विनोद शंकर शुक्ल का जाना
जीवेश चौबे
सर एक कार्यक्रम कर रहे हैं आपका सहयोग व मार्गदर्शन चाहिए… आप कभी भी मोबाइल पर कहें और हमेशा जवाब आता, आ जाओ घर पर. चाहे कोई भी हो, सर यानि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल हमेशा साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए हर तरह के सहयोग को तत्पर रहते. उनके लिए साहित्य एक जज्बा था, जुनूनू था जो उन्हें लगातार शहर की तमाम गतिविधियों से जोड़े रखता था.
लगभग चार दशकों से भी ज्यादा समय से वे रायपुर के साहित्यिक परिदृश्य के जरूरी हस्ताक्षर की तरह थे. लगभग हर शाम वे पैदल सड़क पर चलते हुए एक चक्कर जरूर लगाते और पुराने बस स्टैंड स्थित किताब दुकान से होते हुए घर लौटते. यदि आपको उनसे मिलना हो तो आप शाम के वक्त इस ठिकाने पर जरूर मिल सकते थे.
छत्तीसगढ़ के प्रमुख व्यंग्यकारों में एक विनोद शंकर शुक्ल का पूरा जीवन रायपुर के साहित्यिक वातावरण में गुजरा. नगर के हर साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनों में वे जरूर उपस्थित रहते. अपने नाम के अनुरूप वे एक खुशमिजाज, विनोदप्रिय थे. कॉलेज जीवन से ही वे साहित्य से जुड़ गए थे. आधी सदी से भी ज्यादा समय से वे हमारे परिवार से जुड़े रहे. पारिवारिक संबंध के अलावा पिता श्री प्रभाकर चौबे के व्यंग्यकार होने के कारण संबंध और घनिष्ठ होते चले गए.
विनोद जी व्यंग्यकार होने के साथ साथ एक जबरदस्त घुमक्कड़ भी थे और पिता के साथ देश के तमाम स्थानो पर घूमने निकल जाया करते थे. साहित्य सम्मेलनो में दोनो जब भी जाते सम्मेलन के पश्चात साथ में आसपास के पर्यटन स्थलों के लिए निकल पड़ते. कन्याकुमारी ये लेकर हिमाचल या फिर नॉर्थ ईस्ट से लेकर द्वारका तक लगभग सभी जगह यायावर की तरह घूमते.
बहुत कम लोगों को पता है कि विनोदजी छत्तीसगढ़ महाविद्यालय के शासकीय होने के पूर्व अनुदान प्राप्त अशासकीय महाविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी रहे. वे प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से भी जुड़े रहे. एक लम्बे अरसे तक वे भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) के रायपुर के अध्यक्ष रहे. एक बात और याद आती है कि बहुत पहले उन्होंने कर्फ्यू नाटक लिखा जिसका सार्वजनिक पाठ भी हुआ मगर संभवतः उसका मंचन नहीं हो पाया.
विनोद जी पढ़ने के बहुत शौकीन थे, विशेष रूप से व्यंग्य. लगभग हर व्यंग्यकार के संकलन उनके पास मौजूद थे और साथ ही अन्य किताबें भी. वे पूरी तरह साहित्य व संस्कृति को समर्पित थे. अपने इसी जूनून के चलते उन्होंने अपने घर पर एक साहित्यिक आयोजनो के लिए संस्कृति नाम से एक हॉल ही बना लिया था जहां लम्बे समय तक कई साहित्यिक आयोजन, अनेक गोष्ठियां और कार्यक्रम होते रहे.
विनोद जी अपने शुरुवाती दिनो में अग्रदूत से भी जुड़े फिर बाद में लम्बे समय तक दैनिक नवभारत में उनके व्यंग्य प्रकाशित होते रहे. कहा जाए तो वे दूसरी पीढ़ी के प्रमुख व्यंग्यकारों में एक रहे. उन्होने व्यंग्य शती नामक त्रैमासिक पत्रिका भी लम्बे अरसे तक प्रकाशित की जिसका पूरे देश में विशेष स्थान रहा. काफी पहले उन्होंने नगर में एक व्यंग्य सम्मेलन भी करवाया था. विनोदजी के साथ एक बात बहुत अच्छी थी कि उन्हें किसी भी विषय पर बोलने का लिए बहुत ज्यादा तैयारी की जरूरत नहीं होती थी.
जब उनकी तबियत बिगड़ी तो मैं परेशान हो गया. उनके ऑपरेशन के पश्चात मैं उनसे मिलने अस्पताल गया. वे काफी नर्वस थे. वे चाहते थे लोगों से मिलना मगर तबियत के चलते यह संभव नहीं था. फिर जब वे अस्पताल से घर आए तो मैं वहां भी गया. मुझे लगा अब वे स्वस्थ होकर वापस सामान्य दिनचर्या में जल्द लौट आयेंगे मगर उन्हें इन्फैक्शन हो गया जो लगातार बिगड़ता गया और अंत में उनके बेटे अपराजित उन्हें मुम्बई ले गये मगर हालत में कुछ सुधार नहीं पो पाया. एक मस्तमौला व्यक्ति यूं लगातार अकेलेपन मे टूटता सा गया. एक लम्बे अरसे से विनोदजी अपनी बीमारी से जूझ रहे थे. उनका घर से निकलना बंद था और वे मन मसोसकर असहाय से पड़े रहते थे. बीमारी से वे उतने दुखी नहीं हुए मगर सामाजिक संलग्नता से वंचित होने से वे लगभग टूट से गए थे.
अपराजित से उनका हालचाल पता चलता रहता था. कुछ दिनो पहले ही तो अपराजित ने कहा था कि पापा बहुत तेजी से रिकवर कर रहे हैं और जल्द रायपुर आने वाले हैं. एकाध बार बातचीत के दौरान मैने अपराजित से कहा भी कि तुम सर को कोई आयोजन में ले जाया करो वे जल्द स्वस्थ हो जायेंगे. मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था. अकेलेपन और साहित्यिक विस्थापन से वे टूटते चले गए. उनका जाना सबको उदास कर गया. उनका जाना एक अपूरणीय क्षति है और नगर के साहित्यिक परिदृश्य से एक अध्याय का समाप्त होना है.
(नवभारत)