इतिहास अफीम नहीं, वर्तमान टॉनिक है-3
कनक तिवारी
साहित्यिक पत्रिकाओं ने अपनी उद्यमी रचनाशीलता के सहारे संस्कृति के अतिरिक्त देश की राजनीति का भी इतिहास गढ़ा है. ‘सरस्वती‘, ‘चांद‘, ‘मतवाला‘, ‘प्रताप‘, ‘किरती‘, ‘छत्तीसगढ़ मित्र‘, ‘हंस‘, ‘वसुधा‘, ‘पहल‘ वगैरह सैकड़ों पत्रिकाएं इतिहास के यादघर में सदैव सुरक्षित रहेंगी. ‘मतवाला‘ में ही सत्रह बरस के भगतसिंह ने पंजाबी में भाषा और लिपि की समस्या पर निबन्ध लिखकर पचास रुपए का प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल किया था. यह उस तरुण का तर्क था कि प्रत्येक प्रादेशिक भाषा की स्वायत्तता, व्याकरण और शब्द भंडार को सुरक्षित रखते हुए भी देवनागरी लिपि का ही उपयोग करने से राष्ट्रीय एकता का स्वप्न साकार किया जा सकता है.
ऐसा तर्क इतनी ही मजबूती से प्रस्तुत करने की बात साहित्यकारों को नहीं सूझी थी. साहित्यिक पत्रिकाओं की भूमिका का धीरे धीरे नकार हुआ है. श्रमजीवी लेखकों और कस्बाई माहौल में साहित्यिक किताबों और जानकारियों तक के लिए ललक खत्म नहीं हुई है. पुस्तकों को छापने में पूंजीपतियों के लगभग एकाधिकार के कारण बल्कि सरकारी अधकचरी नीतियों का आर्थिक दोहन कर लेने के कारण पूरा प्रकाशन व्यवसाय एक तरह के उद्योग की भाषा में आ गया है.
हिन्दी की कुछ अच्छी पत्रिकाओं मसलन ‘ज्ञानोदय‘ और ‘वागर्थ‘ आदि को धनपतियों का सहारा है. कुछ उद्यमी साहित्यिक पत्रिकाएं बेहतर ढंग से निकालने की देश भर में कोशिशें प्रशंसनीय हैं. महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से अपने भतीजे को लिखा था कि उन्हें भारत की जानकारी के लिए यदि और कुछ न भिजवा सकें तो नियमित रूप से ‘सरस्वती‘ भिजवा दिया करें. विशेषकर ‘पहल‘ ने एक नायाब इतिहास गढ़ा है. उसके सम्पादक उम्रदोज क्या हो रहे हैं ‘पहल‘ को चिरयुवा बनाए रखने में मुश्किलें आ रही हैं.
पत्रिकाओं के सम्पादकों का अपनी पत्रिकाओं से एकाकार हो जाना उन्हीं रचनात्मक उपादानों के जीवन के लिए संकट भी बन जाता है. कलम की ताकत को जनसुलभ बनाए रखने के लिए साहित्यिक पत्रिकाओं के समान जीवन की बुनियाद पर समाज को विचारशील बनाए रखने का कोई विकल्प नहीं होता. यह समस्या भी जिरह मांगती है. निजी प्रयत्नों से साहित्य और अन्य मानवीय कर्मों को जिलाए रखने के लिए जितने आर्थिक सहयोग से काम चल सकता है, उतना तो सरकारें एक एक कार्यक्रम में खर्च कर देती हैं या कभी कभी केवल एक पुस्तक को प्रकाशित करने में.
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इतिहास, संस्कृति, लोक बोलियों, कलाओं और साहित्य के पंचकर्म के संयुक्त उपक्रम में बहुत सी ज्ञान राशि परस्पर लेकिन विलुप्त भी होती जाती है. शोध करना रचनात्मक उद्दीपन का एक बौद्धिक प्रयोजन है. साहित्य, संस्कृति और कला को लेकर भी उत्कृष्ट, उर्वर और भविष्यमूलक शोध की परम्परा में छत्तीसगढ़ अधूरा और अविकसित है. यह कथन विवादित भले हो दुनिया के पहले 200 विश्वविद्यालयों में भारत का स्थान नहीं है. भारत के भी प्रमुख विश्वविद्यालयों में छत्तीसगढ़ का स्थान कहां है? शोध की समस्याएं मुख्यतः रचनाकारों की नहीं हैं. उसका विश्वविद्यालयों के अध्यापकों से सीधा सम्बन्ध है. कई प्रमुख रचनाकार लेखक और समीक्षक हुए हैं जो विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध रहे. उन्हें अपवादस्वरूप ही समझा जाना चाहिए.
