गमले में बरगद !
कनक तिवारी
भारत तरह तरह की चुनौतियों, आकस्मिकताओं, कारगुजारियों, संभावनाओं और प्रयोगों के दौर से गुज़र रहा है.दुनिया विचारों की जद्दोजहद में कभी परस्पर सीखती, सहकार करती और मतभेद होने पर भी साथ साथ चलने की नीयत और जोखिम तक उठाती रही थी.
भारत की वैचारिकी ने दुनियावी उपलब्धियों से बेरुख या लास्य रहित होकर भी पूरे संसार के सामने मार्गदर्शक प्रतिमान कायम किए थे कि तमाम देश उनमें अपना भी परिपाक और भविष्य ढूंढ़ लेते रहते थे. अठारहवीं सदी तक भारत आज की तरह गरीब नहीं था.
आधुनिक इतिहास में कई शोधों ने सिद्ध किया है कि भारत पर यूरोपीय देशों के हमले उसकी अमीरी के कारण हुए. उनसे पहले मुस्लिम हमले भी हुए. हर हमलावर ज्य़ादा से ज्यादा दौलत भारत से लूटकर अपने मादरे वतन तक ले जाता रहता. अन्त में अंगरेजों ने कैंसर के विषाणु बनकर चूसा और भारत के गरीब होने का लगातार प्रचार भी किया.
सदियों से विचारशीलता के इन्डेक्स पर भारत दुनिया का सिरमौर रहा. ज्ञान विज्ञान के कई इलाकों में भारतीय झंडा ही बुलंद रहा.
अंगरेजों से आज़ादी पाने के संघर्षशील दौर में कई वैचारिकों ने देश की अगुवाई की. ज़्यादातर यूरोप और खासकर इंग्लैंड में ऊंची तालीम हासिल कर हमारे पूर्वजों ने राजनीति, कूटनीति, अंतर्राष्टीयता और मानव मूल्यों के क्षेत्रों में अंगरेज कौम को मुकम्मिल तौर पर परास्त कर आज़ादी हासिल की.
स्वतंत्रता आंदोलन के महान नेता तिलक, गांधी, नेहरू, सुभाष बोस, लोहिया, जयप्रकाश वगैरह अंतर्राष्ट्रीय शोहरत के रहे. उनके विचारों की धमक आज भी पूरी दुनिया में है. संस्कृति में भी भारत के विचारों की अनुगूंज दयानंद सरस्वती, रवीन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानन्द, काजी नजरुल इस्लाम, मौलाना आज़ाद, सुब्रमण्यम भारती और न जाने कितने सूरमाओं की आज भी सुनाई पड़ती है.
पहले प्रधानमंत्री नेहरू की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति आज भी लोकप्रियता की ऊंची पायदान पर है. यह अलग है कि बाद में सियासतदां लोगों में उतनी रचनात्मक प्रतिभा धूमिल होने लगी जो संविधान सभा में डा. अम्बेडकर, डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, प्रो. के. टी. शाह, शिब्बनलाल सक्सेना, विशंभरदयाल त्रिपाठी, दामोदर स्वरूप सेठ, हरिविष्णु कामथ, हृदयनाथ कुंजरू, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, मौलाना हसरत मोहानी और नजीरुद्दीन आदि में लहराई थी.
वक्त बीतता गया. भारतीय आज़ादी के 75 साल हो गए और संविधान निर्माण के भी. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसे अमृतकाल कह दिया. विज्ञान और तकनॉलॉजी के कारण ज्ञान के माध्यम अब किताबें, पुस्तकालय, आपसी विमर्श, व्याख्यान और शोध प्रकल्प नहीं रह गए हैं. उनसे कहीं ज़्यादा नौजवानों की दुनिया सोशल मीडिया पर व्हाटसएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर चहलकदमी करती है.
नई पौध अध्ययनविरत है. उसे ऑन लाइन ज्ञान चाहिए जिस तरह रेस्टॉरेन्ट से भोजन को घर से ऑनलाइन बुलाने का ऑर्डर दिया जाता है. सत्ताभिमुख राजनेताओं का बौद्धिक स्तर इस कदर गिर गया है कि कई को भारत के नक्शे में कुछ प्रमुख कस्बे तक ढूंढ़ने में कठिनाई होगी.
इतिहास और समाज का उनका ज्ञान बहुत खराब, बेतरतीब और अफवाहों, किंवदंतियों और चरित्र हत्या के उद्धरणों से अंटा पड़ा है. किसी भी मुद्दे पर फैसला देने तत्काल फतवा सुना देते हैं. खुद को देश की बौद्धिक मिल्कियत बने रहने का ख्वाब, दंभ, अहसास और मुगालता पाले हुए हैं. इनकी जबान पर चस्पा है कि गांधी ने ऐसे काम किए थे कि गोडसे ने उन्हें ठीक ही मारा.
अपने खानदान और परिवार में पता हो न हो लेकिन नेहरू के पूर्वज मुसलमान हैं. ऐसा व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में सैकड़ों की संख्या में लिखते हैं. इनकी रटंत में भारत में पिछले 70 वर्षों में कोई अच्छा काम हुआ ही नहीं. आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और आत्ममुग्धता में आजादी का नया युग तो अभी अभी आया है.
