छत्तीसगढ़ में कोयला खनन: दो रिपोर्ट, दो सिफारिश और सरकारी खेल
आलोक प्रकाश पुतुल
क्या छत्तीसगढ़ में, पर्यावरण और वन्यजीवों को लेकर शोध संस्थाओं की चेतावनी को हाशिये पर रखते हुए कोयला खनन को मंजूरी दी जा रही है? भारतीय वन्यजीव संस्थान की ताज़ा रिपोर्ट के बाद यह सवाल एक बार फिर से चर्चा में है.
इस रिपोर्ट में हसदेव अरण्य के इलाके में कोयला खदानों को मंजूरी नहीं देने की अनुशंसा करते हुए कहा गया है कि अगर यहां कोयला खनन का काम शुरु हुआ तो इलाके में मानव-हाथी संघर्ष को रोक पाना असंभव होगा.
भारतीय वन्यजीव संस्थान ने हसदेव अरण्य को ‘नो गो’ इलाका घोषित करने का भी सुझाव दिया है.
लेकिन इस रिपोर्ट में दिए गये सुझावों की अनदेखी करते हुए राज्य सरकार ने इसी इलाके की परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान को मंजूरी देने की न केवल सिफारिश की, बल्कि केंद्र सरकार की वन सलाहकार समिति की बैठक में नोडल अधिकारी को भेज कर, भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद देहरादून की मसौदा रिपोर्ट को ही अंतिम रिपोर्ट मानने की जानकारी दी. इस आधार पर हसदेव अरण्य में राजस्थान सरकार को आवंटित परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान की अंतिम वन स्वीकृति को मंजूरी देने की प्रक्रिया भी शुरु कर दी गई.
यहां तक कि भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद देहरादून की रिपोर्ट के आधार पर वन सलाहकार समिति की बैठक के बिना ही 21 अक्टूबर 2021 को वन एवं पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने एक और कोयला खदान, परसा की अंतिम वन स्वीकृति भी जारी कर दी.
असल में छत्तीसगढ़ के सरगुजा वन क्षेत्र के 1898.328 हेक्टेयर इलाके को परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान के लिए 6 जुलाई 2011 को भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने प्रथम चरण की वन स्वीकृति जारी की थी.
हालांकि इससे पहले 23 जून 2011 को वन सलाहकार समिति ने इसके प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था. इसके बाद 15 मार्च 2012 को अंतिम चरण की वन स्वीकृति भी जारी कर दी गई. लेकिन इस इलाके में कोयला खदान के ख़िलाफ़ पहले से ही आंदोलन कर रहे ग्रामीणों ने इस स्वीकृति का भारी विरोध किया और मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल तक जा पहुंचा.
बिलासपुर के अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव की याचिका पर 2014 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को आदेश दिया था कि वह हसदेव अरण्य वन क्षेत्र की जैव विविधता का अध्ययन करने के बाद कोयला खदान की स्वीकृति पर निर्णय ले. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने वन सलाहकार समिति को किसी भी आधिकारिक स्रोत जैसे देहरादून स्थिति भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद या फिर भारतीय वन्यजीव संस्थान से सलाह या विशेष जानकारी प्राप्त करने की स्वतंत्रता दी.
इसके बाद 19 दिसंबर 2017 को वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने केते एक्सटेंशन कोल खदान के 1745.883 हेक्टेयर वन क्षेत्र की मंजूरी देते हुए यह शर्त रखी कि छत्तीसगढ़ सरकार पूरे हसदेव अरण्य कोल क्षेत्र की जैव विविधता का अध्ययन कराएगी. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने यह अध्ययन भारतीय वन्यजीव संस्थान के परामर्श से भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद, देहरादून द्वारा कराये जाने का निर्देश जारी किया.
2 जनवरी 2018 को छत्तीसगढ़ वन विभाग के प्रधान मुख्य वन संरक्षक ने पत्र के द्वारा वन्यजीव के पहलुओं पर भारतीय वन्यजीव संस्थान से परामर्श लेकर, पूरे अध्ययन का समन्वय करने के लिए नोडल एजेंसी के रूप में भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद को जिम्मेदारी दी. साथ में भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद और भारतीय वन्यजीव संस्थान से एक संयुक्त प्रस्ताव मांगा और इस संयुक्त प्रस्ताव के बाद अध्ययन की शुरुआत हुई. पिछले महीने ही यह रिपोर्ट छत्तीसगढ़ सरकार को सौंपी गयी.
