प्राकृतिक संशाधनों का अधिग्रहण क्यों?
बिलासपुर | जेके कर: भूमि अधिग्रहण का अर्थ प्राकृतिक संसाधन पर कब्जा कर लेने से है. राष्ट्रीय राजनीति में भूमि अधिग्रहण को लेकर खेमेबाजी जोरों पर है. मोदी सरकार के लिये यह प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है. वहीं, विपक्षी कांग्रेस इस मुद्दे पर भाजपा को मात देने की कोशिश में अपनी गोटियां फिट कर रहीं हैं. इन सब से दूर जिस किसान की भूमि अधिग्रहित की जानी है वह अलग-अलग राजनीतिक दलों के खेमों में अपने लिये जमीन तलाश रहा है. उसके बाद भी किसान की भूमि बच पायेगी की नहीं उसकी गारंटी देने वाला कोई नहीं है.
भूमि अधिग्रहण को समझने के लिये देश की वास्तविक आर्थिक हालात को समझने की जरूरत है. तमाम जीडीपी के विकास दर के दावों के बीच महंगाई इतनी है कि पेट काटकर परिवार चलाना पड़ रहा है. यह हालत किसानों की ही नहीं मध्यमवर्ग की भी है. जिस तुलना में महंगाई सुरसा के मुंह के समान फैल रही है उस परिणाम में न तो वेतन बढ़ रहा है और न ही महंगाई भत्ता मिल पा रहा है. महंगाई भत्ते की गणना न जाने किस गणित से की जाती है कि दो जमा दो, एक ही हो रहा है. कहना चाहिये कि आज के बाजारवाद के युग में अवाम की खरीदने की क्षमता लगातार घटती जा रही है.
दूसरी तरफ सरकार एवं निजी क्षेत्र देश के बेरोजगारों को रोजगार देने में अक्षम हैं. इन सब के बीच में पैसा कहां से आयेगा यह यक्ष प्रश्न सभी को परेशान कर रहा है.
ऐसे हालात में बड़े कारोबारियों के लिये अपना मुनाफा बरकरार रखने के लिये बिक्री बढ़ाना भी संभव नहीं है. इसका हल निकाला गया है कि प्राकृतिक संशाधनों पर कब्जा करके अपने परिसंपत्ति को बढ़ाया जाये. हमारे देश के लिये प्राकृतिक संशाधनों का अर्थ कोयला, पानी तथी कृषि योग्य जमीन है.
आज जो कांग्रेस भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रही है कल उसी ने देश के बहुमूल्य कोयले को पानी के भाव बड़े घरानों की मिल्कियत बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. आज जब एनडीए सरकार इसकी नीलामी कर रही है तो जिंदल जैसे घराने उसके नीलामी में फिक्सिंग करने से बाज नहीं आ रहें है.
हम बात कर रहें थे औने-दाम पर भूमि अधिग्रहण कर अपनी संपत्ति बढ़ाने की जिसमें दो फसली जमीने भी शामिल हैं. इससे कारोबारियों को दो फायदा होने जा रहा है. एक तो उनकी परिसंपत्ति में इज़ाफा हो रहा है दूसरे गांव में किसानों की जमीन ले लेने से वे बेरोजगारों की फौज में शामिल हो रहें हैं जो देर सबेर कम मेहताने पर उद्योगों में काम करने के लिये मजबूर हो जायेंगें. आखिरकार मुआवजा जितना भी मिल रहा हो उससे एक पीढ़ी का भी गुजारा नहीं चलने वाले जबकि जमीन पीढ़ियों से परिवार का पेट भरती आई हैं. मुआवजे की रकम फिर से उन कारोबारियों के पास दूसरे सामान जैसे टीवी, फ्रिज तथा विलासिता के सामान की खरीद में वापस चले जानी है.
छत्तीसगढ़ के भूमि अधिग्रहण का नमूना देख लीजिये. सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार, “मंत्रि-परिषद ने भू-अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम की धारा-10 पर विचार किया. विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया कि भू-अर्जन के प्रकरणों में राज्य को इकाई माना जाए और राज्य के कुल सिंचित बहु-फसली भूमि के कुल रकबे के मात्र दो प्रतिशत तथा कुल शुद्ध बोआई क्षेत्र के एक प्रतिशत का ही भू-अर्जन किया जाए.”
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ में करीब 57 लाख हेक्टेयर में कुल बुआई होती है. जिसका अर्थ है कि छत्तीसगढ़ में 142.5 लाख एकड़ भूमि में फसले उगाई जाती हैं. यदि इसके एक फीसदी को लिये गये निर्णय के अनुसार अधिग्रहित करने दिया जाये तो छत्तीसगढ़ में करीब 1.425 लाख एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जा सकेगा.
