प्रसंगवश

एक्जिट पोल का सच

दिवाकर मुक्तिबोध
स्पष्ट बहुमत के साथ तीसरी बार सरकार बनाने का मुख्यमंत्री रमन सिंह का दावा क्या सच साबित होगा? चुनाव पूर्व एवं चुनाव के बाद हुए सर्वेक्षणों पर गौर करें तो ऐसा संभव प्रतीत हो रहा है. राज्य में चुनाव आचार संहिता लागू होने के पहले कुछ न्यूज चैनलों के एवं भाजपा के अपने सर्वेक्षण तथा मतदान के बाद हुए सर्वेक्षणों से यह बात उभरकर सामने आई कि लगभग 50-53 सीटों के साथ भाजपा छत्तीसगढ़ में पुन: सत्तारूढ़ होने जा रही है.

मुख्यमंत्री ने राज्य में 11 नवम्बर को हुए भारी भरकम मतदान को देखते हुए विश्वास व्यक्त किया था कि उनकी हैट्रिक तय है. लेकिन यही दावा पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी सहित राज्य के वरिष्ठ कांग्रेस नेता भी कर रहे हैं. एक्जिट पोल के नतीजे आने के बावजूद वे अपने दावे पर कायम हैं. जाहिर है किसके दावे में कितना दम है, यह दो दिन बाद, 8 दिसम्बर को होने वाली मतगणना से स्पष्ट हो जाएगा.

जहां तक चुनाव सर्वेक्षणों की बात है, वे केवल संकेत देते हैं. वे एकदम सच नहीं होते किंतु जिज्ञासुओं को सच के काफी करीब ले जाते हैं. इन सर्वेक्षणों से यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि किस पार्टी को बहुमत मिल रहा है तथा कौन सी पार्टी चुनाव हार रही है. हालांकि विभिन्न न्यूज चैनलों एवं सर्वेक्षण एजेंसियों के इस संयुक्त उपक्रम में आंकड़ों का भी काफी अंतर होता है.

मसलन इंडिया-टुडे-ओआरजी सर्वे छत्तीसगढ़ में भाजपा को कुल 90 में से 53 सीटें दे रहा है यानी सरकार बनाने लायक बहुमत से 7 सीटें ज्यादा. यह आंकड़ा पिछले चुनाव से भी 3 अधिक है. एक और न्यूज चैनल न्यूज 24 टुडेज-चाणक्य भी इसी आंकड़े के करीब है. वे भाजपा को 51 सीटें दे रहे हैं और कांग्रेस को 39. लेकिन कुछ अन्य सर्वेक्षणों मसलन टाइम्स नाउ, इंडिया टीवी, आईबीएन-सीएसडीएस – द वीक आदि के नतीजों पर गौर करें तो भाजपा और कांग्रेस के बीच सीटों का बहुत ज्यादा फासला नहीं है. बल्कि पिछले चुनाव के मुकाबले यह अंतर घटा है.

पिछले चुनाव में भाजपा को 50 एवं कांग्रेस को 38 सीटें मिली थीं. अब 2013 के एक्जिट पोल दोनों के बीच महज 4-5 सीटों का अंतर बता रहे हैं. यदि इन सर्वेक्षणों को सच के नजदीक माने तो दोनों पार्टियों को सरकार बनाने लायक बहुमत यानी 46 सीटें नहीं मिल रही हैं. ये सर्वेक्षण बसपा और निर्दलियों को 3 से 5 सीटें दे रहे हैं. यदि ऐसा है तो इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों पार्टियों को सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ का सहारा लेना पड़ेगा.

जो पार्टी दो-तीन विधायकों का विश्वास जीत लेगी, वह सरकार बनाने में कामयाब हो जाएगी. चूंकि जोड़-तोड़ की राजनीति में भाजपा से कहीं ज्यादा कांग्रेस के खिलाड़ी माहिर हैं, इसलिए यदि ऐसी नौबत आई तो पार्टी की उम्मीदें पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर टिक जाएंगी जिन्होंने सन् 2000 से 2003 के अपने कार्यकाल में भाजपा के एक दर्जन विधायकों को तोड़कर तहलका मचा दिया था.

छत्तीसगढ़ में इस बार 77 प्रतिशत रिकार्ड मतदान हुआ है. यद्यपि भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी किंतु एक दर्जन से ज्यादा निर्वाचन क्षेत्रों में बसपा, छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने चुनाव समीकरणों को बिगाड़ रखा है. हालांकि चैनलों के चुनाव सर्वेक्षण इन पार्टियों को ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं किंतु इनकी उपस्थिति दोनों पार्टियों की संभावनाओं को क्षीण जरूर करती है.

इसके बावजूद उम्मीद की जा रही है कि 2008 के चुनाव की तुलना में इस बार उनकी उपस्थिति कुछ ज्यादा होगी. यह 5-6 हो सकती है. पिछले चुनाव में एक भी निर्दलीय नहीं जीत पाया था जबकि दो सीटें बसपा को मिली थीं.

चुनाव सर्वेक्षणों के आंकड़ों पर यकीन करें तो यह बात भी सिद्ध होती है कि छत्तीसगढ़ में 77 प्रतिशत मतदान सत्ता के विरोध में नहीं, सत्ता के पक्ष में जा रहा है. इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि डॉ.रमन सिंह की उज्जवल छवि एवं उनकी जनकल्याणकारी नीतियां, विशेषकर गांव-देहातों में दो रुपए किलो चावल का जादू अभी भी चल रहा है. सन् 2008 के चुनावों में इसी जादू ने काम किया था तथा रमन सिंह को दूसरी बार सत्ता सौंप दी थी. उनकी राजनीतिक बाजीगरी का असर फीका नहीं पड़ा है.

भाजपा को बहुमत मिलने की स्थिति में यह स्पष्ट हो जाएगा कि राज्य के मतदाताओं को विकास का मुद्दा भाया है तथा उन्होंने रमन के नेतृत्व पर विश्वास व्यक्त किया है.

बहरहाल सर्वेक्षणों के नतीजों से भाजपा में उत्साह का माहौल है. होना भी चाहिए क्योंकि 5 में से 4 राज्य विधानसभा चुनावों में पार्टी को बढ़त मिलने का अनुमान है. फिर भी आशंकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि आखिरकार सर्वे के नतीजे अनुमानित हैं. इसलिए इसके आधार पर यह माना जा सकता है कि राज्य में भाजपा या तो बहुमत हासिल कर लेगी या कुछ पीछे रह जाएगी. यानी मुख्यमंत्री रमन सिंह की हैट्रिक उम्मीद और नाउम्मीद के बीच झूल रही है. देखें क्या होता है, फैसले की घड़ी ज्यादा दूर नहीं है.

*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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