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प्रवीर चंद्र भंजदेव : एक अभिशप्त नायक या आदिवासियों के देवपुरुष

रमेश अनुपम
दिल्ली से वापस बस्तर लौटते समय धनपूंजी नामक गांव में 11 फरवरी सन 1961 को प्रवीर चंद्र भंजदेव की तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा की गई गिरफ्तारी महज संयोग मात्र नहीं थी अपितु कांग्रेस सरकार का यह पहले से ही तयशुदा एजेंडा था.

मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू ने जैसे पहले ही यह ठान लिया था कि प्रवीर चंद्र भंजदेव को उनकी रियासत में घुसने से पहले ही गिरफ्तार कर मजा चखाना है.

इसके कारणों और घटनाओं को जानने के लिए थोड़ा इतिहास के पृष्ठों में जाना होगा.

सन 1947 में देश आजाद हो गया था पर प्रशासनिक अधिकारियों का जनता के प्रति रवैया बिल्कुल ही नहीं बदला था. प्रवीर चंद्र भंजदेव के प्रति भी बस्तर के प्रशासनिक अधिकारियों का रवैया सम्मानजनक और सहानुभूतिपूर्ण नहीं था. कांग्रेस पार्टी का रवैया भी कमोबेश कुछ ऐसा ही था.

प्रवीर चंद्र भंजदेव को समझने की कोशिश न कांग्रेस सरकार ने की और न ही बस्तर के प्रशासनिक अधिकारियों ने. दोनों ने अपने अपने अहंकार और दंभ के चलते प्रवीर चंद्र भंजदेव को समझने में भूल की.

इसका परिणाम यह हुआ कि प्रवीर चंद्र भंजदेव को पागल करार कर दिया गया. यही नहीं बल्कि 20 जून सन 1953 को प्रवीर चंद्र भंजदेव की सारी संपत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन कर ली गई. अर्थात अब महाराजा की अपनी संपत्ति पर ही किसी तरह का कोई अधिकार नहीं रह गया था.

सन 1957 में देश में दूसरा आम चुनाव होना था. देश की आजादी के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में पहला आम चुनाव सन 1952 में संपन्न हो चुका था. कांग्रेस पूरे देश में भारी बहुमत से विजयी हुई थी.

पर बस्तर में बस्तर लोक सभा सीट पर कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था.

बस्तर लोक सभा सीट से महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव समर्थित तथा स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार मुचाकी कोसा की 1लाख 77 हजार से भी ज्यादा वोटों से जीत हुई थी. कांग्रेस उम्मीदवार सुरती क्रिस्टीया को मात्र 36 हजार वोट ही मिल पाए थे.

इसलिए बस्तर में सन 1957 का आम चुनाव कांग्रेस के लिए काफी कुछ प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव था.

कांग्रेस को तब तक यह पता चल चुका था कि महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की मदद के बिना बस्तर में सन 1957 का दूसरा आम चुनाव जीत पाना संभव नहीं है.

इसका एक प्रमुख कारण यह भी था कि प्रशासनिक अमला और कांग्रेस पार्टी की लाख कोशिशों के बावजूद बस्तर में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की लोकप्रियता कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी. बस्तर के आदिवासियों के लिए वे किसी देवपुरुष से कम नहीं थे. बस्तर के महाराजा के लिए भी बस्तर के भोले-भाले आदिवासी उनके अपने बच्चों की तरह थे, जिनके लिए वे सदैव चिंतित रहा करते थे.

सो महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की अपार लोकप्रियता को देखते हुए कांग्रेस के लिए यह जरूरी हो गया कि वह महाराजा के शरण में जाए. अतः कांग्रेस ने तय किया कि जिस महाराजा को पागल घोषित कर उसकी संपत्ति को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन कर लिया था, उससे समझौता कर लिया जाए.

जो महाराजा कल तक कांग्रेस के लिए आंख की किरकिरी साबित हो रहे थे वही अब चुनाव जीतने के लिए उनकी आंखों का तारा बन चुके थे.

