प्रसंगवश

इतिहास अफीम नहीं, वर्तमान टॉनिक है

कनक तिवारी
चौदह वर्ष के अस्तित्व के बाद छत्तीसगढ़ में जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल की तर्ज़ पर एक साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजन दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह में सरकार द्वारा आयोजित किया जा रहा है. कई साहित्यिक, सांस्कृतिक नक्षत्र तीन दिनों तक पुरखौती मुक्तांगन, रायपुर में आधुनिकता और नए विचारों से जुड़े अवदान को रेखांकित करेंगे. यह छत्तीसगढ़ के लिए एक परिघटना है.

पहली बार बौद्धिकता और संस्कृति के इलाके में सार्थक हलचल का संयोग जुटाया गया है. छत्तीसगढ़ के भी कई रचनात्मक प्रतिभागी शिरकत करेंगे. निपट क्षेत्रीयता, बीत गये अनुभव-विवरणों के पुनर्मूल्यांकन, विस्मृत लोगों की खोजबीन, मादरी जुबान और लोक बोलियों के संरक्षक प्रादेशिक भूगोल की सीमा में घटित होती मानवीय अभिव्यक्तियां वगैरह को लेकर आग्रही लोग एक अरसे से सक्रिय रहे हैं. वे चाहते हैं कि छत्तीसगढ़ की अस्मिता, पहचान और विशिष्टता कायम रहे. उसे सोच समझकर बेहतर ढंग से रेखांकित और व्यवहृत किया जाये. शासन द्वारा स्थापित पुरस्कार इसीलिये राष्ट्रीय फलक से हटाकर क्षेत्रीय प्रतिभागियों के लिये मुफीद माने गये. आत्मतुष्ट बौद्धिकता सरोकारों को व्यापक बनाने के बदले उनमें स्थानिकता आंजती रहती है.

अब तक का सरकारी सोच उर्वर या श्लाघनीय नहीं कहा जा सकता था. अविभाजित मध्यप्रदेश की तरह बौद्धिक परिषदें और साहित्यिक सांस्कृतिक अकादमियां नहीं बन सकीं. स्थानीय प्रतिभाओं में उन्हें अवसर मिला जो लॉबिंग कर सकते थे अथवा जिन्हें उपेक्षित नहीं किया जाना सोचा गया. छत्तीसगढ़ को देश की राजधानी की निगाह में प्रतिभास्थली के बदले वनस्थली समझा जाता रहा है. आदिवासी बहुल प्रदेश का आशय गैर आदिवासी जनसंख्या की प्रतिभाशाली इकाइयों का नकार क्यों हो?

देश की बड़ी अकादमियों, विश्वविद्यालयों, उच्चतम न्यायालय, केन्द्रीय मंत्रिपरिषद और अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं में योग्यता के बावजूद छत्तीसगढ़ की सम्मानजनक स्थिति का निषेध है. राज्य के राजनीतिक सरगना मोटे तौर पर संस्कृति जैसे विषय को ‘मरी बछिया बाम्हन‘ के नाम कहते सबसे सीधे सादे मंत्री को उसका प्रभार देते रहना चाहते थे.

बर्फ की सिल्ली को तोड़कर उसमें से नए इरादों, प्रयोगों, आकांक्षाओं और आलोचना की नदी के उफनने का खतरा भी हो, तो भी ऐसे सांस्कृतिक, बौद्धिक आयोजन होते रहना चाहिए. परिवर्तन, प्रस्तुति, प्रयोग आदि नवाचारों का परम्परा जैसी शालीन सांस्कृतिक अभिव्यक्ति से झगड़ा नहीं है. यह बात अलग है कि कई तरह की मानवीय उत्कर्ष की अभिव्यक्तियों, प्रस्तुतियों और नवाचारों की पेशबन्दी कर भी दी जाये तो उनके भविष्य की निरन्तरता के आयाम भी सोच लेने चाहिए.

