सोशल मीडिया में हार रही है भाजपा?
अनिल चमड़िया
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह से यह सुनना हैरानी भरा था, जब उन्होंने नई उम्र के लड़के लड़कियों को सोशल मीडिया के प्रचार पर ध्यान नहीं देने की सलाह दी. गुजरात में दूरदराज बैठे एक लाख से ज्यादा लड़के लड़कियों ने 11 सितंबर को वीडियो के जरिये उनसे सवाल दर सवाल पूछे और जब अमित शाह को लगा कि अपने जवाब से वे नई पीढ़ी को संतुष्ट नहीं कर पा रहे है तब उन्होंने मोबाईल के साथ रहने वाले उन लड़के लड़कियों को ये सलाह दी कि वाह्ट्स अप और फेस बुक जैसे सोशल मीडिया में उस तरह के प्रचार पर ध्यान नहीं दें, जो भाजपा के विरूद्ध होते हैं. जबकि उन्होंने मार्च महीने में अपने समर्थकों व कार्यकर्ताओं को ये सलाह दी थी कि वे सोशल मीडिया के जरिये लोगों के बीच पहुंच बनाए और नाकारात्मक प्रचार का जबाव दें.
अमित शाह के लिए मार्च और सितंबर के बीच एक बड़ा फर्क ये आया है कि विकास नाम के एक पात्र के जरिये गुजरात के विकास मॉडल का सोशल मीडिया पर माखौल उड़ रहा है. सोशल मीडिया पर “विकास” पागल हो गया है, “विकास” गड्डे में गिर गया, इस तरह की सामग्री को आसपास की जीवंत तस्वीरों के साथ आने वाली आकर्षित सामग्री को आपार समर्थन मिल रहा है. गुजरात के विकास मॉडल के सोशल मीडिया और दूसरे मीडिया पर प्रचार के रास्ते नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री की गद्दी मिली है.
मोबाईल के साथ अपनी जिंदगी का हर पल गुजारने वाले नई उम्र के लड़के लड़कियों को सोशल मीडिया पर गुजरात मॉडल के साथ नोटबंदी, जीएसएटी और बेरोजगारी से जुड़े तथ्य व तस्वीरों ने प्रभावित किया और उन्होंने प्रश्नों को नापसंद करने वाले पार्टी के शीर्ष नेता के सामने सवाल खड़े का साहस दिखाया तो सोशल मीडिया से दूर रहने की नसीहत उन्हें मिली.
नरेन्द्र मोदी की भाजपा-संघ की यह देन है कि भारतीय राजनीति में सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर अत्याधिक जोर बढ़ा है. राजनीतिक-सामाजिक छोटी-बड़ी बैठकों में बातचीत का एक बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया को लेकर होता है. यह तो अनुभव किया गया है कि भाजपा-संघ अपने राजनीतिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए शुरू से ही अपने प्रचार के लिए माध्यमों को सबसे ज्यादा अहमियत देता है. अफवाह प्रचार का ही एक रुप रहा है और बिना किसी मीडिया के भी उसका सांगठनिक ढांचा एक सफल प्रचार माध्यम के रुप में अपनी क्षमता को प्रमाणित कर चुका है.
यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि भाजपा-संघ के पास दूसरी राजनीतिक विचारधाराओं वाले संगठनों से कई गुना ज्यादा प्रचार का हुनर है और प्रचार के लगातार अभ्यास में रहने से प्रचार ही उसकी सबसे बड़ी सांगठनिक ताकत दिखती है. इंटरनेट जैसी तकनीक से उसके प्रचार ढांचे को स्वभाविक तौर पर एक समय तक इतना ज्यादा लाभ मिला कि उसे उछलने कूदने की जगह उड़ने के लिए पंख मान लिया. लोगों ने जल्दी ही इस तकनीक से जवाब देना सीख लिया.
ये एक तथ्य के रुप में सामने भी आया कि सोशल मीडिया पर प्रचार युद्ध के लिए भाजपा-संघ ने सेना तैयार कर ली है. उसके जरिये वे अपने विकास के मॉडल की एक ऐसी तस्वीर पेश करते हैं, जिसमें बुनियादी सवालों के बजाय साम्प्रदायिक भावनाओं को उभारने वाली सामग्री केन्द्र में होती है. साम्प्रदायिक निशाने के लिए इतिहास व समाज में लोकप्रिय पात्रों का खासतौर से चुनाव किया गय़ा जिससे मुस्लिम, ईसाई व कम्युनिस्ट विरोधी दिल दिमाग तेजी से तैयार करने में मदद मिल सके. अमीर खान के खिलाफ ट्रोल आर्मी यानी नई तकनीक के सैनिकों ने उन्हें खदेड़कर देश-निकाला देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी लेकिन यह राष्ट्रीय से स्थानीय स्तर पर दागों की तरह दिखने वाली ऐसे सैकड़ों घटनाओं में महज एक उदाहरण हैं.
नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद की कुछेक घटनाओं में एक महत्वपूर्ण घटना दिल्ली स्थित कंस्टीच्यूशन क्लब की चाहरदिवारी में देश भर से जमा हुए नई उम्र के लड़के लड़कियों का एक कार्यक्रम है, जो उस प्रदयुत चौधरी की देखरेख में आयोजित किया गया था, जिसने हाल ही में भाजपा के आई टी सेल के प्रमुख पद से इस्तीफा दे दिया. आईटी सेल की उस बैठक को अमित शाह ने संबोधित किया था. उस बैठक में अपने मोबाईल फोन के साथ बैठी नई पीढी को यह समझा दिया गया था कि संगठन और सरकार में जिम्मेदार कहलाने वाले लोग मनचाहे तरीके से सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं लेकिन बैठक में मौजूद लोग जवाबदेही के दायरे से मुक्त हैं.
नई सत्ता में सोशल मीडिया पर हमले का एक दौर देखा गया. जवाबदेही से मुक्त मशीनरी को हमले के लिए तैयार करना एक महत्वपूर्ण कार्यभार था. भाजपा-संघ को नापसंद करने वाले लोगों के भीतर सोशल मीडिया के जरिये हमले करने, गाली गलौज करने और एक डर भय का वातावरण बनता चला गया. कई शहरों में फेस बुक की पोस्ट को लाईक करने या शेयर करने पर भी उनके घरों पर हमले हुए और उनकी गिरफ्तारियां भी हुई. सोशल मीडिया भाड़े के सैनिकों द्वारा हत्याएं व हमलों की बानगी स्वाति चतुर्वेदी की पुस्तक आई एम ए ट्रॉल: इनसाइट द सेक्रेट वर्ल्ड ऑफ बीजेपी डिजीटल आर्मी में देखने को मिलती है.
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सोशल मीडिया के मालिकों के साथ मुलाकातों की तस्वीरे जारी होती रही ताकि डिजीटल सैनिक खुद को संरक्षित महसूस करें.
नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आने के अक्टूबर 2014 और सितंबर 2015 में फेस बुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग से मुलाकात की. सोशल मीडिया की ताकत का इससे आकलन किया जा सकता है. मार्क जुकरबर्ग का कहना है कि 1960 के दशक में टेलीविजन लोगों के बीच एक सशक्त माध्यम था लेकिन सोशल मीडिया का प्रभाव के प्रभाव को इस तरह से समझा जा सकता है कि दुनिया भर में जहां कहीं भी चुनाव हुए और उन चुनावों में जीत हासिल करने वालों की फेसबुक पर मजबूत मौजदूगी थी.
नरेन्द्र मोदी ने गूगल के मुख्य अधिकारी सुदंर पिचाई से भी अपनी करीबी दिखाई. सोशल मीडिया की राजनीति के लिए अहमियत को यह जाहिर करता है. मुज्जफरनगर के साम्प्रदायिक हमले से लेकर पश्चिम बंगाल तक की घटनाओं में डिजीटल आर्मी की कामयाबी को भी यहां याद किया जा सकता है. लेकिन कुछ ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सोशल मीडिया के जरिये जादू पैदा करने का दंभ ढीला पड़ रहा है.
भाड़े के डिजीटल सैनिकों के आतंक के खिलाफ डिजीटल नागरिकों के बीच धीरे धीरे वातावरण बना. डिजीटल की दुनिया में भाजपा संघ के आखिरकार प्रतिब्द्ध से ज्यादा भाड़े के सैनिक थे, जिन्होंने खुद को एक समय के बाद मजदूरों से भी बदत्तर हालत में महसूस किया. भाजपा संघ के सोशल मीडिया की तकनीकी टीम से छुटकारा पाने का एक सिलसिला देखा गया. दूसरी तरफ जागरूक नागरिकों को ट़्रॉल सैनिकों का जवाब देना जरुरी लगा. डिजीटल मोर्चे पर भाजपा संघ का राजनीतिक जवाब देने वाले मंचों ने अपनी एकजूटता के लिए दिल्ली में कई कार्यक्रम भी किए.
ट्रॉल सैनिकों में भगदड़ का ही संकेत है कि गुजरात का दधिची को हथियार डालने पड़े और उसने अपने ट्वीटर खाते से पहले कुतिया वाले पोस्ट को हटाया और फिर अपने खाते से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा उसे फोलो करने के तगमे को भी निकालकर फेंक देना पड़ा. प्रधानमंत्री ट्वीटर पर उसे फोलो करते थे और इसने कर्नाटक में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद उन्हें कुतिया कहा था और उनकी हत्या का विरोध करने वालों को पिल्ला कहा.
इन सैनिकों से लड़ने के खिलाफ एक प्रतिबद्धता दिखाई दे रही है जो कि किसी परिवर्तन की आवश्यक शर्त होती है. इसमें बड़ी भूमिका सामाजिक स्तर पर विभिन्न स्तरों पर वंचित महसूस करने वाले समूहों के डीजिटल प्रतिनिधियों की है. आल्ट न्यूज ने फर्जी खबरों व झुठी सामग्री परोसने वाले कई बेवसाईटों का पर्दाफाश किया. डिजीटल मंचों पर जागरुकता का ही यह असर हैं कि फेस बुक कंपनी को फर्जी खबरों से निपटने को प्रचारित करने के लिए लगातार पृष्ठभर के विज्ञापन जारी करने पड़े हैं.
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.