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ओह पूर्वजों हम तुम्हें विकृत कर रहे हैं

कनक तिवारी
नए भारत की बुनियाद में मील के कई पत्थर गड़े हैं. इन्हें वक्त की जंग नहीं लगेगी. इनमें चट्टान जैसी दृढ़ता, नदी जैसा वैचारिक प्रवाह, साधु संत जैसा मन और आकाश जैसी ऊंचाई है.

इन जैसे महापुरुष नहीं होते तो हिंदुस्तान का समकालीन चेहरा खुद विकृत हो जाता. ये कालजयी वीर इतिहास के संकुल समय के योद्धा हैं. उन्होंने मुश्किल परिस्थितियों में संघर्ष किया. कुछ ने शहादत भी पाई. उनके करम ऐसे नहीं थे कि गुमनामी की खंदकों में दफ्न हो सकते.

कालक्रम से उन्नीसवीं सदी के छठे दशक में रवीन्द्रनाथ टैगोर, (1861), विवेकानन्द, (1863) और मोहनदास करमचंद गांधी, (1869) हुए. उन्होंने भारत के इतिहास और दुनिया के नजरिए पर अपना मौलिक और स्थायी असर डाला. टैगोर विश्व कवि होने की सीमा तक उभरे.

विवेकानन्द विश्व मानव हो गए. गांधी ने अचूक नई वैश्विक दृष्टि दी. इन जैसे बड़े नामों ने देश की चुनौतियों का बोझ कांधों पर उठाए रक्खा.

कुछ ही वर्षों बाद अरविन्द घोष, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. भीमराव अंबेडकर, सरदार वल्लभभाई पटेल और सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह जैसे कई कालजयी विचारक नेता हुए.

बागीचे के फूलों के गुलदस्ते की तरह सब फूल अलग रंग और सुगंध के हुए. उनका संयुक्त अक्स लेकिन व्यापक भारतीय जेहन में तिरता गया.

उन्होंने कभी भी हिन्दुस्तान को जाति, धर्म, प्रदेश, व्यवसाय वगैरह के खांचों में नहीं बांटा. उनके लिए अतीत से भविष्य के वक्त का महासागर जनसैलाब की तरह था.

ये जहां होते कुतुबनुमा की सुई की तरह समस्याओं का उत्तर उनसे तय होने लगता. उनमें समय के परे जाकर भविष्य को परखने की कूबत थी.

मौजूदा समय पीछे देखे तो उनकी कालजयी आवाजें वक्त के बियाबान में गूंजती हुई हर मनुष्य की आत्मा में सुनाई पड़ती हैं.

दुख यही है उनका उत्तराधिकारी जमाना न केवल उनका अवमूल्यन कर रहा है बल्कि उन्हें विकृत करने पर तुला है. विवेकानन्द थे जिन्होंने शिकागो के धर्म सम्मेलन में छाती ठोककर कहा कि दुनिया में केवल भारत है जिसकी गोद में संसार के सभी मजहबों के लोग शांति और भाईचारा बनाकर सदियों से रहते हैं.

रामकृष्ण मिशन की स्थापना के पीछे विवेकानन्द को ईसा मसीह का आया सपना कारक कहा जाता है. उन्होंने अपने दोस्त मोहम्मद सरफराज हुसैन को लिखे पत्र में कहा था जिस दिन वेदांत का मन और इस्लाम की देह एक हो जाएं वह इंसानियत की उदय का दिन होगा.

तुर्रा यह है कि विवेकानन्द की मूर्तियां, कैलेन्डर, पोस्टर और पेंटिंग वाली संस्थाएं कहती फिर रही हैं गर्व से कहो हम हिन्दू हैं. यह अकेला वाक्य विवेकानन्द ने कभी नहीं कहा.

उन्होंने कहा गर्व से कहो भारत का हर मुफलिस, दुखी, भिक्षुक, कमजोर, दलित, पीड़ित सब मिलकर हिन्दू हैं. केवल ऊंची जातियों के लोग नहीं. विवेकानन्द धार्मिकता के प्रतीक बनाकर हिन्दुत्व के आंगन में परोसे जा रहे हैं.