राजनीति जो न कराए सो कम है. चुनाव जीतना उन दिनों भी किसी राजनैतिक पैंतरा से कम नहीं था.छल, बल सब कुछ राजनीति में उन दिनों भी जायज माना जाता था.

कांग्रेस की ओर से महाराजा को संदेश भेजा गया कि वे आम चुनाव में कांग्रेस की मदद करें तो उनकी संपत्ति उन्हें वापस कर दी जाएगी.

यही नहीं उन्हें यह संदेशा भी भेजा गया कि कांग्रेस अब पहले जैसी कोई गलती नहीं करेगी और महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के प्रति पूर्ण सम्मान सहित उनके हितों का भी ध्यान रखेगी.

सन 1957 के आम चुनाव में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को जगदलपुर से तथा उनके अनुयायियों को अन्य जगहों से कांग्रेस के चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी से चुनाव लड़वाया गया.

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की बस्तर में अपार लोकप्रियता के चलते महाराजा सहित उनके सारे अनुयायी भारी बहुमत से चुनाव में विजयी हुए. यह बस्तर में कांग्रेस की सबसे बड़ी विजय सिद्ध हुई.

इस सबके बावजूद महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ कांग्रेस ने न्याय नहीं किया वरन उन्हें धोखा ही दिया गया.

उनकी संपत्ति उन्हें वापस करने के बजाय कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अधीन ही रखी गई.

कांग्रेस ने आम चुनाव के पूर्व महाराजा से किए गए एक भी वायदे को पूरा नहीं किया. बल्कि उन्हें फिर से नीचा दिखाने की कोशिश की जाने लगी.

कारण स्पष्ट था महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव आदिवासियों के शोषण के खिलाफ थे. वे बस्तर के जंगलों, पहाड़ों और खनिजों के दोहन के पूर्णतः खिलाफ थे. वे बस्तर के आदिवासियों के हर तरह की लूट के खिलाफ थे.

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ने इस सबसे आहत होकर विधानसभा की सदस्यता तथा कांग्रेस पार्टी दोनों से ही इस्तीफा देना बेहतर समझा. उन्होंने समझ लिया था कि विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने केवल और केवल उनका उपयोग ही किया है.

इधर बस्तर का प्रशासन भी जिन लोगों के हाथों में था वे भी न तो महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की भावनाओं और विचारों को ठीक-ठीक समझ पाने की कोई कोशिश रहे थे और न ही बस्तर के आदिवासियों की मूलभूत समस्याओं तथा पीड़ा की ही ईमानदारी के साथ थाह लेने का कोई सार्थक प्रयास.

उस समय की स्थिति को लेकर न कांग्रेस सरकार गंभीर थी और न ही बस्तर प्रशासन ही. दोनों ही इस मामले में निरंकुश और असंवेदनशील सिद्ध हुए.

इसलिए स्थितियां लगातार बिगड़ती चली गईं. इन बिगड़ती हुई स्थितियों को संभालने की चिंता न कांग्रेस सरकार को थी और न ही बस्तर प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों को ही.

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव इन्हीं सब बातों की चर्चा करने के लिए पहले भोपाल गए और मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू से मिले. वहां से दिल्ली जाकर देश के गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से मिले. महाराजा ने सोचा था कि भोपाल और दिल्ली में बैठे हुए नए हुक्मरान बस्तर के आदिवासियों के दुख दर्द को समझेंगे और इसका कोई हल निकालेंगे.

लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा ही. महाराजा को कहीं से भी न्याय नहीं मिला. उल्टे दिल्ली से बस्तर वापसी के समय उन्हें धनपूंजी नामक गांव में गिरफ्तार कर लिया गया.

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी एक तरह से शासन-प्रशासन की बहुत बड़ी भूल थी. जिसका आसानी से कोई हल निकाला जा सकता था, उसे जानबूझ कर इतना उलझा दिया गया था.

बस्तर के आदिवासियों की संवेदना महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ पहले से ही जुड़ी हुई थी, वे उन्हें अपने रक्षक के रूप में देखते थे और शासन-प्रशासन को अपने शत्रु के रूप में.

