ओ आत्मन् !
कनक तिवारी
मुक्तिबोध को सबसे पहले 1958 में साइंस कॉलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में मैंने देखा सुना था. ललित मोहन श्रीवास्तव के अध्यक्ष तथा ऋषिकुमार तिवारी के सचिव पद की समिति का मैं कक्षा-प्रतिनिधि बनाया गया था. ललित मोहन श्रीवास्तव बाद में भौतिकशास्त्र के प्राध्यापक बने. मूलतः वे कवि थे.
उनका काव्यसंग्रह ‘दीपक राग नए‘ शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ. राजनांदगांव निवासी ऋषिकुमार तिवारी छात्र जीवन में धोती कुरता की पोशाक के कारण भीड़ से अलग होते थे. वे भी एक अच्छे कवि थे.
विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए मुक्तिबोध का यश पूरी तौर पर अजूबा और अपरिचित था.
मुक्तिबोध के प्रति ललित मोहन श्रीवास्तव की भक्ति इस कदर थी कि समिति को आवंटित कुल जमा सौ रुपयों में पचहत्तर रुपयों की राशि उद्घाटन कार्यक्रम में ही खर्च हो गई. उसमें से मुक्तिबोध को यथासम्भव पारिश्रमिक भी दिया गया.
हलके रंग का सूती कोट पहने मुक्तिबोध ने गंभीर मुद्रा के अपने भाषण के बाद एकल काव्यपाठ भी किया. विज्ञान के विद्यार्थियों के कारण ‘मुर्गी अपनी जान से गई लेकिन खाने वालों को मज़ा नहीं आया‘ वाला मामला हुआ.
कोई छः वर्ष बाद मैं बालाघाट के शासकीय महाविद्यालय में ललित मोहन श्रीवास्तव का प्राध्यापकीय सहकर्मी बना. तब तक मुक्तिबोध से परिचय और आत्मीयता का दौर प्रगाढ़ होकर उनके निधन के कारण खत्म भी हो गया था. कविता लिखने से मेरा बैर रहा है. कवियों को सुनना अन्यथा अच्छा लगता रहा.
बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं कविता नहीं लिख पाया. मुक्तिबोध के निधन का समाचार मुझमें भूकंप रच गया. मुक्तिबोध की यादें धूमिल होकर भी गुम नहीं हो सकीं. उनके व्यक्तित्व का असर जिस पर भी पड़ा, स्थायी हुआ है.
यह बख्शी जी थे जिन्होंने मेरे खिलाड़ी पिता को मार-मार कर मैट्रिक पास करने पर मजबूर किया जो अन्य किसी अध्यापक के बूते की बात हो ही नहीं सकती थी.
वह मेरे पिता के मास्टर जी थे जिनका मैं सहकर्मी बना और दिग्विजय महाविद्यालय के अध्यापक कक्ष को उनकी तथा मुक्तिबोध की मौजूदगी में हमने एक गप्पखाने में परिवर्तित कर दिया था.
बख्शी जी और मुक्तिबोध ने अपनी आत्मा के लोहारखाने में बैठकर तर्क, संवेदनशीलता, अध्यवसाय और रचनाधर्मिता के अनेक नये औजार गढ़ने के प्रयास किये थे.
बख्शी जी का कथा साहित्य आज कितना सामयिक, प्रासंगिक और स्वीकार्य है- कहा नहीं जा सकता. वह साहित्य केवल उपादेय है लेकिन इतना कहना भी पर्याप्त नहीं है.
प्रेमचंद अपना विपुल कथा संसार लिये आज भी कथा साहित्य में अंगद चरण हैं. केवल तीन कहानियां लिखकर गुलेरी अमर हो गये हैं. ’पर्जन्यकुन्ड’, ’गदल’ और ’धरती अब भी घूम रही है’ जैसी महान कहानियां हम सबको याद हैं.
अंतर्मन के द्वन्द्व के साहित्य को मानवपिंड बनाकर मुक्तिबोध ने दिग्विजय महाविद्यालय को अपनी कहानी ’विपात्र’ में अमर कर दिया है. सब उसमें अपना चरित्र अब भी ढूंढ़ते हैं.
एक ओर बख्शी जी जैसे शास्त्रीय और दूसरी ओर मुक्तिबोध जैसे आधुनिक ने मेरे साथ-साथ सस्ती होटलों की चिकनाई भरी चीजें खाकर और अनगिनत कप चाय अपने जिस्म में उड़ेलकर सेहत का कबाड़ा भी किया था. बख्शी जी की याद आज मेरी सबसे बड़ी पूंजी तो है लेकिन उनके तथा मुक्तिबोध के जो चाय-नाश्ते के खर्च मैंने उठाये थे.
वह मुझ जैसे अदना आदमी के जीवन का सबसे सार्थक पूंजी निवेश भी है. मेरी सोच, मेरा लेखन बल्कि मेरा अस्तित्व उस पूंजी के ब्याज से ही प्रकाशवान है. मूलधन का हिसाब तो पुनर्जन्म में विश्वास करने वाले बख्शी से मैं कभी न कभी करूंगा, मुक्तिबोध तो इन चीजों को मानते ही नहीं थे, उनसे हिसाब कैसे होगा.
मुक्तिबोध और बख्शी दोनों को दिग्विजय महाविद्यालय की प्राध्यापकी के दिनों में मैंने अन्य आडम्बरों के बदले कागज से रोमांस करते देखा है. किसी भी नई कृति या बहुत दिनों से ढूंढ़ने पर नहीं मिल रही कृति को मेरे द्वारा दिए जाने पर उनमें बुढ़ापे में भी लजीलापन जैसे गालों की सुर्खियां बनकर दौड़ता था.
संस्कृत कॉलेज रायपुर के पुस्तकालय से मेरे द्वारा लाई गई मिल्टन की ’पैराडाइज लॉस्ट’ की आलोचना पुस्तकों को पढ़कर बख्शी जी और मुक्तिबोध रिटर्न गिफ्ट देने में अलग अलग तरह से अभिव्यक्त हुए. उनका अकेला श्रोता उस समय मात्र तेइस वर्ष का था.
मुक्तिबोध जहां एक-एक पढ़े गये अक्षर को अपनी प्रतिक्रिया के लिए सहेज कर रखते थे और इसलिए धीरे-धीरे अति बौद्धिक, दुरूह, जटिल और प्रयोगधर्मी हो गये, वहीं बख्शी जी ने एक-एक अक्षर को पढ़ा तो, लेकिन जो पसंद नहीं आया तो तुरन्त रफादफा किया. अपनी अतिशय विनम्रता में वह अक्सर कहते थे कि उन्हें मुक्तिबोध और अन्य समकालीन आधुनिक लेखकों की रचनाएं समझ नहीं आतीं.