कोई भी प्रदेश भारतीय संघ राज्य का टापू नहीं है. भारत एक सघन एकल अभिव्यक्ति है. इसलिए छत्तीसगढ़ भी वही है अर्थात् भारत है. भारत होने के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ भी है क्योंकि शरीर का हर अंग शरीर भी है और उसका एक अलग नामधारी अंग भी.

एक बड़े प्रदेश में होने के कारण छत्तीसगढ़ के अधिकारों, दावों और जरूरतों की आनुपातिक अनदेखी होती रही है. यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक अभिरुचियों और लोकजीवन की उपलब्ध्यिों को उनमें परिष्कार करते हुए सहेजे रखना चाहता था. उन्नीसवीं सदी में छत्तीसगढ़ की राजनीतिक चेतना ने संचार साधनों के अभाव के बावजूद अपनी अभिनव पहचान बनाए रखी. सामाजिक और सामासिक संस्कारों से सम्पृक्त होने के लिये किताबी शिक्षा अनिवार्य नहीं है. जीवन खेतों, खलिहानों, कारखानों, स्कूलों, रामायण मण्डलियों, धार्मिक स्थलों, तीज त्योहारों में खदबदाता, पकता रहता है.

यक्ष प्रश्न यही है कि जो कुछ स्वयमेव होता रहा है, क्या सरकारी उपक्रम उनके सहायक सत्कर्म बनेंगे अथवा संस्कृति की नदी का पानी मनुष्य के कर्म से उपजी नहरों में ही डाला जायेगा जिससे वह उन ऊसर खेतों को भी सींच सके जिनकी उपेक्षा या अनदेखी व्यवस्था तय करती है.

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छत्तीसगढ़ में कबीर-परम्परा की अपनी रस, गन्ध की समृद्धि है. कबीर का इस प्रदेश पर असर बहुत गहरा है. कई कबीर गद्दियां धर्माचार्य उपासक अनुयायी तो हैं ही. गुरु घासीदास के प्रचारित जीवन दर्शन में भी कबीर की वाचाल अनुगूंज है.

आशय यह नहीं कि धर्मगद्दियां बना दी जायें अथवा कबीर को पाठ्यक्रमों में शामिल कर दिया जाये या रस्मअदायगी के कबीर महोत्सव मनाए जाएं. ‘सरकार‘ नामक शब्द संविधान की तथा ‘समाज‘ नाम का शब्द पारंपरिक निरन्तरता है. भारतीय लोकतन्त्र के निकष के रूप में कबीर का मानवधर्म धर्मनिरपेक्षता का भी सबसे बड़ा मनुष्य आचरण है.

यह क्यों हुआ कि संविधान सभा में सेक्युलरिज़्म के इतिहास पर चर्चा में सबसे प्राथमिक और आधुनिक कबीर-विचार का उल्लेख किसी सदस्य ने नहीं किया. मध्य युग के सन्तों के उल्लेख भारतीय समाज की एकता के सूत्रों की तरह अलबत्ता हुए हैं. नये किस्म की धर्मनिरपेक्षता को यूरो-अमेरिकी मॉडल पर आधारित लोकतन्त्र की प्राण वायु की तरह जरूरत है. आक्सीजन का वह सिलेन्डर संभवतः सबसे पहले कबीर ने ही बनाया था. सेक्युलरिज़्म शब्द इतना चोटिल हो गया है कि अतिउत्साही हिन्दू उसे मुख्यतः मुसलमान और कभी कभी ईसाई का समानार्थी बताने लगते हैं.