महाराजा की इस तरह की बेतुकी गिरफ्तारी के चलते बस्तर के आदिवासियों का शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोशित होना स्वाभाविक ही था.

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी के विरोध में बस्तर में भीतर ही भीतर चिंगारी सुलगने लगी थीं, जो लोहांडीगुड़ा में एक दिन ज्वालामुखी के रूप में आखिर फूट पड़ी थी.

आज भी बस्तर के स्वर्णिम इतिहास में लोहांडीगुड़ा गोली कांड को एक कलंकित और काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है.

शासन द्वारा 11 फरवरी सन 1961 को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को गिरफ्तार कर उनके अनुज विजय चंद्र भंजदेव को आनन फानन में बस्तर रियासत का महाराजा घोषित कर दिया गया. शासन प्रशासन की यह भी एक कूटनीतिक चाल थी, जो सफल नहीं हो पाई.

इसके ठीक 40 दिनों बाद ही 24 और 25 मार्च सन 1961 को लोहांडीगुड़ा और आस-पास के गावों में आदिवासियों के भीतर का दबा हुआ आक्रोश फूट पड़ा.

पहली बार 24 मार्च को प्रत्येक शुक्रवार के दिन लोहांडीगुड़ा में लगने वाले हाट में आदिवासियों ने बाजार टैक्स अदा करने से मना कर दिया तथा साथ ही गैर आदिवासी व्यापारियों के बाजार में दुकान लगाने का विरोध किया.

उस दिन सभी आदिवासियों के हाथों में लाठी और कुल्हाड़ी थी. शासन द्वारा महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी ने हमेशा शांत रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों के हृदय में ज्वाला प्रज्वलित कर दी थी.

उस दिन उन्होंने हाट में मौके पर उपस्थित तहसीलदार पर हमला करने की कोशिश भी की पर तहसीलदार किसी तरह अपने प्राण बचाकर भागने में सफल हो गए.

देवड़ा और करंजी में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में भी आदिवासियों ने इसी तरह का विरोध किया.

इस तरह की घटनाओं को देखते हुए स्थानीय प्रशासन ने जगदलपुर से हथियारबंद जवानों को वहां भेजा. अनेक आदिवासी नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया.

लोहांडीगुड़ा, तोकापाल, सिरसागुडा सभी जगह महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को तत्काल रिहा किए जाने की मांग जोर पकड़ती चली गई.

साप्ताहिक हाट बाजारों में बाजार टैक्स वसूली तथा गैर आदिवासी व्यापारियों के बाजार में दुकान लगाने के खिलाफ नाराजगी बढ़ती चली गई. इसी के साथ महाराजा को रिहा करने की मांग भी जोर पकड़ती चली गई.

सोमवार को तोकापाल में लगने वाले हाट बाजार में पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए टियर गैस का सहारा लेना पड़ा. उस दिन आदिवासियों ने पुलिस बल पर पत्थर फेंके जिससे कुछ पुलिस वाले बुरी तरह से घायल हो गए.

घटना स्थल पर उपस्थित पुलिस सुपरिटेंडेट आर.पी. मिश्रा पर भी आदिवासियों ने पत्थर फेंके, पर वे किसी तरह बच निकले. पुलिस ने इससे क्षुब्ध होकर कुछ आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया.

आदिवासियों की भीड़ ने अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए पुलिस वैन को घेर लिया.

यह सब 31 मार्च के लोहांडीगुड़ा गोली कांड की पूर्वपीठिका ही थी, जिसे या तो शासन-प्रशासन समझ पाने में असमर्थ था या फिर जानबूझकर इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत ही नहीं समझी गई थी.

31 मार्च सन 1961, दिन शुक्रवार, हमेशा की तरह लोहांडीगुड़ा का हाट बाजार का दिन. हमेशा की तरह आस-पास के आदिवासी सौदा सुलुफ करने लोहांडीगुड़ा पहुंचने लगे थे. पर आज नजारा आम दिनों में लगने वाले हाट बाजार से कुछ अलग ही था.

