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खुले बाज़ार में खेती के खतरे

देविंदर शर्मा
हम सबको चॉकलेट खाना पसंद है लेकिन अगली बार जब आप चॉकलेट का कोई टुकड़ा मुंह में डालें तो यह याद करिएगा कि आपके हाथ में मध्यम आकार की जो चॉकलेट बार होती है, कोको की खेती करने वाले किसान की औसत दिहाड़ी उससे भी कम होती है. पश्चिमी अफ्रीका के कोको किसान की दैनिक आय महज 100 रुपये (1.3 डॉलर) बैठती है!

दुनिया में इस समय में जो 210 खरब डॉलर वाला वैश्विक कनफैक्शनरी उद्योग दिन दोगुनी-रात चौगुनी तरक्की कर रहा है, उसमें चॉकलेट से बने उत्पादों का हिस्सा काफी ज्यादा है. चॉकोलेट बैरोमीटर नामक संस्था की द्विवार्षिक रिपोर्ट-2020 दर्शाती है कि मौजूदा बाजारचालित व्यापार मॉडल में कोको की उच्च उत्पादन मात्रा के बूते प्रफुल्लित चॉकलेट उद्योग खुद तो काफी मुनाफा कमा रहा है किंतु कोको की खेती में लगे लगभग 50-60 लाख किसान निरंतर गरीबी की अवस्था में बने हुए हैं.

बाजार कीमतों पर उनकी निर्भरता को खत्म कर यदि कोको किसानों को अपने उत्पाद का केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाए तो भी लाखों-लाख कृषक गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से निजात पा सकेंगे.

ब्रिटेन में दूध विपणन बोर्ड, जो दूध की कीमत और व्यापार को नियंत्रित करता था, को खत्म करने के बाद डेयरी फार्मों की संख्या बहुत कम रह गई है. जहां वर्ष 1995 में तकरीबन 40000 डेयरी फार्म थे वहीं 2020 में घटकर 8,130 रह गए हैं. हालांकि दुग्ध उत्पादक चाहते थे कि मूल्य नियंत्रक व्यवस्था कायम रहे, किंतु बाजार-अर्थशास्त्रियों की सोच विपरीत थी.

1994 से 2020 के बीच दूध की बाजार कीमतें 28 फीसदी कम हो गईं और 2015 में एक समय ऐसा भी आया जब मूल्य 40 फीसदी से ज्यादा गिर गया था, दुग्ध उत्पादक अपनी लागत भी नहीं निकाल पाए. इस प्रक्रिया में खेती आधारित जीवनयापन के तहस नहस होने से पैदा हुई किसान की त्रासदी को छिपा दिया गया.

एक ब्रिटिश किसान के शब्दों में ‘हर किसान कर्ज के लगातार बढ़ते ऐसे दुष्चक्र में तब तक फंसता जाता है जब तक कि दीवालिया न हो जाए, फिर उसके पास या तो आत्महत्या करने या फिर आमदनी का कोई और जरिया ढूंढ़ने के सिवा और कोई चारा नहीं रहता.’

जो कुछ ब्रिटेन में हुआ, और यूरोप में भी, वह कोई अकेला नहीं है.

अमेरिका तक में पिछले दो दशकों में 50 फीसदी डेयरी फार्म गायब हो चुके हैं. अमेरिकी कृषि विभाग के मुताबिक लाइसेंसशुदा डेयरी फार्मों की संख्या वर्ष 2003 में 70000 से घटकर 2019 में 34,000 रह गई है. छोटे किसानों (दुग्ध उत्पादकों) ने इस धंधे से तौबा कर ली, इनकी जगह भीमकाय डेयरी उद्योगों ने ले ली है. नतीजतन, छोटे दुग्ध उत्पादकों का धंधा बंद होने के बावजूद दूध उत्पादन काफी बढ़ गया.

यह वह स्थिति है, जिसे वाकई भारत अपने यहां दोहराना नहीं चाहेगा. ऐसे देश में जहां 50 फीसदी जनसंख्या कृषि में लिप्त है और जिसका दुग्ध उत्पादन विश्व में सबसे ज्यादा हो, भारत को अगर कुछ चाहिए तो वह है जन-कृषि उत्पादक व्यवस्था जहां छोटा किसान भी सुनिश्चित मूल्य निर्धारण तंत्र के जरिए पाई आमदनी से अपने लिए एक सम्माननीय जिंदगी जी सके.

उम्मीद के मुताबिक ब्रिटेन में मुक्त मंडी व्यवस्था ने खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों को फायदा दिया और छोटे डेयरी मालिक धंधे से बाहर हो गए. इससे शुरू हुआ फालतू उत्पादन वाला दुष्चक्र, जिसने बाजार कीमतें और नीचे कर दीं.

वहां सप्लाई चेन में विसंगतियों को दूर करने का मूल उपाय करने की बजाय, जिससे कि दुग्ध उत्पादक को एक न्यूनतम मूल्य मिल पाता, आयरलैंड समेत यूरोप और अमेरिका ने घाटा खाए किसानों के गुस्से को शांत करने के लिए वक्ती तौर पर अस्थाई राहत पैकेज देने जैसे कदम अपनाए.