डॉ. अंबेडकर दलितों का जीवन सुधारने संविधान की रचना प्रक्रिया से जूझते रहे. उन्होंने दलितों के सवालों पर गांधी तक की मुखालफत की. बाद में दोनों वैचारिकों में सहमति भी बनी.

डॉ. अंबेडकर को संदर्भ से हटाकर कथित मुस्लिम विरोधी विचारों का प्रतीक बनाकर सियासी शोषण करने का मौका नहीं छोड़ा जा रहा है. कोई नहीं पूछता किस वजह से लाखों अनुयायियों के साथ बाबा साहब बौद्ध धर्म में चले गए. संविधान में आरक्षण के प्रावधानों को लेकर कुछ लोग उनकी आलोचना करते हैं.

संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अंबेडकर नहीं होते तो वैसी दिमागी वर्जिश करने वाला गांधी और नेहरू को कोई दूसरा नहीं दीखा था.

यही हाल भगतसिंह का है. वे नास्तिक और साम्यवादी बौद्धिक थे. पिस्तौल लटकाती उनकी छवि भगतसिंह का अर्थ बनाई जा रही है. भगतसिंह हिंसक राजनीति में विश्वास नहीं करते थे.

भगतसिंह के आर्थिक विचारों का पारा किसी भी विचारधारा की तलहटी तक पहुंच जाता है. उसे जज्ब या स्वीकार करना किसी के लिए संभव नहीं हो रहा है.

गांधी तो आलू की तरह रसोई में हर सब्जी के काम आ जाते हैं.

उनके रचनात्मक कार्यक्रम में केवल सड़कों और शौचालय की सफाई को गांधी होने का अर्थ बनाया जा रहा है. उनकी वज्र जैसी हड्डी ने ब्रिटिश हुकूमत की संगीनें भोथरी कर दीं.

वे पहले करिश्माई नेता थे जिन्होंने अहिंसा को सार्वजनिक जीवन का सात्विक लेकिन जिद्दी विचारमूलक हथियार बना दिया. गुरु गोखले और शिष्य जवाहरलाल ने भी उनसे वैचारिक मतभेद रखा.

गांधी को मिलेनियम पुरुष बना दिया गया है. उनके हत्यारे को भी मंदिर में प्रतिष्ठित करने के लायक बनाया जा रहा है. विदेशी अतिथियों को भरमाया जाता है कि गांधी की आत्मा राजघाट की समाधि में रची बसी है. गांधी तो हिंदुस्तान की छोड़छुट्टी कर कब से चले गए.

सुभाष बोस का तेज सूरज की तरह था. उनसे राजनीतिक गलतियां भी हुई होंगी. उनका साहस ज्वालामुखी की तरह था. इतिहास में उनके साथ बहुत अन्याय भी किया गया है. उनकी यादों को खंगालने के लिए नेहरू परिवार की बखिया उधेड़ना जरूरी नहीं है. ऐसा कोई तथ्यात्मक विवरण या साक्ष्य मिलने से भी रहा.

सवाल यही है कि देश के इन जैसे सभी निर्माता तस्वीरों की फ्रेम में वक्त की दीवार पर टंग जाने के लिए पैदा नहीं हुए. वे मानसिक, वाचिक, कायिक और आत्मिक प्रयोगों के कुशल अन्वेषक हैं.

देश है कि उनके रास्ते पर नहीं चल रहा. मौजूदा नेताओं में इतना दम नहीं कि उनकी नसीहतों को कारगर बनाएं. मौजूदा पीढ़ी केवल आरती उताने का काम कर रही है. भजन कीर्तन कर रही है. उनकी पूजा के एवज में सारा प्रसाद खुद खा लेती है.

इन सबकी आंखों में करोड़ों वंचितों के लिए उमड़े आंसू, शोषण के खिलाफ शोले बन गए थे.

वह ताब मौजूदा राजनयिकों के चरित्र में कहां है. इलाही वे सूरतें किस देश बसतियां हैं. जिनके देखने को आंखें तरसतियां हैं.

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