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लालू की पॉलिटिक्स के मायने

सुदीप ठाकुर | फेसबुक : बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव आज यानी 11 जून को 72 वर्ष के हो रहे हैं. उनके जन्मदिन पर उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 72 हजार से अधिक गरीब लोगों को खाना खिलाने का एलान किया है. इसकी जानकारी पार्टी के नेता और उनके पुत्र तेजस्वी ने ट्वीटर के जरिये दी है. लालू खुद इस समय चारा घोटाले के मामले में झारखंड की एक जेल में सजा काट रहे हैं. ऐसे समय जब बिहार में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं, उनके जन्मदिन का यह आयोजन बताता है कि उनकी पार्टी को अब भी उनकी राजनीतिक विरासत पर भरोसा है.

आखिर क्या है उनकी राजनीतिक विरासत? फिर एक ऐसा नेता, जिसे भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया जा चुका हो, जो जेल में हो और लंबी अदालती लड़ाइयों तथा बीमारियों के कारण जिसके सक्रिय राजनीति में लौटने के कोई आसार भी नजर न आ रहे हों, उसके नाम पर लोग क्यों भरोसा करेंगे? ऐसे दौर में जहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह देश की राजनीति की धुरी बन गए हैं, और जिनकी रणनीतियों के आगे सारे सियासी समीकरण ध्वस्त हो जाते हों, लालू की राजनीति क्या मायने रखती है?

पांच दशक के सक्रिय राजनीतिक जीवन के जरिये लालू ने साबित किया है कि आप उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते. 1974 के जेपी आंदोलन से निकले लालू यों तो 1977 में जनता लहर में सवार होकर पहली बार लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन 1989-90 के दौर में वह एक अवधारणा की तरह उभरे. फरवरी 1988 में बिहार के महान समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद वह विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता चुने गए थे और यहीं से उनकी सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत हुई. मार्च, 1990 में महज 42 साल की उम्र में लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने थे और यह गोपालगंज से निकले एक चरवाहे के बेटे के लिए वाकई बड़ी उपलब्धि थी, जिसने भीषण गरीबी देखी थी. मुख्यमंत्री बनने के कई दिनों बाद तक भी वह वेटर्नरी कॉलेज के उसी सर्वेंट क्वार्टर में रहते थे, जहां उन्हें कभी उनके चपरासी भाई के पास पढ़ने के लिए भेजा गया था!

मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों में वह अचानक हेलीकॉप्टर से किसी गांव में उतर जाते थे और लोगों से सीधे संवाद करने लगते थे. उनकी आत्मकथा गोपालगंज से रायसीना में, मेरी राजनीतिक यात्रा (सह लेखक, नलिन वर्मा) के इस संवाद पर गौर कीजिएः

‘क्या लालू ने तुमको रोटी दी?’
‘नहीं.’
‘क्या उसने तुमको मकान दिया?’
‘नहीं.’
‘क्या उसने तुमको कपड़ा दिया?’
‘नहीं.’
‘तो फिर उसने तुम्हारे कल्याण के लिए क्या किया?’
‘जीवन में स्वर्ग सब कुछ नहीं होता. उन्होंने हमें स्वर दिया.’

मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू ने पहले दो काम किए, गरीबों से सीधा संवाद और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जातियों का गठजोड़. लालू ने इसके चलते अमूमन अमीर लोगों के लिए आरक्षित रहने वाले पटना क्लब को निचली जातियों के लोगों के शादी और अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों के लिए खुलवा दिया. ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोड़ने की दिशा में यह प्रतीकात्मक कदम था. इसके बाद अगले चरण में उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाया. यही वह दौर था, जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के बाद, जिसके एक वास्तुकार खुद लालू भी थे, भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर आंदोलन को उभारना शुरू किया था. 23 अक्तूबर, 1990 को बिहार में प्रवेश कर रही लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को लालू के निर्देश पर रोका गया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. यह मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का चरम था.

लालू ने अपने सियासी फायदे के लिए एमवाई (मुस्लिम-यादव गठबंधन) बनाया, जिसका लाभांश भी उन्हें मिला. लालू के आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि जेपी आंदोलन से निकले वह अकेले नेता हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता से कभी समझौता नहीं किया. यही वजह है कि भाजपा से उनकी पटरी कभी नहीं बैठी. जबकि नीतीश कुमार हों या रामविलास पासवान भाजपा के साथ कभी असहज नहीं रहे.

यह सवाल अब काल्पनिक है कि यदि लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी नहीं ठहराए जाते, तो बिहार और देश की राजनीति कैसी होती? वह भी ऐसे समय, जब संसद के भीतर और बाहर विपक्ष बिखरा हुआ है. हकीकत यही है कि चारा घोटाले के अनेक मामलों में उन्हें दोषी ठहराया जा चुका है और यह लड़ाई अभी काफी लंबी है. इतनी लंबी की उनकी सक्रिय राजनीति में वापसी असंभव लगती है.

अक्तूबर, 2013 में चारा घोटाले के मामले में दोषी ठहराए जाने के कारण लोकसभा से उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई थी और उन पर चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी गई. उनके साथ दोषी ठहराए गए जनता दल (यू) के जगदीश शर्मा की भी लोकसभा से सदस्यता खत्म हो गई थी. वास्तव में लालू उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले सजा हुई है और जिनकी लोकसभा या विधानसभा से सदस्यता रद्द हुई है, तथा जिनके चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गई.

इस मामले में समकालीन भारतीय राजनीति में लालू प्रसाद यादव की किसी अन्य राजनेता से तुलना हो सकती है, तो वह तमिलनाडु की दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता थीं, जिन्हें भी भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया गया, जिनकी वजह से उन्हें भी पद छोड़ना पड़ा था. हालांकि एक बड़ा फर्क यह है कि जयललिता राजनीतिक रूप से उस तरह से आज भी अस्वीकार्य नहीं हैं, जिस तरह से लालू प्रसाद यादव. बेशक, जयललिता अपनी अनुपस्थिति में आज भी तमिलनाडु में लोकप्रिय हैं, मगर लालू भी अपने उत्कर्ष में ऐसे ही लोकप्रिय थे.

लालू और जया दोनों का सियासी सफर एकदम जुदा रहा है और फिर हिंदी भाषी प्रदेश और तमिलनाडु की राजनीति में भी फर्क है.सबसे बड़ा फर्क तो यही है कि जयललिता से भारतीय जनता पार्टी को कभी परहेज नहीं रहा. तब भी जब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भ्रष्टाचार को लेकर ‘जीरो टालरेंस’ के दावे किए जाते हैं. जयललिता का अन्नाद्रमुक एनडीए का हिस्सा है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलनीस्वामी के दफ्तर में एमजी रामचंद्रन के साथ ही अम्मा यानी जयललिता की फोटो लगी हुई है. वास्तविकता यही है कि दिवंगत अम्मा आज भी अन्नाद्रमुक की सुप्रीम लीडर हैं.

लालू और जयललिता भ्रष्टाचार के अलग-अलग सियासी चेहरे हैं.

इसके बावजूद भ्रष्टाचार को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता. झारखंड की जेल में सजा काट रहे लालू प्रसाद यादव को अपने राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर से जुड़ा यह किस्सा याद आता होगा. पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने अपने बेटे रामनाथ को एक पत्र लिखा. पत्र का मजमून कुछ इस तरह से थाः ‘तुम इससे प्रभावित नहीं होना. कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में नहीं आना. मेरी बदनामी होगी.’

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