क्यों याद रहते हैं गुरुदत्त
मुंबई | समाचार डेस्क: हिंदी फिल्मजगत में गुरुदत्त एक ऐसी शख्सियत थे, जिनकी पहली पसंद अभिनय कभी नहीं रहा, लेकिन फिर भी लोग उनके सरल, संवेदनशील और स्वाभाविक अभिनय का लोहा मानते थे. वह उन बेहतरीन कलाकारों में से थे जिनकी अदाकारी की मिसाल आज भी दी जाती है. बेंगलुरू में 9 जुलाई 1925 को जन्मे गुरुदत्त का असली नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था. उनका बचपन बेहद कष्टमय रहा. पढ़ाई में अच्छे होने के बावजूद परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण वह कभी कॉलेज नहीं जा सके. लेकिन कला के क्षेत्र में कड़ी मेहनत और लगन से उन्होंने विश्वस्तरीय फिल्म निर्माता और निर्देशक के रूप में अपनी पहचान बनाई. साहित्य में उनकी रुचि थी और संगीत की उन्हें अच्छी समझ थी, जिसकी झलक उनकी सभी फिल्मों में दिखती है.
बॉलीवुड में गुरुदत्त वर्ष 1944 से 1964 तक सक्रिय रहे. इस दौरान उन्होंने कई बेहतरीन फिल्में दीं. कुछ फिल्मों में खुद अभिनय भी किया, जबकि कुछ का केवल निर्देशन किया.
एक सर्वेक्षण के मुताबिक, उन्हें सिनेमा के 100 सालों में सबसे बेहतरीन निर्देशक माना गया. पत्रिका टाइम के अनुसार, गुरुदत्त के निर्देशन में बनी फिल्म ‘प्यासा’ दुनिया की 100 बेहतरीन फिल्मों में से एक है.
उनके करीबी लोग कहते हैं कि गुरुदत्त अपने काम से कभी संतुष्ट नहीं होते थे. उन्होंने कई अच्छी फिल्में बनाईं, काफी मशहूर भी हुए, लेकिन इससे ज्यादा करने की चाहत उनमें हमेशा बनी रही. रचानात्मकता की उनकी प्यास कभी कम नहीं हुई.
गुरुदत्त के बारे में यह बात कम ही लोग जानते हैं कि वह अच्छे नर्तक भी थे. उन्होंने प्रभात फिल्म्स में एक कोरियोग्राफर की हैसियत से अपने फिल्मी जीवन का आगाज किया था. वह लेखक भी थे. उन्होंने कई कहानियां लिखी थीं, जो अंग्रेजी पत्रिका ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ में छपीं.
गुरुदत्त के पिता का नाम शिवशंकर राव पादुकोण था. मां वसंती पादुकोण की नजर में गुरुदत्त बचपन से ही बहुत नटखट और जिद्दी थे. सवाल पूछते रहना उसका स्वभाव था. कभी-कभी उनके सवालों का जवाब देते-देते मां परेशान हो जाती थीं. उनकी मां ने एक साक्षात्कार में कहा था, “वह किसी की बात नहीं मानता था. हमेशा अपने मन की करता था. बहुत गुस्सैल भी था.”
उन्होंने गायिका गीता दत्त से सन् 1953 में विवाह किया. ‘प्यासा’ और ‘कागज के फूल’ जैसी क्लासिक फिल्मों के निर्माता गुरुदत्त के बेटे अरुण दत्त कहते हैं कि वह अक्सर चुप और गंभीर रहते थे. लेकिन उनका मन हमेशा एक बच्चे जैसा था. वह पतंग उड़ाते, मछली पकड़ते और फोटोग्राफी भी करते थे. गुरुदत्त को खेती करना भी काफी सुहाता था.
उनकी पहली फीचर फिल्म ‘बाजी’ (1951) देवानंद की नवकेतन फिल्म्स के बैनर तले बनी थी. इसके बाद दूसरी सफल फिल्म ‘जाल’ (1952) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे. इसके बाद गुरुदत्त ने ‘बाज’ (1953) फिल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की. उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फिल्मों में ही प्रदर्शित हुआ.
गहरे चिंतन से भरी उनकी तीन बेहतरीन फिल्में हैं- ‘प्यासा’ (1957), ‘कागज के फूल’ (1959) और ‘साहब, बीबी और गुलाम’ (1962). हालांकि ‘साहब, बीबी और गुलाम’ का श्रेय उनके सह पटकथा लेखक अबरार अल्वी को दिया जाता है, लेकिन यह मूल रूप में यह गुरुदत्त की कृति थी.
गुरुदत्त ने ‘सीआईडी’ में वहीदा रहमान को लिया और हिंदी फिल्म जगत को एक प्रतिभावान अभिनेत्री दी. ‘प्यासा’ व ‘कागज के फूल’ जैसी फिल्मों ने वहीदा को कीर्तिस्तंभ की तरह स्थापित कर दिया.
गुरुदत्त ने एक बार कहा था, “देखो न, मुझे निर्देशक बनना था, बन गया. अभिनेता बनना था, बन गया. अच्छी फिल्में बनानी थी, बनाईं. पैसा है, सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा.”
कहा जाता है, शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 1964 में उन्होंने आत्महत्या कर ली. गुरुदत्त 10 अक्टूबर, 1964 को मुंबई में अपने बिस्तर पर रहस्यमय स्थिति में मृत पाए गए.