Columnist

बस्तर में लोकतंत्र कुचला जा रहा है

सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ के नक्सल हिंसा वाले इलाके बस्तर को लेकर खबरें कभी थकती ही नहीं हैं. अभी फिर वहां पर एक स्वतंत्र महिला पत्रकार के खिलाफ एक स्थानीय संगठन के विरोध-प्रदर्शन से लेकर उस पत्रकार के घर पर हमले तक की खबरें पूरे देश और दुनिया में फैली हुई हैं. और चूंकि खबरों को फैलाने का काम करने वाला मीडिया बस्तर में पत्रकारों पर खतरे को लेकर फिक्रमंद हैं, इसलिए यह हमला छोटा होते हुए भी उसकी गंभीरता को लोग एक-दूसरे से बांट रहे हैं, और राज्य सरकार से लेकर केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्री तक को कह रहे हैं कि इस मामले में कार्रवाई की जाए, और बस्तर में पत्रकारों को आजादी से काम करने के लिए हिफाजत मुहैया कराई जाए.

दरअसल हिफाजत मुहैया कराने की बात भी नहीं की जा रही, क्योंकि वहां मीडिया पर हमला या दबाव, जो भी कहें, उसके पीछे पुलिस का ही हाथ होने का शक तमाम लोगों को है, यह एक अलग बात है कि न मीडिया के पास इसके सुबूत हैं, और न ही राज्य सरकार को ऐसे सुबूतों की अधिक परवाह भी है. मालिनी सुब्रमण्यम नाम की इस फ्री लांस महिला पत्रकार से पिछले कई हफ्तों में पुलिस ने तरह-तरह से पूछताछ की है, और वे तरीके सामान्य भी नहीं कहे जा सकते, लेकिन इसकी शिकायत मिलने पर राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की है, और बात बढ़ते-बढ़ते पुलिस के उकसावे पर इस महिला के घर पर हमले के आरोप तक पहुंच गई है.

कई हफ्ते पहले मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने बस्तर में ही पत्रकारों पर पुलिस की नाजायज कार्रवाई की शिकायतें आने पर राज्य सरकार की एक कमेटी बनाई है, जिसमें सरकारी ओहदे तो शामिल हो गए हैं, लेकिन पत्रकारों के प्रतिनिधि अब तक छांटे नहीं गए हैं, और जिस मकसद से यह कमेटी बनाई जा रही है, वह मकसद दरवाजा खटखटाते खड़ा है, लेकिन कमेटी अस्तित्व में नहीं आई है. मुख्यमंत्री ने जिस नीयत के साथ ऐसी कमेटी बनाकर उसे पत्रकारों के हक की हिफाजत का जिम्मा दिया है, उस कमेटी में दो पत्रकारों के नाम सरकार तय नहीं कर पा रही है.

लेकिन इस कमेटी से परे बस्तर के हालात को समझने की जरूरत है. वहां पर जिस तरह नक्सलियों की हिंसा खत्म करने के नाम पर पुलिस को एक बेलगाम छूट मिली हुई है, उसे लेकर राज्य सरकार में बैठे बड़े-बड़े ओहदेदार भी हैरान हैं, और वे यह भी मानते हैं कि नक्सलियों के समर्पण के मामले मोटे तौर पर फर्जी और गढ़े हुए हैं. बहुत से सामाजिक कार्यकर्ता यह मानते हैं कि बस्तर में पुलिस बेकसूरों को मार रही है, और सुरक्षा बल वहां की लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं. यह माहौल बस्तर में बरसों से चले आ रहा है, और सरकार के बड़े-बड़े लोग यह मान रहे हैं कि नक्सल हिंसा को खत्म करने के लिए की जा रही कार्रवाई के चलते ऐसी कुछ शिकायतें तो आती ही रहेंगी, और इन शिकायतों को पूरी तरह से रोकने का मतलब नक्सल हिंसा को छूट देना हो जाएगा.

