आइडोलॉग डॉ. रतन शारदा लिखते हैं, “लक्ष्यों को मैदान में कड़ी मेहनत करके हासिल किया जाता है, न कि सोशल मीडिया पर पोस्टर और सेल्फी शेयर करके. चूंकि, वे अपने बुलबुले में खुश थे, मोदीजी के आभामंडल से झलकती चमक का आनंद ले रहे थे, इसलिए वे सड़कों पर लोगों की आवाज नहीं सुन रहे थे. इन लोगों ने पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की है, जिन्होंने बिना किसी मान्यता की मांग किए पार्टी के लिए काम किया है.”
लेकिन सवाल है, कि क्या केवल एक मोदी की अधिनायकवादी कार्यशैली की वजह से संघ ने चुनाव में सहयोग से हाथ पीछे खींच लेने का फैसला लिया? या उनकी चॉइस के प्रत्याशी नहीं उतारे गए, या कि पूरी चुनावी रणनीति में नागपुर मुख्यालय को महत्वपूर्ण सलाह-मशविरे से दूर रखा गया था? क्या पिछले कुछ वर्षों से पराक्रम की परीक्षा हो रही है, कि भारत की समकालीन हिन्दू राजनीति का सबसे बड़ा योद्धा कौन है?
सच है कि 2014 के कालखंड में सरसंघचालक मोहन भागवत ने ही नरेंद्र मोदी के नाम पर अंतिम मुहर लगाई थी. सुरेश सोनी, जिन्हें अक्सर ‘टर्मिनेटर’ के रूप में जाना जाता है, ने आरएसएस में लालकृष्ण आडवाणी के समर्थन आधार को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. संघ के शीर्ष नेतृत्व में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए समर्थन देने वाले वो पहले व्यक्ति थे. बाद में वही सुरेश सोनी बीजेपी सरकार और संघ के बीच समन्वयक की अहम् ज़िम्मेदारी सम्हालने लगे थे.
संघ के अन्तःपुर को समझने वाले बताते हैं कि पीएम मोदी से सुरेश सोनी की ज़बरदस्त ट्यूनिंग का नतीज़ा था, कि संघ के ढांचागत बदलाव के वास्ते उनका इस्तेमाल किया जाने लगा. इस सन्दर्भ में बंगलुरु में 20 मार्च 2021 की एक घटना दीगर है, जब सुरेश सोनी ने सह सरकार्यवाह (संयुक्त महासचिव) दत्तात्रेय होसबोले को सरकार्यवाह (महासचिव) के पद के लिए प्रस्तावित किया.
इससे यह स्पष्ट हो गया था कि आरएसएस में शीर्ष स्तर पर बदलाव का खेल चल रहा है, और पीएम मोदी के प्रिय दत्तात्रेय होसबोले से यह उम्मीद की जाने लगी कि अगले संघ प्रमुख वही बनेंगे. होसबोले की पदोन्नति तो हो गई, मगर, उनके दो सह सरकार्यवाह, वी. भगैया और सुरेश सोनी को सेवानिवृत्त कर दिया गया. उनकी जगह झारखंड के क्षेत्रीय प्रमुख रामदत्त चक्रवर्ती और अरुण कुमार को शामिल किया गया. केंद्र से कोऑर्डिनेशन का जो काम सुरेश सोनी देख रहे थे, वो अरुण कुमार के हवाले कर दिया गया. नागपुर के रेशिम बाग स्थित संघ मुख्यालय से तुरुप का इक्का कौन फेंक रहा था?
आम चुनाव से ठीक पहले, मार्च में दत्तात्रेय होसबोले ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नई कार्यकारिणी में 2024-27 के कार्यकाल के लिए छह सह-सरकार्यवाह नियुक्त किए. इस बार कार्यकारिणी की संख्या पांच से बढ़ाकर छह कर दी गई. जो सबसे चौंकाने वाली खबर थी, वह यह कि डॉ. मनमोहन वैद्य को जगह नहीं मिली.
