कलारचना

थिरकती ताल के साथ छोड़ गईं सितारा देवी

मुंबई | एजेंसी: उस समय जब नाटकशाला, नाटकों और गीतों में भी पुरुष महिलाओं के परिधानों को पहनकर उनके किरदार अदा करते थे, तब सितारा देवी ने इस रुढ़िवादी परंपरा को तोड़ा था. सितारा देवी का जन्म कोलकाता में 1920 में हुआ था. चूंकि उनके जन्मदिन के दिन दीवाली थी इसलिए उनका नाम धनलक्ष्मी रखा गया. उनके परिवार के लोग उन्हें प्यार से धन्नो कहकर भी बुलाते थे.

सितारा देवी बाद में एक महान हस्ती बन गईं. उन्हें भारतीय नृत्य शैली की विधा कथक के प्रतिपादक के रूप में जाना जाने लगा.

सितारा देवी ने बीच में ही अपनी स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी और ढेरों विषम परिस्थितियों के बाद भी उन्होंने अपने द्वारा चुनी गई विधा में उत्कृष्टता हासिल की. और कथक को लड़कियों के नाचने के प्रक्षेत्र से उसे वैश्विक परिदृश्य में लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है.

16 साल की आयु में भारत के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्र नाथ टैगोर के सामने सितारा के प्रदर्शन ने उन्हें स्तब्ध कर दिया था, जिसके बाद उन्होंने सितारा देवी को ‘नृत्य साम्रज्ञनी’ ने शीर्षक से नवाजा था.

सितारा देवी वाराणसी के एक साधारण लेकिन बहुत ही प्रतिभावान ब्राह्मण परिवार से आतीं थीं, जो कोलकाता में रहता था. बाद में उनका परिवार मुंबई जाकर बस गया.

उनके पिता सुखदेव महाराज संस्कृत के विद्वान थे, उन्होंने भारतीय नाट्यशास्त्र में अनुसंधान किया था. वह कथक नृत्य शैली के शिक्षक थे. वह नेपाल की शाही अदालत के भी सदस्य थे और उनकी मां नेपाल के एक शादी परिवार से ताल्लुक रखती थीं.

1920 में सुखदेव महाराज की मुलाकात टैगोर से हुई. टैगोर ने उन्हें खोती जा रही भारतीय नाट्य शैली कथक को पुनर्जीवित करने और एक सम्मानजनक स्थिति तक ले जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

सुखदेव महाराज ने कथक को पुनर्जीवित करने के लिए उसमें धार्मिक तत्वों को शामिल किया, और धीरे-धीरे यह प्रचलित हो गया.

उन्होंने अपनी बेटियों अलकनंदा, तारा, धन्नो, बाद में सितारा देवी और बेटे चौबे और पाण्डे को भी कथक सिखाया.

वे वाराणसी लौट गए, और वहां पर एक नृत्य स्कूल खोल लिया, जिसमें स्थानीय वैश्याओं की बेटियों ने भी दाखिला लिया. कथक को लोकप्रिय बनाने के लिए सुखदेव महाराज को सामाजिक बहिष्कार की भी लड़ाई लड़नी पड़ी.

धन्नो जब आठ साल की थी तब उसकी शादी तय कर दी गई, उसने इसके खिलाफ आवाज उठाई और स्कूल जाने की जिद की. अंत में परिवार थोड़ा नरम हुआ और कामछागढ़ हाई स्कूल में उसका दाखिला करा दिया.

वहां धन्नो को नर्तकी के रूप में जाना जाने लगा, और उससे प्रभावित शिक्षक उसे दूसरे बच्चों को नृत्य सिखाने के लिए कहते थे.

बाद में धन्नो के पिता को उसकी अपार प्रतिभा का पता चला. उन्होंने उसका नाम बदलकर सितारा देवी रख दिया और उसे सितारा की बड़ी बहन तारा के सानिध्य में रख दिया. तारा प्रसिद्ध कथक प्रतिपादक गोपी कृष्ण की मां थीं.

10 साल की उम्र में सितारा देवी ने एक साल के लिए वाराणसी के एक स्थानीय नाटकशाला में फिल्म अंतराल के दौरान एकल प्रदर्शन शुरू कर दिया. और 1931 में उनका परिवार मुंबई स्थानांतरित हो गया.

उनका नृत्य जीवंत ऊर्जा से भरा हुआ था. मुबंई पहुंचने के कुछ ही दिनों में उन्होंने सर सी. जे. हॉल में अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी.

बाद में सितारा देवी ने 11 साल की उम्र में एक निजी शाही महल में टैगोर, सरोजनी नायडू और सर कोवासजी जहांगीर समेत एक निश्चित दर्शको ंके बीच प्रदर्शन किया था.

ऐसे ही एक प्रदर्शन में टैगोर ने उन्हें सार्वजनिक रूप से एक शॉल और 50 रुपये के उपहार से सम्मानित किया था. इसे सितारा देवी अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा सम्मान मानती थीं.

सितारा देवी ने कहा था, “उस समय मेरे पिता फुसफुसाए और बोले-केवल उपहार मत लो, वह एक महान व्यक्ति हैं, उनका आशीर्वाद लो. तब मैंने गुरुदेव से किसी दिन एक महान नर्तकी बनने का आशीर्वाद मांगा.”

पांच साल बाद टौगोर ने उन्हें ‘नृत्य साम्राज्ञनी’ कहकर पुकारा था, यह सम्मान सितारा को मरते वक्त तक प्रिय था.

1932 के करीब धन्नो को एक फिल्मनिर्माता और नृत्य निर्देशक निरंजना शर्मा ने उन्हें काम पर रखा. उन्होंने ‘ऊषा हरण’, ‘नगीना’, ‘रोटी’ और ‘वतन’ , ‘अंजली’ और महाकाव्य ‘मदर इंडिया’ में उन्होंने नृत्य दृश्य किए. मदर इंडिया में उन्होंने एक होली के गाने पर लड़के के परिधान पहनकर नृत्य किया था.

सितारा देवी को पद्म श्री समेत कई सम्मान मिले. लेकिन उन्होंने पद्म भूषण को यह कहते हुए स्वीकार करने से इंकार कर दिया था कि कथक में उन्होंने अपार योगदान दिया है इसीलिए उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए.

हालांकि ऐसा नहीं हो पाया और कथक नाट्य शैली का एक सितारा मंगलवार की सुबह धुंधला गया.

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