Columnist

ये जानलेवा कीटनाशक

देविंदर शर्मा
यह 1980 के दशक के मध्य की बात है, जब पेस्टिसाइड एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया मुझे फील्ड ट्रिप पर लेकर गयी थी.खेतों में घुमाते समय उन्होंने मुझे उन सुरक्षात्मक वस्त्रों को दिखाया, जो कीटनाशकों का छिड़काव करते समय पहनने के लिए कीटनाशक उद्योग श्रमिकों को उपलब्ध करवा रहा था. खेत मज़दूरों को हाथ के दस्ताने, फेस मास्क, कैप और गम बूट्स जैसे कपड़ों को पहन कर फसलों पर कीटनाशकों का छिड़काव करते देखना आश्वस्त कर देने वाला था.

अब लगभग 40 साल बाद मैं ये खबर पढ़कर स्तब्ध हूँ कि महाराष्ट्र में 50 खेत मज़दूरों की मौत का कारण संभवतः कीटनाशक का ज़हर था और लगभग 800 अन्य लोगों को विभिन्न अस्पतालों में भर्ती कराया गया है. लगभग 25 लोगों की आंखों की रोशनी चली गयी और लगभग इतने ही लोग जीवन रक्षक मशीनों के सहारे हैं. सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इस त्रासदी को सामने लाने के बाद महाराष्ट्र सरकार की नींद खुली और इस संबंध में जांच का आदेश जारी किया गया है. मृतकों के निकटतम परिजनों के लिए 2 लाख रुपये की मुआवजा राशि की घोषणा भी की गयी है.

जाहिर है पिछले 40 सालों में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. केवल महाराष्ट्र को ही क्यों दोष दें, पूरे देश की हालत एक जैसी है क्योंकि मानव जीवन की कोई कीमत नहीं है. खास कर जब मामला सबसे गरीब वर्ग का हो. मौत हो या स्थायी विकलांगता समाज को ज़रा भी फर्क नहीं पड़ता. काश! कीटनाशक उद्योग, राज्य कृषि विभाग के अधिकारियों और किसानों ने मिलकर जागरूकता अभियान चलाया होता और कीटनाशक छिड़काव करने से पूर्व श्रमिकों के लिए सुरक्षात्मक वस्त्रों को पहनना अनिवार्य कर दिया होता तो महाराष्ट्र की त्रासदी टाली जा सकती थी.

आरंभिक तौर पर महाराष्ट्र त्रासदी का जो मुख्य कारण माना जा रहा है, उसके अनुसार बीटी कपास की फसल पिछले दो सालों से बॉलवर्म कीड़े का हमला सहन करने में असफल साबित हुई थी, जिसके कारण किसानों ने कीटनाशकों के घातक मिश्रण के छिड़काव का रास्ता अपनाया.

कीटनाशक ज़हर हैं. कीटनाशक के डिब्बों पर लीथल लेवल 50 (एल एल 50 ) के बारे में कुछ भी दावा हो, सच तो ये है कि ये रसायन और कुछ नहीं, घातक ज़हर ही है. इसलिए इनके इस्तेमाल के समय अत्यधिक सावधानी बरतने की ज़रूरत है. परन्तु आपने कब किसी कृषि श्रमिक को फेस मास्क लगाकर कीटनाशक का छिड़काव करते देखा है? मास्क तो दूर की बात है, मैंने तो इन श्रमिकों को छिड़काव करते समय दस्ताने पहने भी नहीं देखा. अगर आपको लगता है कि मैं गलत कह रहा हूं तो अगली बार हाईवे पर निकलें तो सड़क से लगे खेतों में कीटनाशकों का छिड़काव करते श्रमिकों को ध्यान से देखें.

यहाँ पर किसानों की भी गलती है. चूंकि छिड़काव दैनिक मज़दूरों द्वारा किया जाता है तो बहुत ही कम किसान ऐसे है जो ये सुनिश्चित करते हों कि मजदूरों ने आवश्यक सावधानी बरती है. उनकी कोशिश होती है कि कीटनाशक का छिड़काव करने वाला मजदूर जल्द से जल्द काम पूरा कर दे. इन मजदूरों की सुरक्षा और उनके स्वास्थय से उन्हें कोई लेना देना नहीं होता है. कीटनाशकों के जो अवशेष शरीर में चले जाते हैं उनका हानिकारक असर दिखने में समय लगता है और तब तक तो मजदूर काम ख़त्म कर के, अपनी मज़दूरी ले कर जा चुके होते हैं. जब इन श्रमिकों को अंततः अस्पताल लाया जाता है तब कीटनाशक से ज़हर फैलने की आशंका तक पर विचार नहीं किया जाता है. वास्तव में, किसानों की मौत के मामले में कीटनाशक से होने वाली मौतों की तरफ कभी ध्यान ही नहीं दिया गया है.

