रामनाथ कोविंद यानी कुछ भी मान सकने वाले भावी राष्ट्रपति?
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को दलितों के हितों को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने का अवसर देने के अलावा सत्ता को केंद्रीकृत करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का काम भी किया है. 17 जुलाई को होने वाले राष्ट्रपति चुनावों के नतीजे तय हैं. कोविंद राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब मुखर्जी की जगह लेंगे. उन्हें राजग के बाहर के बीजू जनता दल, जनता दल यूनाइटेड और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी पार्टियों का भी समर्थन हासिल है. अनुमान है कि उनके पक्ष में तकरीबन 55 फीसदी वोट हैं.
कोविंद की उम्मीदवारी की घोषणा करते वक्त भाजपा अध्यक्ष और राजग प्रमुख अमित शाह ने कहा कि वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो दलित परिवार में पैदा होकर संघर्ष करके आगे बढ़े. इससे तय हो गया कि कोविंद को एक दलित उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जाएगा. इसके कुछ ही दिनों के बाद विपक्ष की ओर से कांग्रेस नेता मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने की घोषणा हुई. जबकि कोशिश यह भी चल रही थी कि गोपाल कृष्ण गांधी को उम्मीदवार बनने के लिए मनाया जाए. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने इस लड़ाई को एक दलित पुरुष और एक दलित महिला को मुकाबले में तब्दील करने की कोशिश की है.
उम्मीदवारी तय करने में कई बातों की भूमिका रही है. जातिगत हमलों पर कुछ नहीं कर पाने को लेकर मोदी सरकार की काफी आलोचनाएं हुई हों. चाहे वह हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की अप्राकृतिक मौत का मामला हो या फिर गुजरात के उना में चार दलितों पर गौ रक्षकों द्वारा हमले का या फिर सहारनपुर में दलितों पर हमले का. कोविंद को उम्मीदवार बनाकर भाजपा इन सभी घटनाओं पर पर्दा डालना चाहती है. उन्हें उम्मीदवार बनाकर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी कई दीर्घकालिक योजनाओं को अंजाम देना चाहते हैं.
इनमें दलित विमर्श को राजनीति से अलग करना, उन्हें संघ के वैचारिक ढांचे में ढालना जिसमें जाति व्यवस्था शामिल है, अंबेडकर की विरासत पर दावा पेश करना, दलितों और पिछड़ों को बांटना और उन्हें अपने पाले में लाना शामिल है. रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी ने विपक्ष की एकजुटता की पोल भी खोल दी. विपक्ष तब ही अपना उम्मीदवार तय कर पाया जब राजग ने अपने उम्मीदवार की घोषणा कर दी. कोविंद की संभावित जीत के दीर्घकालि परिणामों पर चर्चा करना प्रासंगिक है.
1997 में जनता पार्टी की जीत के बाद जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने तो कोविंद उनके निजी सचिव थे. 1980 में जब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस लौटीं तो सर्वोच्च न्यायालय में उन्हें भारत सरकार के वकील के तौर पर काम करने का मौका मिला. 1991 में भाजपा में आने के बाद पार्टी में वे कई अहम पदों पर रहे. उत्तर प्रदेश भाजपा के संयुक्त सचिव, अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष और पार्टी प्रवक्ता के तौर पर उन्होंने काम किया.
1991 में वे उत्तर प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़े और हार गए. उनके बारे में कहा गया कि प्रदेश की ठाकुर लॉबी उन्हें पसंद नहीं करती थी. भाजपा ने उन्हें 1994 से 2006 के बीच राज्यसभा में दो बार भेजा. इस दौरान उन्होंने कई संसदीय समितियों में काम किया. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में संयुक्त राष्ट्र में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. 2015 में उन्हें बिहार का राज्यपाल नियुक्त किया गया.
भारत ने कई तरह के राष्ट्रपतियों को देखा है. फखरुद्दीन अली अहमद ने न सिर्फ इंदिरा गांधी के आपातकाल के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी थी बल्कि कुछ समय के लिए तो संविधान को ही निलंबित कर दिया था. ज्ञानी जैल सिंह के बारे में माना जाता था कि वे हां में हां मिलाने वाले राष्ट्रपति होंगे लेकिन कई मौकों पर उन्होंने राजीव गांधी सरकार से मोर्चा लिया. एक बार तो उन्होंने प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने की धमकी दे दी थी.
सबसे हालिया उदाहरण केआर नारायणन का है. वाजपेयी सरकार से कई मामलों में वे टकराते दिखे. उन्होंने अंबेडकर के योगदान को रेखांकित करते हुए आजाद भारत की नाकामियों की समीक्षा की बात की थी. प्रतिभा पाटिल और प्रणब मुखर्जी एक-दूसरे से काफी अलग होते हुए भी कभी सरकार से टकराते नहीं दिखे. धर्मनिरपेक्षता और स्वतंत्रता को लेकर कुछेक मौकों पर टिप्पणी करने के अलावा प्रणब मुखर्जी सरकार के हर आदेश और अध्यादेश पर दस्तखत करते गए. इनमें विवादित भूमि अधिग्रहण अध्यादेश भी शामिल है.
क्या रामनाथ कोविंद रायसीना की पहाड़ियों से सत्ता चलाने वालों की हर बात मानेंगे? इसका जवाब तो वक्त ही दे सकता है. लेकिन अभी कोई ऐसी वजह नहीं दिखती जिससे यह माना जाए कि उनकी राजनीति सरकार चलाने वालों की राजनीति से अलग है. इस नाते दुनिया की सबसे बड़ी रिहाईश जो 320 एकड़ में फैला है और जिसमें 340 कमरे हैं, वहां कोविंद के कार्यकाल को देखा जाएगा. अब तक उनके छवि लड़ने वाले की नहीं रही है. प्रधानमंत्री द्वारा वफादार और अधीनस्थ का चयन अब किसी को चैंकाता नहीं है. सरकार द्वारा हाल में की गई नियुक्तियां इसी को साबित करती हैं.
रामनाथ कोविंद कैसे राष्ट्रपति साबित होंगे? अपने चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति के लिए संविधान सर्वोच्च है और यह उसके लिए गीता, रामायण, बाइबिल और कुरान है. धार्मिक ग्रंथों का उनका प्रेम चिंताजनक है. संविधान ईश्वर-प्रदत्त नहीं है. यह एक ऐसा जीवंत दस्तावेज है जो नैतिकता, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और मानवाधिकार के सिद्धांतों पर आधारित है. अब तक रामनाथ कोविंद का ट्रैक रिकॉर्ड ऐसा नहीं है कि जिससे यह लगे कि वे हर चीज को केंद्रीकृत करने और अलोकतांत्रिक प्रवृत्तियों को रोक पाने में सक्षम हैं.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद