प्रसंगवश

दादरी में दम तोड़ती इंसानियत!

हिंदू धर्म क्या इतना कमजोर और निर्बल है कि उसे अफवाह की एक मामूली गर्म हवा झुलसा दे? कदापि नहीं. ऐसा हम नहीं मानते. यह एक साजिश थी. धर्म और गाय को सामने लाकर एक षड्यंत्र बुना गया. जिस धर्म में सर्वधर्म समभाव की बात हो, वहां भीड़ कैसे किसी की जान ले सकती है. धर्म और उसकी धारणा में हम अंतर आज तक नहीं कर पाए हैं. धर्म क्या किसी इंसानियत, मानवीयता और सहिष्णुता से अलग कोई परिभाषा गढ़ता है? सवाल उठता है कि आखिर धर्म के कितने रूप होते हैं. हमने धर्म और उसकी धारणा को कभी समझने की कोशिश नहीं की. अगर की होती तो हमारे सामने उत्तर प्रदेश के दादरी जैसी दर्दनाक घटना न होती.

हम अपने को वैष्णव जन कहलाने के अधिकारी नहीं हैं, क्योंकि वैष्णव जन वही होता है, जिसके अंदर दूसरे की पीड़ा का अहसास हो. उसी को इंसानियत और धर्म कहते हैं. हम जो धारण कर लें, वही हमारा धर्म नहीं होता.

गौतमबुद्ध नगर के दादरी के बिसाहड़ा गांव में 28 सितंबर को एक अफवाह जिस तरह सांप्रदायिक तनाव का कारण बनी और एक बेगुनाह की जान चली गई, क्या यही हमारा धर्म है? यहां हमने धर्म की धारणा और अफवाह में अंतर करने की कोशिश नहीं और न ही इस पर कदम उठाने के पहले विचार किया. संभत: यह हमारी सबसे बड़ी मानवीय भूल थी.

गोमांस पकाने की बेसिर-पैर की अफवाह पर भीड़ भड़क गई और एक बेगुनाह को लात-घूंसों से पिटाई के बाद सिर पर सिलाई मशीन से वार कर जान ले ली गई.

कहा जा रहा है कि जिस मंदिर से यह अफवाह उठी, उसे उड़ाने वाला वहां का पुजारी था. उस पर दो युवकों ने इस अफवाह को फैलाने का दबाब बनाया था. अगर ऐसा हुआ तो कितनी घटिया साजिश थी यह.

उफ् यह कितना निंदनीय है. हमें इस पर गर्व नहीं, शर्म होना चाहिए, क्योंकि हमने हमेशा दुनिया के सामने सांप्रदायिक एकता की मिसाल पेश की है. हम एक बेसिर-पैर की अफवाह पर इतने निर्दयी और क्रूर कैसे हो गए, यह विचारणीय बिंदु है.

निश्चय हम जिस धर्म के समर्थक हैं, उसके प्रति हमारे भीतर कूट-कूट कर श्रद्धा, भाव भक्ति और आस्था भरी है. लेकिन हमारी आस्था हमारा विश्वास एक अफवाह डिगा देगा ऐसा हम नहीं सोचते. हमने धर्म की धारणा हो यहां धोखा दिया है. हमने अफवाह को अपना धर्म माना है, जिसके चलते यह घटना हुई.

कहते हैं कि अफवाहों को सिर-पैर नहीं होते. वे उड़ती हैं तो उड़ती ही चली जाती हैं और जहां विराम लेती हैं वहां विनाश का कारण बनती हैं. कभी मुजफ्फरनगर, कभी दादरी और कभी लखनऊ, आखिर यह सब क्या है?

गाय हमारी मां है. हम गाय की पूजा करते हैं, उसके साथ क्रूरता हम बर्दाश्त नहीं कर सकते, लेकिन हमारी यह श्रद्धा क्या इंसानियत से बड़ी है? हमारे लिए क्या अखलाक का परिवार कोई मायने नहीं रखता?

अगर थोड़ी देर के लिए यह सच भी मान लिया जाए तो क्या इसके पहले उसने गोमांस नहीं पकाया? कभी अगर पकाया तो बवाल क्यों नहीं हुआ फिर आज क्यों? इस घटना पर पर सियासत तीखी हो चली है. लोग दादरी पहुंचने लगे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार लाखों लाख रुपये की मदद पीड़ित परिवार को दिला रही है.

केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और यूपी के सीएम ने इस घटना की निंदा की है. राजनाथ ने कहा है कि इस पर राजनीति न की जाए. यह एक घटना भर थी, जबकि इस घटना को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है. यूपी में इस समय पंचायत चुनाव का पारा चढ़ा है. राजनीतिक दल अपने-अपने नफा नुकसान के लिहाज से इसे देख रहे हैं, क्योंकि मामला अल्पसंख्यक समुदाय का है. लिहाजा, सियासी हमदर्दी भी उफान पर है.