छत्तीसगढ़ में नदियों के पानी को किसानों की जमीन को सिंचित करने से पहले ही उद्योगों को दे दिया जा रहा है. जिसके लिये उद्योग पूरा भुगतान नहीं करते है. छत्तीसगढ़ में कई नदियों पर निजी जमींदारी दी जा रही है. निजी कंपनियों को मनमाना पानी उपलब्ध कराने के लिए नदियों पर बैराज बन रहे हैं. बैराज बनाते ही मूल धारा से पानी गायब हो जाता है. आम लोगों की जिंदगी मुश्किल होती जा रही है. अब राज्य की हर छोटी-बड़ी नदी पर बांध बनाए जा रहे हैं और इन नए बांधों का उद्देश्य सिंचाई के लिए पानी नहीं उपलब्ध कराना है बल्कि औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाना है. किसानों का पानी छीनकर औद्योगिक घरानों को जल सुरक्षा दी जा रही है.
छत्तीसगढ़ में पानी से जुड़ी सरकारी प्राथमिकताओं का यह बदलाव ग्रामीण इलाकों में कृत्रिम जल संकट पैदा कर रहा है. इस खतरनाक बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं. पानी की कमी के कारण छत्तीसगढ़ की उपजाऊ भूमि से फसल लेना मुश्किल होता जा रहा है. उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ के सबसे सिंचित जिला चांपा-जांजगीर में जिस तरह से पॉवर प्लांट खड़े किये जा रहें हैं, जमीन अधिग्रहित की जा रही है, उद्योगों को पानी दिया जा रहा है उससे आने वाले समय में फसले कम और प्रदूषण ज्यादा रहा जायेगा.
ऐसा नहीं है कि केवल हमारे प्रदेश या देश में ही प्राकृतिक संशाधनों पर कब्जा करने की मुहिम चल रही है. विदेशों में भी तेल को लेकर इसी तरह की जंग छिड़ी हुई है. साल 2012 में अमरीकी सेना की टुकड़िया सद्दाम हसैन के राज को नेस्तनाबूद करने के बाद वापस चली गई लेकिन वापस जाने से पहले उसने वहां के तेल के अकूत भंडार पर अमरीकी, ब्रितानी तथा फ्रांस की तेल कंपनियों की हुकूमत कामय कर दी थी. सवाल यह उठता है कि इराक युद्ध से किसने पाया और किसने खोया?
इस युद्ध का खर्चा किसने उठाया ? किसे जन हानि हुईं? यदि आप गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि दीवाल पर लिखा है- अमरीकी प्रशासन ने अमरीकी कर दाताओं के पैसे से ईराक पर कब्जा जमाया एवं अमरीकी तेल कंपनियों को फायदा पहुचाया. ये खरबों डालर आम अमरीकी जनता की गाढी कमाई से आया था लेकिन इनका युद्ध में निवेश कर तेल कंपनियां आज भी खरबों डालर कमा रही हैं.
उद्योग जरूरी हैं परन्तु किसानों की उपजाऊ भूमि का अधिग्रहण करके यदि इनकों लगाया जाता है तो आने वाले समय में इससे देश के सामने ऐसा खाद्य संकट उत्तपन्न हो जायेगा जिसकों हल करना मुश्किल होगा.
प्राकृतिक संशाधनों का प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने का नतीजा देश के लिये भयावह होगा. इससे एक तरफ तो गरीबी बढ़ेगी दूसरे तरफ कुछेक घरानों की संपत्ति में अकूत इजाफ़ा होने जा रहा है. भूमि अधिग्रहण का सामाजिक-आर्थिक पहलू यही है.
मामला कुल मिलाकर व्यवस्था का है. इसके पास लोगों को रोजगार मुहैया कराने की कूवत नहीं है, वेतन देने की औकात नहीं है, शिक्षा तथा स्वास्थ्य को इसने एक महंगे जिंस के रूप में तब्दील कर दिया है. जिसे खरीदना हर किसी के वश की बात नहीं है. यह तो केवल प्राकृतिक संसाधनों का अधिग्रहण कर हालिया तौर पर अपनी भूख मिटा रहा समस्या का स्थाई समाधान इसके पास नहीं है. कुल मिलाकर व्यवस्था गर्भवती महिला के शरीर के समान बेढ़ंगा हो गया है जो नये के जन्म का पूर्व संकेत है.