मौजूदा विश्वविद्यालयीन शिक्षा का स्तर सोचनीय नहीं, त्रासदायक भी है. फिर भी कई सेवानिवृत्त तथा सेवारत प्राध्यापकों और लेखकों के सहकार से शोध की संभावनाओं के चेहरे को उजला किए जाने की संभावनाएं तो हैं. मुक्तिबोध जैसे अशेष लेखक पर चिंताजनक शोध प्रबंध लिखाए गए हैं. दुरूह समझे जाने के कारण इस लेखक को पाठ्यक्रम से हटा भी दिया गया.
एक स्थायी शोधपीठ स्थापित की जाकर उसमें रचनात्मक शोध के वार्षिक पुर्नमूल्यांकन का काम अनुष्ठान की तरह नहीं प्रयोगशील संकल्प की तरह लिया जा सकता है. रचनात्मक उर्वरता के लेखकों और प्राध्यापकों को इस बौद्धिक प्रयोजन से जूझना अच्छा लग सकता है. अमेरिका वगैरह में तो पृथक् से शोध विश्वविद्यालय हैं. शोध अभियान के अभाव के कारण उच्चतर अध्ययन में कूढ़मगजता का फंगस लग गया है.
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वर्तमान का अंततः अतीत, फिर इतिहास और उसका अन्तरण पुरातत्व में होता है. पुरातात्विक अभिव्यक्तियों में इतना आकर्षण भी होता है जो रचनात्मकता को झिंझोड़ता रहे. देश का यह दक्षिणपूर्वी राज्य प्रचुर लेकिन बहुवर्णी पुरातात्विक सम्पदा को अवशेष के बदले धरोहर के रूप में संजोए रखने के लिए भी भूगोल के नक्शे पर आया है. कई नाम हैं मसलन सिरपुर, मल्हार, कुटुमसर, ताला, मैनपाट, रामगढ़ और न जाने क्या क्या. मिथकों में कौशल्या का मायका इतिहास में वल्लभाचार्य का जन्मस्थान से लेकर महेश योगी का उद्गम भी छत्तीसगढ़ के खाते में है. बहुत सा अनोखा और रोमांचकारी लेखन पुरातात्विक सम्पदाओं, अनुभूतियों और उल्लेखों से सम्पृक्त बल्कि प्रेरित है.
सरकार की कोशिशों से सांस्कृतिक स्थल ‘पुरखौती मुक्तांगन‘ गांव को शहर में लाने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है. वहां बैठकर यही बोध होता है कि हम उस जगह आए हैं जो हमारे लिए कुदरत ने नहीं मनुष्य ने निर्मित की है. सिरपुर या मल्हार या रामगढ़ के पुरातात्विक अवशेषों के आसपास शिविर लगाकर संलाप करने से प्रकृति और अतीत के साथ सहकार करने का अलग तरह का बोध होना लाजिमी है. साहित्य की नई प्रवृत्तियों के एक एक तेवर पर बहुआयामी बहस होती है. पुरातात्विक स्मृतियों के क्षरण या क्षीण हो जाने को जातीय मूल आधार से च्युत होना भी कहा जा सकता है. पुरातत्व की मार्मिक संवेदनाएं रचनाकारों से अतीत में लौटकर उन्हंंें अपने स्फुरण से जीवंत बनाए रखने की चेष्टाएं तो करती हैं. मनुष्य को भी चाहिए कि वह केवल सुने या समझे नहीं अनुकूल आचरण भी करे. इतिहास अफीम नहीं है लेकिन वर्तमान टॉनिक है.
समाप्त
इतिहास अफीम नहीं, वर्तमान टॉनिक है-1