भारत जैसे बहुलधर्मी या सांस्कृतिक बहुलता के अनोखे मुल्क में सेक्युलरिज़्म के कई अर्थ हैं. कुछ के लिए वह हिन्दू विरोधी है. इसलिए अल्पसंख्यकपरस्त, तो कुछ के लिए वह धर्मविमुख है. कुछ के लिए वह सभी धर्मों की कॉकटेल है. कुछ के लिए वह धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय समझ की प्रतिकृति है. सेक्युलरिज़्म सम्बन्धी किसी बड़े प्रकल्प को कबीर के नाम से जोड़कर शुरू किया जाये तो ऐसे ही किसी आयोजन में हर वर्ष संवैधानिक नस्ल की धर्मनिरपेक्षता की वास्तविकता और उपादेयता को लेकर शोध का सिलसिला शुरू किया जा सकता है. शोध में बोध का होना सदैव जरूरी होता है. साहित्य तो वही है जो धर्मनिरपेक्ष है. कबीर ने समाजोन्मुख ‘मीठा मीठा गप‘ नहीं किया, ‘कड़वा कड़वा थू‘ भी किया.

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मातृभूमि कलकत्ता के अतिरिक्त विवेकानन्द तरुण अवस्था में दो वर्ष से अधिक छत्तीसगढ़ में रहे हैं. अपने जीवन के 150 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी विवेकानन्द उस तरह छत्तीसगढ़ में आत्मसात नहीं हुए हैं जो उनका सांस्कृतिक समीकरण है.

रायपुर का हवाई अड्डा और भिलाई का तकनीकी विश्वविद्यालय में नामधारे बूढ़ापारा के बड़े तालाब में बड़ी मूर्ति बन कर बैठे विवेकानन्द संभवतः उन दो घरों को निहारते देखे जा सकते हैं, जहां शायद ही वे निवासरत रहे. भगवा साधु के रूप में कुछ सांस्कृतिक संगठनों द्वारा उनका शोषण जारी है. कथित सेक्युलर संगठनों को भी उनके वस्त्रों में तिरंगे की छटा नहीं दिखाई देती. यह महामानव गांधी, सुभाष, तिलक और नेहरू सहित क्रान्तिकारियों को उत्साहित करता रहा. उनकी जीवन्त इतिहास में छोड़ छुट्टी कर दी गई.

खुद को लघु भारत कहने का दावा करने के बावजूद विवेकानन्द लघु विश्व बनकर विकसित हुए. भारतीय धर्म, परम्परा और वेदान्त का उनमें लाक्षणिक अनुभव है. लेकिन उन्हें ख्याति तो दुनिया के सभी मुल्कों और धर्मों का पारदमिश्रण बनने के जतन के कारण मिली. यदि गंभीर होकर तुलना की जाये तो भारत के संविधान, संयुक्त राष्ट्र संघ और रामकृष्ण मिशन के मकसदों के बहुलांश में उभयनिष्ठता और परिपूरकता को रोमांचित होकर समझा जा सकता है.

विवेकानन्द की स्मृतियों को वैचारिक मुठभेड़ के आयामों में बहाकर आज तक कोई भी संस्था मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय विचार फलक को खंगालने के लिए नहीं बनी है. बड़ा विचारक समकालीन भाषा में जिरह करता है. वह प्राचीन भाषा परम्परा से तर्क मांगता है. वह भविष्यमूलक स्थापना भी करता है. छत्तीसगढ़ सरकार विवेकानन्द के जनपथ की सांस्कृतिक परिघटना को विचार की छाती पर रचनात्मक भूकम्प की तरह उगा दे, तो समकालीन प्रश्नों का जवाब देते हुए भी विवेकानन्द को अतीत और भविष्य के उस सेतु का नाम दिया जा सकता है जिसके पैतृक संरक्षण के नीचे भारतीय दर्शन की ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘‘ वाली थ्योरी को फुलझड़ी की तरह आलोकित रखा जा सकता है. युग प्रर्वतक विचारक साधुओं को अवतारवादी, घी बेचते या हंसी के फव्वारों से युक्त साधु-भंगिमाओं से अलग दिखाना भी तो लोककर्म है.
जारी
इतिहास अफीम नहीं, वर्तमान टॉनिक है-1

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