इन्होंने श्यामाप्रसाद मुखर्जी का संविधान सभा में दिया गया योगदान पढ़ा ही नहीं होगा. किस कदर दीनदयाल उपाध्याय ने भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद सत्ता के हर स्तर पर विकेन्द्रीकरण और स्वदेशी का प्रचार अपने प्रसिद्ध एकात्म मानववाद वाले व्याख्यानों में किया है. यह भी भाजपा अध्यक्ष बनने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधीवादी समाजवाद को पार्टी का नीति वाक्य बनाकर अपनाया था. इन्होंने सुना पढ़ा नहीं होगा.
गांधी की आत्मकथा, और हिन्द स्वराज, या नेहरू की विश्व इतिहास की झलक, भारत की खोज जैसी किताबों को छूने से ये लोग डरते हैं. सबसे युवा लेकिन बडे़ बुद्धिजीवी भगतसिंह का लेखन ऐसे लोग पढ़ लें, तो दुनिया को समझने उनकी आंखें खुल जाएं. दकियानूस बना दी गईं स्त्रियां भी प्लास्टिक की पिस्तौल से गांधी की आलोचना करते उनके चित्र पर गोलियां दागती देखी जाती हैं. निन्दा, अफवाह, चरित्र हत्या की बानगी को इतिहास कहा जा रहा है.
कठिन आर्थिक हालत के चलते अधिकांश युवजन के पास नौकरी और रोजगार नहीं हैं. निजी क्षेत्र इन्हें बेतरह प्रताड़ित करता रहता. तब भी पूरा वेतन नहीं देता. प्राध्यापक भी महाविद्यालयों में अध्यवसाय, उपलब्धि और प्रतिष्ठा का परचम कहां फहरा पाते हैं?
सजायाफ्ता या मुलजिम बने विधायक और सांसद देश की प्रज्ञा के कर्णधार हो गए हैं. अपने अपराधी स्वभाव और भ्रष्ट आचरण के चलते राजनीति को नाबदान बनाते रहने की उनकी कोशिशें पूरी असफल भी नहीं होतीं. आज़ादी के दौर के महान बौद्धिक सूरमाओं के उलट अब विधायकों के नाम पर विश्वविद्यालय बन रहे हैं. ऐसी हुकूमत से बौद्धिकता की कितनी उम्मीद की जा सकती है?
भारतीय विश्वविद्यालयों के नाम दुनिया की पहले दो सौ शिक्षण संस्थाओं में भी नहीं है. उच्च शिक्षा के लिए परिवार के आर्थिक हालत तक को तहसनहस कर विदेश जाना कुछ चुनिंदा जहीन बच्चों का आत्ममुग्ध करतब बन रहा है. पत्रकारिता, नागरिक आज़ादी, स्वास्थ्य, साक्षरता, आहार, पोषण जैसे तमाम इलाकों में भारत पूरी दुनिया में सबसे निचले स्तर तक फिसल गया है.
अस्सी करोड़ नागरिकों को हर महीने पांच किलो अनाज मुफ्त मिलना देश की तरक्की का पैमाना बन गया है. न्यायपालिका में काबिलियत के आधार पर जजों की चयन और नियुक्ति की प्रकिया इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि लगता है न्यायालय बेइंसाफी की मशीनरी बनाए जा रहे हैं. दुनिया के सबसे बडे़ कानूनों को एकजाई कर आईन बनाने में हमारे संविधान निर्माता रहे हैं.
आला दर्जे के बैरिस्टर भूलाभाई देसाई, मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, चितरंजन दास जैसे कितने इतिहास की खिड़कियों से आज की पीढ़ी को झांक रहे होंगे. हमारी आजादी की जंग के सूरमा यदि बुद्धिजीवी नहीं होते तो कुटिल अंगरेजों से वार्ता की टेबल पर हम ठगे जाते.
उन्होंने तालीम हासिल कर देश को आजाद करने अपनी जिंदगियां होम कर दीं. आज इने गिने जहीन विद्यार्थी विदेशों की चाकरी करना जीवन का मकसद समझते हैं. अपना एकल परिवार लेकर वहां बसकर वतन नहीं लौटना चाहते. मां बाप को बहुत ज्यादा हुआ, तो ओल्ड होम में भर्ती करा देते या मां बाप की सम्पत्तियां भी हड़पकर उन्हें मरने खपने छोड़ देते हैं.
अजीब दौर है. कुकुरमुत्ता बना अज्ञान उग रहा. मुंह छिपाता ज्ञान बिसूर रहा. बरगद, पीपल, नीम, अमरूद जैसी कदकाठी के हमारे पुरखों के बड़े पेड़ों की जगह बोनसाइ प्रजाति के कुछ साक्षर युवा हैं. बाकी खामख्याली में हैं कि वे अपनी शख्सियत के गमले में दुनिया के सबसे बड़े आलिम फाजिल बनकर बरबद जैसे पेड़ हथेली पर उगा लेंगे.