नवनियुक्त सह-सरकार्यवाहों में कृष्ण गोपाल, सीआर मुकुंद,अरुण कुमार, राम दत्त चक्रधर, अतुल लिमये और आलोक कुमार के नाम सामने आये. डॉ. मनमोहन वैद्य लम्बे समय से मोदी और अमित शाह को चुभते रहे थे. सीएम रहते नरेंद्र मोदी का डॉ. मनमोहन वैद्य से छत्तीस का आंकड़ा था, तब वो गुजरात मामलों के प्रभारी थे. मोदी के कहने पर ही उन्हें गुजरात से हटा दिया गया था. फिर जब मोदी का केंद्र में क़द बढ़ा, तो डॉ. वैद्य हाशिये पर जा चुके थे. समझा जाता है कि इस बार डॉ. मनमोहन वैद्य को मोदी के दबाव में ही होसबोले ने हटाया था.
संघ मुख्यालय में आये दिन एक सवाल मुखर रहता है, 73 वर्षीय मोहन भागवत कब अवकाश ग्रहण करेंगे?
यों, आरएसएस में सरसंघ चालक स्तर पर रिटायरमेंट की कोई प्रक्रिया नहीं रही है. डॉ. केशव हेडगेवार से लेकर रज्जू भैया के समय तक संघ में सत्ता हस्तांतरण का इतिहास देख लीजिये. 10 मार्च 2000 को रज्जू भैया की जगह नंबर टू पर रहे एचवी शेषाद्रि ने स्वास्थ्य कारणों से जब सत्तारोहन से इंकार कर दिया, तब कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन सरसंघ चालक बनाये गए थे. पिछले दशक की समाप्ति से पहले केएस सुदर्शन काफी बीमार रहने लगे, चुनांचे मार्च 2009 में मोहन भागवत को छठवाँ सरसंघचालक नियुक्त कर स्वेच्छा से पदमुक्त हो गये.
2014 में पीएम मोदी के उदय के साथ, भाजपा ने अटल-आडवाणी युग को धीरे-धीरे अलविदा कह दिया. 2014 से मोदी, संघ परिवार के गुरुत्वाकर्षण के केंद्र में थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद नागपुर में संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार, उनके उत्तराधिकारी एमएस गोलवलकर की समाधि पर जाने से इनकार करना, और प्रधानमंत्री बनने में उनकी मदद करने के लिए संघ के आभार को खुलकर स्वीकार न करना संघ के शिखर नेताओं को अखरता रहा. मोहन भागवत का जन्म 11 सितंबर, 1950 को हुआ था. 17 सितंबर, 1950 को जन्मे पीएम मोदी भी मोहन भागवत के हमउम्र हैं. 69 वर्षीय होसबोले तीनों में सबसे कम उम्र के हैं. यही कारण है कि उनके उत्थान से यह आकलन किया जा रहा है कि कुछ वर्षों बाद वे आरएसएस का नेतृत्व कर सकते हैं.
पीएम मोदी का भी अपना एक ईगो है. ठीक वैसा ही, जैसा कि क्लास में अपने से जूनियर रहे व्यक्ति के प्रति होता है.1971 में आरएसएस के पूर्णकालिक सदस्य बने मोदी को संभवतः लगता होगा कि संगठन में अपने से जूनियर रहे शख्स के निर्देशों का पालन क्यों करें? दोनों हमउम्र हैं. मोदी 1978 में सूरत और वडोदरा के संभाग प्रचारक बन चुके थे. मोहन भागवत 1977 में महाराष्ट्र के अकोला से प्रचारक बने.
मोहन भागवत और मोदी के बीच विचारों की नहीं, अहं की टकराहट है, जो विध्वंस की तरफ़ ले जाता है. चुनाव बाद यह चर्चा चरम पर थी कि संघ, सबसे ख़राब प्रदर्शन करनेवाले मोदी को पीएम पद पर तीबारा से पदासीन नहीं होने देगा. अब यह चर्चा सत्ता के गलियारों में है कि मोहन भागवत सरसंघ चालक की पाली लम्बे दिनों तक नहीं खेल पाएंगे. यह जोखिम भरा है. नीत्से के उस वाक्य की तरह, “लिव डेंजरस्ली.” बिल्कुल आत्मघाती !