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सामाजिक हमले का संदेश सत्ता से मिलता है

अनिल चमड़िया
सत्ता में जब नया नेतृत्व आता है तो वह अपने आप में एक संदेश होता है.उदाहरण के लिए कर्नाटक से किसी वैसे राजनीतिज्ञ को सत्ता में हिस्सेदारी मिलती है, जिसकी छवि कट्टर साम्प्रदायिक होने की है तो उसके सत्ता में शामिल का संदेश तमाम साम्प्रदायिक शक्तियों को ताकत देता है. और फिर वहां साम्प्रदायिक हमलों की एक के बाद एक घटनाओं का सिलसिला शुरु होता है.

किसी भी स्तर पर नेतृत्व में बदलाव के साथ होने वाली नेतृत्व जिस जगह पर सक्रिय रहता है, वहां की घटनाओं पर सरसरी नजर डालकर इसे समझा जा सकता है. संसदीय राजनीति में तो ऐसे ही संदेशों के जरिये सफलता हासिल करने की कोशिश सबसे ज्यादा होती है. इसी कड़ी में दलितों के खिलाफ उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में जाति विशेष के द्वारा हमले की घटनाएं लगातार हो रही है. अप्रैल से 7 सितंबर 2017 तक दलित विरोधी जातिवादी हमलों का भी यहां इसी रुप में विश्लेषण किया जा सकता है.

पहली बात तो ये समझने की है कि सत्ता में नेतृत्व बदलने के साथ ही खास तरह की घटनाओं की एक कड़ी क्यों शुरू हो जाती है? राजनीतिक सत्ता को व्यवस्था की कुंजी कहा जाता है. लेकिन यह कुंजी तभी कारगर होती है, जब सामाजिक स्तर पर राजनीतिक सत्ता को संचालित करने का ढांचा मौजूद हो. भारतीय समाज में दलित नेतृत्व आता है तो उस दलित नेतृत्व में वहीं नेतृत्व राजनीतिक सत्ता को सामाजिक स्तर पर महसूस करा पाता है जिसका ढांचा बना होता है. लेकिन ये एक ठोस तथ्य है कि सत्ता में दलित नेतृत्व मिलने के संदेश से अपने भीतर सुरक्षा का बोध महसूस करता है और उसके भीतर किसी जाति के खिलाफ आक्रमकता का भाव पैदा नहीं होता है. हद से हद वह एक समान होने का भाव महसूस करता है.

लेकिन दूसरी तरफ सामाजिक रुप से वर्चस्व रखने वाली जातियां या साम्प्रदाय अपने अनुकूल नेतृत्व के आने के साथ ही आक्रमकता के भाव से भर जाते हैं. उनके भीतर इस बात को लेकर अति विश्वास पैदा हो जाता है कि उनके द्वारा संविधान और कानून के खिलाफ कुछ करने के हालात में भी उनका ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ेगा. ऐसे जाति व जाति समूह अपने सामाजिक वर्चस्व की जगह को और विस्तार देने के मौके के रुप में इस्तेमाल करना चाहते हैं. दूसरी तरफ दमित और वंचित जातियों के भीतर एक समान होने का जो भाव और विश्वास पैदा होता है उसे खत्म करने की कोशिश करने के मौके के रुप में भी उस नेतृत्व परिवर्तन की घटना का इस्तेमाल करना चाहते हैं.

पश्चिम उत्तर प्रदेश की अप्रैल से सितंबर के बीच की घटनाओं पर सरसरी नजर डालें. शब्बीरपुर में पहली बार हुआ कि गैर सुरक्षित क्षेत्र से दलित गांव प्रधान निर्वाचित हो गए. दूसरी घटना कि सहारनपुर के धूधली गांव में 14 अप्रैल को दलितों ने डा. भीमराव अम्बेडकर का जन्म दिवस मना लिया था. लेकिन भाजपा के नेता व सासंद 20 अप्रैल को डा. अम्बेडकर की शोभा यात्रा निकलाना चाहते थे. वैसे भी शोभा यात्रा जैसे कार्यक्रम दलितों की संस्कृति से नहीं मिलता है. लेकिन भाजपा के लोगों ने उस शोभायात्रा को निकाला क्योंकि वह डा. अम्बेडकर का हिन्दुत्वकरण करना चाहते है और वहां के मुसलमानों के विरोध में दलितो को खड़ा करने के लिए इस शोभायात्रा का इस्तेमाल करना चाहते थे. लेकिन दलितों और खासतौर से भीम आर्मी के सक्रिय सदस्यों ने साम्प्रदायिक दंगों के लिए अपना इस्तेमाल होने नहीं दिया क्योंकि उनके आसपास बड़ी संख्या में रहने वाले मुसलमानों से वर्षों वर्षों का गहरा रिश्ता रहा है. इस बात को लेकर दलितों के खिलाफ बेहद चिढ़ मच गई.

