यू टर्न सही, पर वजह बताओ
बादल सरोज
पाकिस्तान पर मोदी सरकार का यू टर्न एक सही कदम है परन्तु उसकी वजह भी बताया जाना चाहिये. कहीं यह नेहरू के पुनर्पाठ पर तो आधारित नहीं है जिसमें कहा गया था, “हम सिर्फ दीवारों पर टँगी तस्वीरों के चेहरे बदलकर इतिहास की धारा को नहीं बदल सकते.” इसे देर आयद, दुरस्त आया कहा जा सकता है. क्या यह मोदी सरकार के भारत के पुराने विदेश नीति पर लौटकर आने के समान है कम से कम पाकिस्तान के मामले में ही सही?
पाकिस्तान से बातचीत शुरू करने के मामले में मोदी सरकार ने जितनी तेजी से पलटी मारी है, उतनी तेज गुलांट तो अनुभवी से अनुभवी नट भी नहीं लगा सकता. देर से सही मगर आखिर सत्ता पार्टी की अक्ल में यह बात आई कि सड़क पर लगाये जाने वाले उन्मादी नारों से विदेश नीति तो छोडिय़े घरेलू नीति भी नहीं चलती. इसी नासमझी के चलते आज, महज 18 माह में दुनिया के 33 देशों की यात्रा के विश्वरिकार्डी प्रधानमंत्री के होने के बावजूद, भारत अपने पड़ोसियों से जितना अलग थलग पड़ा है, उतना पहले शायद ही कभी रहा हो.
अच्छा होता कि यह मार्ग हमने अपने विवेक और अपनी शर्तों पर चुना होता. अपनी कूटनीतिक विफलताओं की फिसलन से रपट कर हड़बड़ी में इस्लामाबाद जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करने की बजाय – गरिमापूर्ण बराबरी पर खड़े होकर, अपनी शर्तों पर हाथ मिलाया होता. दुनिया जानती है कि इस मुलाकात और बातचीत शुरू करने की अन्यथा अच्छी पहल के पीछे हमारी अपनी सुचिंतित विदेश नीति कम पाकिस्तान को विश्व बिरादरी से अलग थलग करने की पिछली डेढ़ साल से जारी कोशिशों की विफलता अधिक है.
घटाने की नकारात्मकता जोड़ लगाना भुला देती है . यही वजह थी कि पाक को अलग थलग करते करते खुद भारत सार्क देशों के समूह तक में ही लगभग अकेला पड़ गया. अमरीका की पाद प्रदक्षिणायें भी काम नहीं आईं. बजाय पाकिस्तान की नकेल कसने के अमरीका ने उसकी सैन्य सहायता में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी कर दी. तालिबान से वार्ताओं में उसे केंद्रीय भूमिका प्रदान कर दी और अब तो मनो-नमो दोनों की ही काबुल-कंधार में उनके फैलाये कचरे को समेटने के लिए खिदमत में हाजिर होने की गुहार को दरकिनार करते हुए अफगान टकराव के मामले में पाकिस्तान को तकरीबन सरपंच की भूमिका ही सौंप दी गयी है. यही वह दौर है जब यूरोपीय यूनियन ने भी भारत पर पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने का दबाब बढ़ाया था.
असल में यह अंदर घुसकर हमला करके आतंकवाद को ठिकाने लगाकर पाकिस्तान को घुटने टिकवा देने की लफ्फाजी का तार्किक पटाक्षेप है. जिसका कुल नतीजा यह निकला है कि आतंकियो की पनाहगाह बने पाकिस्तान को अलग थलग करने की बजाय भारत ही अकेला सा पड़ गया.
हाल के दौर में अमरीका का भरोसा जीतने के चक्कर में जापान के साथ मिलकर चीन विरोधी गठबंधन में हिस्सा लेकर बैठे ठाले बिना कारण एक पड़ोसी से तकरार मोल ली गई. नेपाल की सप्लाई लाइन रोककर इस सबसे पुराने पड़ोसी से पारंपरिक दोस्ती में खटास डाल दी गई. श्रीलंका की अंदरूनी राजनीति में डूबते जहाज पर दांव लगाकर बैठे ठाले पंगा ले लिया गया. अपनी आतंरिक नीतियों के चलते बंगलादेश में, जहां तुलनात्मक रूप से भारत विरोधी माहौल कम था, कट्टरपंथी तत्वों को मसाला प्रदान कर दिया गया.