उससे पहले भारतीय वन्यजीव संस्थान ने अपनी रिपोर्ट भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद को सौंपी. हालांकि दोनों में से कोई भी रिपोर्ट या उसके हिस्से, राज्य सरकार ने अपनी ओर से अब तक सार्वजनिक नहीं किए हैं.
क्या कहती है रिपोर्ट?
भारत में उपलब्ध 32649.563 करोड़ टन कोयला भंडार में से 5990.776 करोड़ टन कोयला यानी लगभग 18.34 फ़ीसदी छत्तीसगढ़ में है. यहां सर्वाधिक कोयले का उत्पादन होता है.
छत्तीसगढ़ के 184 कोयला खदानों में से, 23 कोयला खदान हसदेव-अरण्य के जंगल में हैं. 1,70,000 हेक्टेयर में फैले इसी हसदेव अरण्य के इलाके में भारतीय वन्यजीव संस्थान ने दो सालों तक अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट तैयार की है.
हसदेव अरण्य के इलाके में हाथियों के रहवास का उल्लेख करते हुए भारतीय वन्यजीव संस्थान की 277 पन्नों की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि देश के केवल 1 फीसदी हाथी छत्तीसगढ़ में हैं लेकिन देश में मानव-हाथी संघर्ष की 15 फ़ीसदी से अधिक घटनाएं यहां दर्ज की गई हैं. हर साल लगभग 60 से अधिक लोग मानव-हाथी संघर्ष में मारे जा रहे हैं और फसल व संपत्ति के नुकसान की स्थिति गंभीर है.
अध्ययन के दौरान इस इलाके में पक्षियों की 92 प्रजातियां मिली हैं. इनमें कई प्रजातियां गंभीर संकटग्रस्त और लुप्तप्राय हैं. रिपोर्ट में ई-बर्ड के हवाले से कहा गया है कि जिस सूरजपुर, सरगुजा और कोरबा के इलाके में हसदेव अरण्य कोयला खदान हैं, वहां पक्षियों की 406 प्रजातियां पाई जाती हैं. इस रिपोर्ट में उस इलाके में बाघों की उपस्थिति का ज़िक्र भी किया गया है. यहां 23 प्रजाति के सरीसृप और 43 प्रजाति की तितलियां मिलती हैं. यहां अध्ययन के दौरान 31 प्रजाति के स्तनपायी जीव भी मिले हैं, जिनमें से 8 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस इलाके में परसा ईस्ट केते बासन कोयला खदान है, वह दुर्लभ और संकटग्रस्त जीवों का इलाका है. इसके अलावा यह इलाका भोरमदेव वन्यजीव अभयारण्य, अचानकमार टाइगर रिज़र्व और कान्हा टाइगर रिज़र्व से जुड़ा हुआ है.
इस रिपोर्ट के अनुसार यहां 74 प्रजाति के वृक्ष, 41 प्रजाति के छोटे वृक्ष, 32 प्रजाति के औषधीय पौधे व घास, 11 प्रजाति की लताएं और 11 काष्ठ लताओं की प्रजाति मिलती है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि हसदेव अरण्य और उसके आसपास मुख्य रुप से आदिवासी बसते हैं, जिनकी आजीविका वन संसाधनों पर निर्भर है. हर महीने की आय में केवल लघु वनोपज का ही 46 फ़ीसदी योगदान होता है. स्थानीय समुदाय की कुल वार्षिक आय का 60 से 70 फ़ीसदी वन आधारित है.
दो रिपोर्ट, दो कहानियां
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद ने भी अक्टूबर के महीने में छत्तीसगढ़ सरकार को जो मसौदा रिपोर्ट सौंपी, उसमें विस्तार से हसदेव अरण्य क्षेत्र के संरक्षण सहित खनन के गंभीर दुष्परिणामों को लेकर चेतावनी दी गई थी.
लेकिन तमाम चेतावनियों के बाद भी इस मसौदा रिपोर्ट में अनुशंसा की गई कि परसा ईस्ट केते बासन कोल ब्लॉक में खनन चल रहा है और परसा की स्वीकृति एडवांस स्टेज में है, इसलिए चार कोयला खदानों में विशेष शर्तो के साथ नियंत्रित खनन हो सकता है.
आनन-फानन में इस मसौदा रिपोर्ट को ही अंतिम रिपोर्ट बता कर केंद्रीय वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को सौंपा गया, जिसके आधार पर परसा कोल खदान की अंतिम वन स्वीकृति जारी करने की प्रक्रिया भी शुरु कर दी गई.