इस तरह किसानों द्वारा नाजायज कीमतों का जो विरोध होना शुरू हुआ था, वह अभियान आज तक उचित मूल्य दिलवाने के लिए जारी है.

इतना ही नहीं, सरकार द्वारा इन देशों में विश्व व्यापार संगठन के नाजायज कृषि समझौते पर सहमति देने से डेयरी मालिकों की त्रासदी कई गुणा बढ़ा गई, जिसके तहत यूरोपियन देशों के बहुत ज्यादा सब्सिडी प्राप्त फालतू दुग्ध उत्पादों को विकासशील देशों में ‘उड़ेल’ देने को इजाजत मिल गई.

विकसित देशों में वस्तु-विशेष पर 5 फीसदी सब्सिडी देने के नियम को दरकिनार करते हुए यूरोपियन यूनियन के देशों ने दुग्ध उत्पादकों के स्किम्ड मिल्क पाउडर पर 67 प्रतिशत तक सब्सिडी दे डाली, इससे सस्ते बन गए उत्पादों का अंबार विकासशील देशों में लगाना आसान हो गया. इस प्रक्रिया में दोनों छोर के छोटे डेयरी किसानों को नुकसान हुआ. यानी विकसित और विकासशील मुल्कों में, दोनों जगह.

कोई हैरानी नहीं कि ऐसे वक्त जब भारत में मुख्यधारा के अर्थशास्त्री मुक्त मंडी वाली व्यवस्था को लेकर इसलिए उत्साहित हो रहे हैं कि इससे कृषि जगत की आमदनी बढ़ेगी, ठीक उसी समय कनाडा के किसान अपने जीवनयापन को सुरक्षित करने हेतु संरक्षण की मांग कर रहे हैं.

पूर्वी कनाडा की तीन मुख्य किसान यूनियनों ने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हाल ही में अपने देश के किसानों को 32 खरब डॉलर की सब्सिडी देने को लेकर आशंकित होकर इसे अपने वजूद के लिए खतरा बताया है, क्योंकि सस्ते अमेरिकी कृषि उत्पादों का आयात होने से उनका माल धरा रह जाएगा.

उनका कहना है ‘किसानों को उत्पाद का लागत मूल्य वापस पाने वाला निजाम बनाना ही होगा वरना उनमें से अधिकांश ज्यादा समय तक इस व्यवसाय में नहीं रह पाएंगे.’

आइए अब अमेरिका के सूरत-ए-हाल देखें, आज वहां कृषि जगत में जो समृद्धि दिखाई दे रही है, वह दरअसल भारी भरकम सब्सिडी वाले सरकारी संबल की वजह से है. यह सुनिश्चित करने को कि छोटा किसान गायब न होने पाए, अमेरिका हर पांचवें साल नया कृषि कानून सुधार लेकर आता है. वर्ष 2018 वाले कानून में अगले दस सालों के लिए 867 खरब डॉलर की मदद राशि रखी है ताकि अनेकानेक उपायों से कृषि आय बढ़ने के साथ नागरिक पौष्टिकता योजनाएं अमल में लाई जा सकें.

किसानों को मंडी भावों के उतार-चढ़ाव के रहमो-करम पर छोड़ने की बजाय अमेरिका ने एग्रीकल्चर रिस्क कैम्पेन (कृषि जोखिम बचाव) और प्राइस लॉस कवरेज (मूल्य अवनति भरपाई) कार्यक्रमों को 2018 के कृषि कानून में शामिल किया है.

इन दोनों योजनाओं का उद्देश्य किसानों को वाजिब बाजार मूल्य मिल पाने पर या कर भुगतान संबंधी घाटे की भरपाई करना है और यह 24 जिन्सों के लिए लागू है, जिसमें गेहूं, जई, ज्वार, कुसुम, बाजरा, जौ, मक्का, चावल, सोयाबीन, सूरजमुखी बीज, रेपसीड, कनोला, अलसी, सरसों, तिल, कपास बीज, सूखे मटर, दालें, छोटा-बड़ा चना, मूंगफली इत्यादि हैं.

इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं, फसल बीमा, ढांचा संबंधी अतिरिक्त खर्चे और पर्यावरणीय मुसीबतों से उबारने हेतु अनेकानेक राहत योजनाएं भी लागू हैं.

यहां तक कि चीन में भी मुक्त मंडी व्यवस्था कृषि आय बढ़ाने में नाकामयाब रही है. चीन ने अपने कृषि क्षेत्र को वर्ष 2016 में 212 खरब डॉलर की सब्सिडी मुहैया करवाई थी, जो विश्वभर में सबसे अधिक थी.

अगर दुनिया के सबसे बड़ी कृषि वाले इन दो महाकाय देशों को अहसास हो गया है कि मुक्त मंडी व्यवस्था कृषि आय को बढ़ाने में अक्षम रही है तो भारत को भी अपनी सोच पर अवश्य पुनर्विचार करना चाहिए.

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