पाकिस्तान के साथ बार बार वार्तायें तोड़कर घरेलू उन्माद बनाये रखने के लिए पहले तीखे तेवर दिखाये. सिर्फ और केवल आतंकवाद पर ही वार्ता की शर्त रखी. आखिर में लौट के उस समन्वित संवाद पर ही आना पड़ा जो पहले से ही जारी था. जिसमें आतंकवाद से लेकर जम्मू कश्मीर और सरक्रीक से लेकर सियाचिन तक सारे मुद्दे शामिल थे.
यथार्थ यह है कि पड़ोसी चुने नहीं जाते वे होते हैं. साम्प्रदायिकता के गुरुकुलों में सिखाया जाने वाला कल्पित विश्व और उस पर आधारित दूषित दृष्टिकोण मुट्ठी भर अंध भक्तों और बटुकों से आराम: – विश्राम: की बेदिमागी ड्रिल भर ही करा सकता है. जिम्मेदार छवि नहीं बना सकता.
इन वार्ताओं की शुरूआत का तरीका जहां मौजूदा सरकार की पाकिस्तान नीति की घोर विफलता का प्रमाण है. वहीं अजीत डोभाल जैसे नौकरशाहों के अंधराष्ट्रवादी उन्मादी रवैये और कूटनीतिक बचकानेपन से हासिल में आया नुक्सान भी है.
वार्तायें चलना अच्छी बात हैं. इन्हें पूरी गंभीरता और गरिमा के साथ बढ़ाया जाना चाहिये. इस प्रसंग में पं. नेहरू को याद रखने की जरूरत है जिन्होंने कहा था कि “सहअस्तित्व का सिर्फ एक ही विकल्प है और वह है साझा विध्वंस.” उन्हीं के शब्दों में “हम सिर्फ दीवारों पर टँगी तस्वीरों के चेहरे बदलकर इतिहास की धारा को नहीं बदल सकते.”
किंतु ऐसा अचानक दिशा बदलने या तुरत फुरत बातचीत का पंचांग लिख देने भर से नहीं होगा. इस सबसे सबक लेने की जरूरत है. उस सबक को देश की जनता के मानस का हिस्सा बनाने की आवश्यकता है. क्योंकि किसी भी विदेश नीति, भले ही वह कितनी भी नायाब क्यों न हो, की सफलता की उम्मीद तब तक नहीं की जा सकती, जब तक वह कुछ ही लोगों के दिमाग तक सीमित रहे और किसी के भी दिल में न हो. अपने अनुभवों से न सीखने का नतीजा अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर हंसी मजाक का पात्र बनने के रूप में सामने आता है.
और अंत में यह भी कि सवाल यह है कि डोर किसके हाथ में है ?
नेपाल में प्रधानमंत्री मोदी के अचानक नवाज शरीफ के बगल में जा बैठने और हाथ पकड़कर बतियाने, उसके कुछ ही दिन बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के पाकिस्तान पहुंच जाने के पीछे विदेश नीति में काफी समय से लंबित करेक्शन यानि दुरूस्ती है या कुछ और ?
2 दिसम्बर को एनडीटीवी पर एक चर्चा में बरखादत्त ने इस नई शुरूआत के पीछे कारपोरेट की मध्यस्थता का जिक्र किया था. उनके साथ उस चर्चा में बैठे पूर्व विदेश सचिव, कांग्रेस-भाजपा के नेताओं और पाकिस्तान के एक पत्रकार ने भी इसे न केवल स्वीकार किया था बल्कि यहां तक कहा था कि ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है.
अडाणी की बिजली पाकिस्तान को बेचे जाने का समझौता होना है यह सार्वजनिक हो चुका है. जल्द ही उजागर हो जायेगा कि देशी विदेशी कारपोरेट कंपनियों के ऐसे न जाने कितने हित जुड़े हैं.
यूं यदि ऐसा है भी तो अचरज की बात नहीं है, कारगिल की लड़ाई में जब सीमा पर सैनिक मारे जा रहे थे और देश युद्धोन्माद में डूबा था. भारत पाकिस्तान के बीच शक्कर सहित सारा व्यापार अपनी पूरी रफ्तार से अबाधित रूप से जारी था. आखिर पूंजीवाद शुध्द पूंजी का वाद है, यहां मुनाफा, खून से ज्यादा गाढ़ा होता है.
कहा जाता है कि विदेश नीति अंतत: घरेलू नीति का विस्तार होती है. मगर देश हित की बजाय कारपोरेट हित ही विदेश नीति भी तय करेंगे ये कुछ ज्यादा ही अतिरेक है.