आज भीड़ कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी. आदिवासियों के चेहरे भी आज कुछ अलग दिखाई दे रहे थे. हमेशा शांत दिखने वाले भोले भाले आदिवादियों की आंखों में जैसे चिंगारियां फूट रही थी.

देखते ही देखते 10 हजार आदिवासी लोहांडीगुड़ा बाजार में इकट्ठे हो गए थे. सभी माड़िया आदिवासी, महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के अनन्य भक्त. जो अपने अजीज महाराजा के लिए कुछ भी कर सकते थे. ज्यादातर आदिवासी अपने-अपने हाथों में धनुष, टंगिया लिए हुए.

आज का दिन जैसे उनके लिए कयामत का दिन था. अपने देवता तुल्य महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के लिए कुछ करने और शासन-प्रशासन से दो-दो हाथ करने का दिन.

लोहांडीगुड़ा की हवा में उस दिन कुछ अलग ही गंध थी और फिजा में कुछ अलग ही रंगत.

31 मार्च सन 1961 का दिन बस्तर के इतिहास में कोई मामूली दिन नहीं था.
….
31 मार्च सन 1961 को लोहंडीगुड़ा में जो कुछ भी दुर्भाग्यजनक घटित हुआ उससे बस्तर के आदिवासियों के प्रति शासन के उदासीन रवैए का पता तो चलता ही है, साथ में इस अत्यंत संवेदनशील मामले को लेकर शासन-प्रशासन की घोर लापरवाही और बदनियत का भी पता चलता है.

पिछले एक सप्ताह से बस्तर सुलग रहा था. लोहंडीगुड़ा, देवड़ा, करंजी, तोकापाल, सिरसागुड़ा और आस-पास के माड़िया बहुल गांवों में महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी को लेकर आक्रोश अपनी चरम सीमा पर था.

साप्ताहिक हाट बाजारों में बाजार टैक्स और गैर आदिवासी व्यापारियों को लेकर विरोध विस्फोटक स्थिति तक पहुंच चुका था. इन सारी स्थितियों को देखते हुए यह अनुमान लगाना सहज था कि इन आदिवासी गावों में कभी भी, कुछ भी दुर्घटना घटित हो सकती है.

पर शासन-प्रशासन को जैसे इस सबसे कोई मतलब नहीं था. राज बदल गया था, निजाम भी बदल चुका था पर अगर कुछ नहीं बदला था तो वह था इस नए निजाम के राज में भी भोले-भाले बस्तर के आदिवासियों पर होने वाले जुल्म और अन्याय का एक अनवरत सिलसिला.

अगर कुछ नहीं बदला था तो वह था बस्तर के आदिवासी पहले भी शासन-प्रशासन और गैर आदिवासियों के शोषण का शिकार होते थे, आजादी के बाद भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी था.

तन पर पहले भी केवल एक लंगोटी हुआ करती थी, आजादी के बाद भी तन ढकने लायक वस्त्र उनके नसीब में नहीं लिखे थे.

एक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव ही थे जो उनकी चिंता करते थे, मध्य प्रदेश और दिल्ली के नए हुक्मरानों से उनके हक के लिए लड़ने के लिए तैयार रहते थे.

इसलिए महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव हमेशा शासन-प्रशासन की आंखों की किरकिरी साबित होते थे, जबकि वे चाहते तो उनकी आंखों का तारा भी बन सकते थे.

पर पता नहीं वे किस धातु के बने थे कि शासन-प्रशासन का कोई भी प्रलोभन उन्हें कभी लुभा नहीं पाया.

डॉ . धर्मवीर भारती की काव्य पंक्ति को यहां उद्धृत करना शायद गलत नहीं होगा :
“चेक बुक पीली हो या लाल
दाम सिक्के हो या शोहरत
कह दो उनसे
जो खरीदने आए हैं तुम्हें
हर भूखा आदमी बिकाऊ नहीं
होता है”

यहां भूखा आदमी की जगह ईमानदार आदमी सही शब्द होगा. प्रवीर चंद्र भंजदेव के लिए यही शब्द उपयुक्त है. तो लोहंडीगुड़ा और आस-पास के गावों में विरोध की चिंगारियां पहले से ही फूट पड़ी थी. इन चिंगारियों को तो ज्वालामुखी बन कर एक दिन फटना ही था.