हम यहां पर सरकार को याद दिलाना चाहेंगे कि लोकतंत्र में रास्ते बहुत छोटे नहीं होते हैं, और कई बार लोकतंत्र को बचाने के लिए लंबा सफर तय करना पड़ता है. अगर नक्सलियां से लोकतंत्र को बचाने के लिए बस्तर के लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार खत्म करना ही एक रास्ता है, तो फिर यह रास्ता न लोकतांत्रिक है, और न इससे लोकतंत्र बच पाएगा. उत्तर-पूर्व हो, कश्मीर हो, या पंजाब हो, जहां कहीं पुलिस और सुरक्षा बलों ने, फौज ने या सरकार ने ज्यादतियां की हैं, वहां पर जख्म बरसों बाद भी अब तक हरे हैं. जिस बस्तर में लोकतंत्र खत्म करने के लिए हिंसा करने वाले नक्सलियों को आदिवासियों के बीच एक जगह मिली है, वहां पर राज्य सरकार को अपने अमले के तौर-तरीके के बारे में अधिक सोचना चाहिए.

आज सरकार में ऐसे लोगों की भरमार है जो लोकतंत्र की महीन बातों की तरफ से बेपरवाह हैं. चूंकि बस्तर में कुचले जाने वाले अधिकतर लोग आदिवासी हैं, गरीब हैं, इसलिए शहरों में सरकार चलाने वाले लोगों के बीच उनको लेकर अधिक संवेदनशीलता मुमकिन भी नहीं रहती, और बस्तर जैसे इलाके से जो जनप्रतिनिधि आते हैं, वे जीतकर सरकार में आने के बाद अपने खुद के समाज की दिक्कतों, उसके खतरों, की तरफ से बेपरवाह हो जाते हैं.

ऐसे में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता, मीडिया के कुछ लोग, या बस्तर में काम करते कुछ नौजवान समर्पित वकील सत्ता की आंखों की किरकिरी बन जाते हैं, क्योंकि वे सरकारी हिंसा के मामलों को उठाते हैं और सरकार से कार्रवाई की मांग करते हैं. और सरकार मानो अघोषित रूप से अपने अमले की हिंसा और ज्यादती को जायज ठहराने के लिए यह मुद्दा खड़ा करती है कि ये आंदोलनकारी नक्सली हिंसा का विरोध क्यों नहीं करते? ये पत्रकार नक्सल हिंसा की रिपोर्टिंग क्यों नहीं करते ? यह सवाल लोकतांत्रिक समझ की कमी बताने वाला है, क्योंकि लोकतंत्र में चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार ही सबके प्रति जवाबदेह रह सकती है, जो नक्सली लोकतंत्र को खत्म करने में जुटे हुए हैं, वे भला किसी के प्रति कैसे जवाबदेह हो सकते हैं?

बस्तर में आज सत्ता के प्रतिनिधि, स्थानीय अफसरों से असहमति की कोई भी बात नक्सलियों से हमदर्दी गिनी जा रही है. यह लोकतंत्र के लिए एक बहुत खतरनाक नौबत है, और नक्सल हिंसा को खत्म करने के नाम पर, खत्म करते हुए भी लोकतंत्र को कुचलना मंजूर नहीं किया जा सकता. पंजाब की मिसाल सबके सामने है जहां पर केपीएस गिल नाम के एक बड़े से नामी-गिरामी और सितारा पुलिस अफसर की कई तरह की ज्यादतियां सरकार ने अनदेखी की थीं, लेकिन केपीएस गिल तो खुद तो बचे रहे, उनके लिए हिंसा करने वाले पुलिस के दूसरे अफसर और कर्मचारी अब तक जेलों में पड़े हैं. छत्तीसगढ़ के लिए सबक सीखने को हिन्दुस्तान में बहुत से प्रदेशों की मिसालें हैं, और लोकतंत्र को जहां-जहां कुचला गया है, वहां उसके लंबे नुकसान देखने मिले हैं.

बस्तर में अकेली मीडिया पर जुल्म-ज्यादती की बात करने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वहां पर हर उसके साथ ज्यादती का खतरा खड़ा हुआ है जो कि पुलिस के साथ नहीं है. यह रंग-ढंग देखकर अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश का वह नारा याद पड़ता है जो कि उन्होंने सद्दाम हुसैन पर हमला करने के लिए झूठे सुबूतों के साथ गढ़ी गई साजिश पर अमल करते हुए लगाया था कि दुनिया के देश या तो इस हमले में अमरीका के साथ हैं, या फिर आतंक के साथ हैं. लोकतंत्र ऐसा काला-सफेद नहीं होता, इसमें असहमति के कई दर्जे होते हैं, और उनका सम्मान किए बिना कोई लोकतंत्र विकसित नहीं हो सकता.

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