जिस याचिका के आधार पर हसदेव अरण्य की जैव विविधता व अन्य बिंदुओं पर अध्ययन किया गया, उसके याचिकाकर्ता सुदीप श्रीवास्तव सरकार की इस कार्यवाही को लेकर चकित हैं.
सुदीप श्रीवास्तव ने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “वन्यजीवों पर अध्ययन के लिए भारतीय वन्यजीव संस्थान अधिकृत और प्राथमिक अध्ययन संस्थान है. वन्यजीव संस्थान ने जितनी गंभीर चेतावनी दी है, उसके बाद हसदेव अरण्य के इलाके में तो खनन को मंजूरी दी ही नहीं जा सकती. लेकिन भारतीय वन्यजीव संस्थान की अनुशंसा की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए, कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए और नए कोयला खदान को मंजूरी दे दी गई है. यह भयावह है.”
हालांकि राज्य सरकार के पास अपना तर्क है.
वन विभाग की ओर से मोंगाबे हिंदी को दिए गए एक लिखित बयान में कहा गया है कि “राज्य सरकार द्वारा भारतीय वन्यजीव संस्थान को किसी भी रिपोर्ट हेतु कार्य आबंटित नहीं किया गया था. भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद द्वारा भारतीय वन्यजीव संस्थान से वन्यप्राणी से संबंधित सीमित बिंदुओं पर संक्षिप्त प्रतिवेदन आंतरिक रिपोर्ट के माध्यम से चाहा गया था. परंतु केवल उन्हीं बिंदुओं पर, जिन पर अंतिम रुप से सहमति बनी, उसे ही विस्तृत रिपोर्ट में शामिल करते हुए राज्य शासन को आवश्यक कार्यवाही हेतु भेजा गया.”
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहे छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन और हसदेव अरण्य बचाओ आंदोलन से जुड़े आदिवासियों ने अक्टूबर में हसदेव से रायपुर तक की पदयात्रा की थी. 300 किलोमीटर की पदयात्रा कर रायपुर पहुंचे लोगों ने राज्यपाल और मुख्यमंत्री से मुलाकात कर हसदेव अरण्य में किसी भी तरह की खनन अनुमति पर प्रतिबंध की मांग की थी.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला सवाल उठाते हैं कि भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद ने भारतीय वन्यजीव संस्थान की सिफारिशों की अनदेखी के लिए ऐसे कौन से तथ्य पाए कि उसने चार कोयला खदानों को मंजूरी देने की अनुशंसा की? इसके अलावा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने जिन बिंदुओं पर अध्ययन के लिए निर्देश दिए थे, उसके बजाय “कोयले की मांग” जैसे मुद्दों की आड़ लेने की ज़रुरत क्यों लेनी पड़ी?
आलोक शुक्ला कहते हैं, “कोयले की मांग पर विचार करते समय भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद ने कोल इंडिया की कोल-विज़न 2030 रिपोर्ट को देखने की ज़रुरत क्यों नहीं समझी, जिसमें कहा गया है कि नए कोयला खदानों के आवंटन की आवश्यकता नहीं है.”
वे कहते हैं, “भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट की अनदेखी करते हुए कोयला खनन की अनुमति दिया जाना, हसदेव अरण्य के आदिवासियों के साथ धोखा है. जानते-बूझते हुए छत्तीसगढ़ को विनाश की तरफ़ धकेला जा रहा है, जिसका दुष्परिणाम पूरे मध्यभारत को भुगतना पड़ेगा.”
हसदेव अरण्य के इलाके से चुन कर आने वाले राज्य के स्वास्थ्य और पंचायत मंत्री टीएस सिंहदेव पिछले कुछ महीनों से बार-बार यह मांग करते रहे हैं कि इस पूरे इलाके को ‘नो गो’ इलाका घोषित कर के यहां किसी भी तरह की खनन पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया जाए.
टीएस सिंहदेव कहते हैं, “भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट ‘नो-गो’ के रुख की पुष्टि करती है, जो हसदेव क्षेत्र को बचाने का एकमात्र तरीका है. मैं चाहता हूं कि इन सुझावों को नीतिगत निर्णयों के रूप में लागू किया जाए, जैसा कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासनकाल में किया गया था.”
क्या छत्तीसगढ़ की सरकार अपने ही मंत्री टीएस सिंहदेव की आवाज़ सुनने के लिए तैयार है?
मोंगाबे से साभार