31 मार्च, शुक्रवार लोहंडीगुड़ा का साप्ताहिक बाजार हमेशा की तरह अपने पूरे शबाब पर था, पर इस शबाब में भी एक अलग तरह की तुर्शी छाई हुई थी.

हमेशा की तरह कुछ आदिवासियों के हाथों में तीर धनुष, कुल्हाड़ी जैसे अस्त्र-शस्त्र थे, कुछ के हाथों में लाठियां थी और ज्यादातर आदिवासी निहत्थे थे. पर सबकी आंखों में एक जुझारूपन था ‘कि देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है.’

लोहंडीगुड़ा में देखते ही देखते दस हजार आदिवासियों का सैलाब उमड़ पड़ा था. दिलों में जोश और जुनून दोनों जैसे हिलोरें मार रहे थे ‘ वक्त आने पर बता देंगे तुझे ओ आसमां. हम अभी से क्या बताएं जो हमारे दिल में है.’

लोहंडीगुड़ा में उनकी सभा चल रही थी. सभी शासन और प्रशासन से सवाल पूछ रहे थे कि उनके निर्दोष महाराजा को किस जुर्म में गिरफ्तार किया गया है? उनकी रिहाई में अभी और कितनी देर है ?

पुलिस और प्रशासन कई बार आग को बुझाने की जगह आग में घी डालने का काम करते हैं. किसी चीज को सुलझाने के स्थान पर उसे उलझाने में कुछ ज्यादा ही रुचि दिखाते हैं.

बस्तर के आदिवासी और प्रवीर चंद्र भंजदेव वैसे भी उनकी हिट लिस्ट में थे. सो मामला को तो वैसे भी बिगड़ना ही था.

गोली तो चलनी ही थी, वह भी निर्दोष आदिवासियों के सीने पर. दुख भी उनके हिस्से, शोषण भी उनके हिस्से और अब स्वतंत्र भारत में गोली भी उनके हिस्से.

‘दंडकारण्य समाचार’ बस्तर का सबसे प्राचीन समाचार पत्र. अंग्रेजी और हिंदी का साप्ताहिक मुखपत्र.

1 अप्रैल सन 1961 को अंग्रेजी ‘दंडकारण्य समाचार’ के मुखपृष्ठ पर एक समाचार प्रमुखता के साथ प्रकाशित हुआ : “Ten person were killed on the spot and seven injured brought Maharani Hospital of whom two sucummed to their injuries when the police opened fire to check a ten thousand strong hostile and determined tribal crowd who sorrounded the police station and attemped to attack the police party and officers at lohandiguda afternoon March 31st.”

(दस लोग घटना स्थल पर मारे गए तथा सात लोग घायल हैं, जिन्हें महारानी अस्पताल में भर्ती किया गया है. दस हजार की भीड़ ने थाने का घेराव कर लिया था जो अपनी मांगों को लेकर अड़े हुए थे. पुलिस तथा उनके अधिकारियों पर 31 मार्च की दोपहर भीड़ ने हमला कर दिया जिसके फलस्वरूप पुलिस को गोली चलानी पड़ी.)

यह पुलिस और प्रशासन की ओर से जारी स्टेटमेंट था.

उस दिन बस्तर कमिश्नर आर. पी. नरोन्हा भी जगदलपुर में नहीं थे, वे कांकेर में थे. इस घटना की खबर उन्हें कांकेर में मिली.

पुलिस और प्रशासन को इससे क्या फर्क पड़ता है कि दस आदिवासी मरे या सौ. वे तो उनकी नजरों में केवल मरने के लिए ही बस्तर नामक ग्रह पर पैदा हुए हैं और वह भी आदिवासी कुल में.

इसलिए इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है कि बस्तर के आदिवासी जीए या पुलिस की गोलियों से मरे.

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