भारतीय समाज में कई ऐसी घटनाएं सामने आई है कि वर्चस्व रखने वाली जातियों व साम्प्रदाय ने अपने हितों में जाति के विरूद्ध जातियों व धार्मिक समूहों का इस्तेमाल करने की कोशिश की और जब उन्होने इस्तेमाल होने से मना कर दिया तो उनके खिलाफ हमले शुरू हो गए. आरक्षण के विरोध करने वालों के समर्थन में जब गुजरात के मुसलमानों ने अपनी दूकानें बंद करने से मना कर दिया तो उनके खिलाफ साम्प्रदायिक हमले शुरु हो गए. वंचित जातियों का विरोध और साम्प्रदायिक हमले एक दूसरे से हमेशा जुड़े दिखते रहे हैं.य़ानी वंचितों द्वारा वर्चस्व रखने वालो की साजिशों मॆं शामिंल नहीं होना भी एक अपराध है और उसकी सजा सामाजिक ढांचे पर वर्चस्व रखने वाली शक्तियां तय करती है और राजनीतिक सत्ता उसे संरक्षित करती है.

उत्तर प्रदेश के इस इलाके में घटनाओं की वजह ये रही कि नेतृत्व में परिवर्तन से पहले दलित अपनी इच्छानुसार डा. अम्बेडकर के पुतले की लंबाई और पुतले को लगाने की जगह की जो उंचाई तय कर रहे वह वहां जाति वर्चस्व रखने वालों को मंजूर नहीं था. उंचाई और लंबाई उन्हें खुद को छोटा महसूस करा रही थी.

वंचितों के खिलाफ जातिवादी हमलों की कुछेक वजहों को यहां प्रस्तुत करने का मकसद केवल ये हैं कि सामाजिक ढांचा दलितों पर वर्चस्व रखने का है और संविधान का ढांचा उन्हें समानता का एहसास करने का संदेश देता है. यह टकराव हमेशा वंचितों के दमन के रुप में ही घटित होता है. इसकी एक वजह यह है कि दलितों व वंचितों को संविधान के ढांचे का संदेश तो मिलता है लेकिन उस तरह के मौके पर संविधान की मशीनरियां उनके खिलाफ ही खड़ी दिखती है. लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश की घटनाओं में एक नई प्रवृति भी देखी गई. क्योंकि वहां दलितों को शोभयात्राओं की भीड़ में शामिल करने की योजना है इसीलिए वहां हमलों की घटनाओं के लिए हमलावरों के विरुद्ध कार्रवाई करने के साथ साथ दलितों के बीच सक्रिय नेतृत्वों पर कार्रवाई की गई.

कुछेक हमलावरों के खिलाफ कार्रवाई इसीलिए की गई ताकि दलितों के बीच शोभायात्राओं के लिए समर्थन जुटाने की गुंजाइश बनी रहे तो दूसरी तरफ दलितों के नेतृत्व के खिलाफ कार्रवाई महज इसीलिए की गई ताकि वे दलितों के बीच सक्रिय नहीं हो सके और सत्ता द्वारा कार्रवाई करने में संतुलन भी दिखें. यानी उत्पीडित को महज इसीलिए जेल की सलाखों के पीछे डालना चाहिए क्योंकि उत्पीडिकों के खिलाफ भी कार्रवाई करने की बाध्यता है?

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भीम आर्मी के सदस्यों व गैर दलित सदस्यों को पैतालीस की संख्या में शब्बीर में हमले की घटना के बाद पकड़ा गया. कोई कारण नहीं है. पुलिस की कोई जवाबदेही भी नहीं है कि उसने एक संतुलन बनाने के लिए वंचित समाज के इतने लोगों को क्यों गिरफ्तार किया.राजनीतिक सत्ता अब राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को भी इसीलिए आर्मी के संस्थापक चन्द्रशेखर आजाद रावण के खिलाफ लागू करने की योजना पर सक्रिय है. इससे पहले हमलावरों में केवल दो लोगों के खिलाफ इस कानून को लागू करने की सूचना अखबारों में आई है.

दरअसल चन्द्रशेखर के खिलाफ ही राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लगाने का कोई तर्क व तथ्य नहीं है तो इसके लिए जरुरी ये लगा कि पहले दो हमलावरों के खिलाफ इसे लागू किया जाए ताकि चन्द्रशेखर व तीन महीने से जेल में बंद साथियों के खिलाफ भी इस कानून को लागू करने का एक तर्क तैयार किया जा सके. तर्क तैयार करने के लिए तथ्यों को दबाने की यह प्रवृति वंचितों के संवैधानिक अधिकारों को बहाल नहीं करने के एक अघोषित कानून की तरह दिख रहा है.
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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