मौसम के हिसाब से कीटनाशक का छिड़काव करने का सबसे उपयुक्त समय सुबह 6 से 8 या शाम 6 बजे के बाद होता है.

कीटनाशकों का छिड़काव भोर में या देर शाम को किया जाना चाहिए. कीटनाशक संबंधी नियमों में ये सावधानी बताई जाती है परन्तु इसका पालन शायद ही कभी होता है. उदाहरण के तौर पर मौसम के हिसाब से कीटनाशक का छिड़काव करने का सबसे उपयुक्त समय सुबह 6 से 8 या शाम 6 बजे के बाद होता है. इसका सीधा-सा कारण है. एक तो सुबह-सुबह तेज़ हवाओं की आंशका कम होती है और दूसरे दोपहर में तापमान बढ़ने के साथ कीटनाशकों की विषाक्तता भी बढ़ जाती है. लेकिन होता ये है कि तड़के मजदूर उपलब्ध नहीं होते, इसलिए छिड़काव का काम दोपहर में ही किया जाता है. आरंभिक जांच के दौरान पता चला कि महाराष्ट्र में खेतीहर मजदूरों से लगातार 8 से 10 घंटे छिड़काव करवाया गया था.

कीटनाशक का छिड़काव उस समय करना चाहिए, जब हवा की दिशा वही हो जिस दिशा में छीड़काव करने वाला आगे जा रहा हो. इससे ये सुनिश्चित होगा कि छीड़काव करने वाले पर रसायनों का कम से कम प्रभाव पड़े. मैंने इस नियम का पालन होते नहीं होते देखा है. हवा की दिशा जो भी हो, किसान छिड़काव करवा लेने की जल्दी में होते हैं. इससे भी भयानक बात है कि मैंने उत्तराखंड के कुछ इलाकों में किसानों और विशेषकर नेपाल और उत्तरपूर्व के प्रवासी मज़दूरों को टमाटर के पौधों पर 15 से 20 बार छिड़काव करते देखा है. पूछने पर किसानों ने कहा कि बाजार की मांग के कारण उन्हें ऐसा करना पड़ता है.

कीटनाशक कंपनियां कीटनाशक के पैक में दस्ताने भी उपलब्ध करवाती हैं. कंपनियों को दस्तानों के साथ टोपी और फेस मास्क भी उपलब्ध करवाना अनिवार्य कर देना चाहिए. किसानों को अपने मज़दूरों को गम बूट उपलब्ध करवाने के निर्देश दिए जाने चाहिए और ये भी सुनिश्चित करना चाहिये कि किसान अपने खेत में श्रमिकों के लिए गमबूट की जोड़ियां उपलब्ध भी रखें. कीटनाशक कंपनियों और कृषि विभागों को हर 15 दिनों में हानिकारक कीटनाशकों के प्रयोग और छिड़काव के तरीकों पर संयुक्त प्रशिक्षण कैंप लगाने के निर्देश दिए जाने चाहिए.

यहां कृषि विश्वविद्यालयों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है. वास्तव में, विश्वविद्यालयों द्वारा स्वीकृति दिए जाने के बाद ही अनुमोदन जारी किया जाता है इसलिए अनुमोदन प्रक्रिया के दौरान ही एहतियाती कदम स्पष्ट रूप से बताये जाने चाहिए. यदि कोई कंपनी अन्य प्रतिबद्धताएं पूरी न करे तो विपणन अधिकार रद्द करने संबंधी प्रावधान भी होने चाहिए. ये कंपनियों की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि जो भी इन कीटनाशकों का उपयोग करे, उससे एहतियाती कदमों की भी पर्याप्त जानकारी दी गयी हो.

इसके साथ ही साथ कृषि वैज्ञानिकों को चाहिए कि अब वो अपना ध्यान उन फसलों पर केंद्रित करें, जिनमें रासायनिक कीटनाशकों की कम से कम आवश्यकता हो या इनकी आवश्यकता ही न हो. उदाहरणत के लिये फिलीपींस की दि इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट को देखा जा सकता है, जिसे चावल पर अनुसंधान के लिए अग्रणी संस्थान माना जाता है. इस संस्था ने कहा कि धान पर कीटनाशक का छिड़काव समय और मेहनत दोनों की बर्बादी है. संस्थान ने यह भी कहा है कि फिलीपींस के सेंट्रल लुज़ॉन प्रोविंस में, वियतनाम में, बांग्लादेश में और भारत में, किसानों ने दिखा दिया है कि रासायनिक कीटनाशकों के बिना भी अधिक उत्पादकता संभव है. इसके बावजूद मैंने देखा है कि चावल पर तकरीबन 45 कीटनाशकों का छिड़काव किया जाता है.
* लेखक जाने-माने कृषि और खाद्य विशेषज्ञ हैं.

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