राहुल गांधी ने भी दादरी पहुंचकर पीड़ित परिवार की पीड़ा पर मधुर मरहम लगाया है, लेकिन यह सब क्यों और किस लिए?

अखलाक के परिवार ने गोमांस पकाया था या नहीं, इसकी कोई पुष्टि नहीं है. लेकिन जो अपने को स्वयं हिंदू कहते हैं, देश के सर्वोच्च पदों पर आसीन हैं और रह चुके हैं, उनकी ओर से लगातार गोमांस पर बयानबाजी की जा रही है. फिर क्या उनके खिलाफ भी भीड़ इस प्रकार की प्रक्रिया की आजमाइश करेगी? क्या उनके खिलाफ कोई प्रतिबंध लगेगा?

महाराष्ट्र सरकार ने गोमांस पर प्रतिबंध लगा दिया है. गोवा सरकार इसके लिए तैयार नहीं है. वह इस मामले में केंद्र को भी चुनौती दे रही है. केंद्र में एक हिंदू समर्थित दल ने सत्ता की कमान संभाल रखी है. अगर ऐसी बात है तो देशभर में गोवध व गोमांस की बिक्री और निर्यात पर क्यों नहीं प्रतिबंध लगाया जाता है?

देश के बूचड़खानों में लाखों की संख्या में गोवंशीय मवेशियों का खुलेआम कत्ल किया जाता है. उनकी मांस, चपड़े और हड्डियों का व्यवसायिक उपयोग होता है. इस पर हम आगे क्यों नहीं आते हैं?

आज अफवाह धर्म का पालन करने वाली भीड़ ने बड़ी संख्या में पहुंच कर अखलाक की जान ले ली और उसके 22 साल के बेटे और भाइयों को भी पीटा. कल यही हादसा हमारे साथ भी होगा और हो सकता है.

आखलाक इस दुनिया को अलविदा कह गया है, लेकिन अपने पड़ोसियों की ओर से बुरी याद लेकर विदा हुआ. काश! जब वह स्वाभाविक रूप से इस दुनिया से जाता तो बिसाहड़ा की ईद, होली, दिवाली और दशहरा की यादें उसके साथ जन्नत में भी होती. लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाए. यह हमारी सबसे बड़ी नाकामी है. आने वाला वक्त हमें कभी माफ नहीं करेगा. हमारे लिए अफवाह का धर्म नहीं, इंसानियत का धर्म सबसे बड़ा है.

हम हिंदू हों या मुसलमान, इससे क्या फर्क पड़ता है. हमारे खून के रंग एक हैं. धर्म हमें बांटता नहीं, आपस में जोड़ता है. लेकिन हमने अब धर्म को ही बांट डाला है. वह धर्म है इंसानियत का, ईमान का और सहिष्णुता का.

हमने जो भूल की है, उस पर अब राजनीति की गाढ़ी चाशनी चढ़ाई जा रही है. हलांकि यह चाशनी बेस्वाद और कसैली है. हमें इस पर विचार करना होगा..ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सब को सन्नमति दे भगवान… तभी हमें सच्चे अर्थों में धार्मिक और मानवीय कहलाने का अधिकार होगा, वरना हम किसी ऐसे धर्म की वकालत नहीं करते जो इंसानियत ही मिटाने पर तुला हो. क्या मतलब है ऐसे धर्म और उसकी धारणा का.

हम जिस परिवेश में रहते हैं, वहां सभी धर्मो और संप्रदाय के व्यक्ति रहते हैं. आज दुनिया पर बाजारवाद हावी है. शहरों में पता नहीं किस-किस धर्म के लोग आपस में मिलजुलकर रहते हैं. पता नहीं क्या क्या खाते, पकाते हैं. फिर भी हम उनके साथ पड़ोसी धर्म निभाते हैं.

हमारी पूरी दुनिया ग्लोबल हो चुकी है. अगर हम धार्मिक, जातीय और सांप्रदायिक आधार पर इसी तरह बंट जाएंगे तो कश्मीर में आईएएस काला झंडा फहराएगा. आईएएस पूरी दुनिया को चुनौती देगा. फिर हम चीन, पाकिस्तान और दूसरे मुल्कों से कैसे निपट पाएंगे. नेपाल भी धमकी दे रहा है कि अगर भारत हमारी मदद वक्त पर नहीं की तो हम चीन के साथ चले जाएंगे. अगर ऐसी स्थिति रहीं तो कल हम विश्वमंच पर हासिए पर खड़े होंगे; हमारे श़त्रु हमें चुनौती देने को खड़े हैं लेकिन हम वैश्विक चुनौतियों को समझने के बजाय सांप्रदायिकता का गुणगान कर रहे हैं. हमारे लिए यह चुनौती है.

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