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निवेश पर जोर

भारत का जीडीपी विकास दर कम हो गया है और निवेश भी लगातार कम हो रहा है. 2017-18 के राष्ट्रीय आय के पहले अग्रिम अनुमान केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने 5 जनवरी को जारी किया और बताया कि अर्थव्यवस्था पिछले चार साल में सबसे धीमी गति से आगे बढ़ रही है. छह से आठ महीनों के आर्थिक आंकड़ों के आधार जो अनुमान आए हैं, इन्हीं का इस्तेमाल 1 फरवरी को पेश होने वाले बजट को तैयार करने में होगा. 2011 से नए अकाउंटिंग सांख्यिकी का इस्तेमाल हो रहा है और तब से अब तक के सबसे न्यूनतम स्तर पर सकल फिक्सड कैपिटल निर्माण यानी जीएफसीएफ पहुंच गया है. हालांकि, अब भी इन अनुमानों में नोटबंदी और बगैर तैयारी के लागू किए गए वस्तु एवं सेवा कर की वजह से पूरी स्पष्टता नहीं है.

इन आंकड़ों के मायनों को समझने से पहले इसके कुछ पक्षों को जानना जरूरी है. इसमें कहा गया है कि 2017-18 में जीडीपी की विकास दर 6.5 फीसदी रहेगी. जो इसके पहले के वित्त वर्ष के अनुमानित 7.1 फीसदी से कम है. जीवीए भी पिछले वित्त वर्ष के 6.6 फीसदी के मुकाबले 6.1 फीसदी रहने का अनुमान है. जीएसटी के तहत अप्रत्यक्ष करों के संग्रह में गिरावट आने से उत्पादों से आने वाले कर की विकास दर भी धीमी होकर 10.9 फीसदी रहेगी.

सबसे अधिक लोगों को रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र का प्रदर्शन पिछले साल के मुकाबले और खराब रहेगा. जीवीए में कृषि की हिस्सेदारी घटते हुए 14.6 फीसदी पर पहुंचने का अनुमान है. सेवा क्षेत्र की हिस्सेदारी 40 फीसदी से अधिक है और इसकी स्थिति पिछले साल के मुकाबले ठीक रहने की उम्मीद है. विनिर्माण भी पिछले साल के मुकाबले धीमी गति से आगे बढ़ा है. हालांकि, पर्चेजिंग मैनेजर्स इंडेक्स में यह उम्मीद की गई कि दूसरी छमाही में स्थिति ठीक होगी. पिछले छह महीने में वैश्विक व्यापार बढ़ा है लेकिन भारत के निर्यात में मामूली बढ़ोतरी हुई है.

सीएसओ ये आंकड़े पुराने आंकड़ों के संशोधित अनुमानों के आधार पर जारी करती है. आम तौर पर इस वजह से पहली छमाही में प्रदर्शन अच्छा दिखता है. लेकिन बाद के संशोधनों में ये आंकड़े और नीचे जाते हैं. हालांकि, सरकार को लगता है कि संशोधन के बाद ये आंकड़े और अच्छे हो जाएंगे. उसे 2017-18 की दूसरी छमाही पहली छमाही के मुकाबले बेहतर दिख रही है. हालांकि, नई व्यवस्था के तहत अब तक आंकड़े सरकार की इस सोच से मेल नहीं खाते.

कुछ विश्लेषकों का तो यह भी कहना है कि अगर आंकड़े सुधरते हैं तो फिर इसे आंकड़ों की बाजीगरी कहा जाएगा. ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि जनवरी के अंत में जारी होने वाले पहले संशोधित अनुमानों में नोटबंदी के साल 2016-17 की विकास दर को संशोधित किया जाएगा. ऐसे में आधार नीचे जाएगा और मौजूदा साल की पहली छमाही की विकास दर बढ़ी हुई दिखेगी. जबकि फरवरी अंत में दूसरे अग्रिम अनुमान आने पर यह कम होगा. यह इसलिए संभव लग रहा है क्योंकि जब बेहतर आंकड़े उपलब्ध होंगे तो नोटबंदी के असर अंदाज सही-सही लग पाएगा. ऐसे में अगर 2016-17 और 2017-18 दोनों के अनुमान नीचे जाएं तो भी हैरानी नहीं होनी चाहिए.

किसी अर्थव्यवस्था की सेहत का अंदाज निवेश से भी लगता है. इसकी जानकारी जीएफसीएफ देता है. यह लगातार नीचे आ रहा है. निजी और सरकारी उपभोग की तेजी भी कम हुई है. 2011 में जीडीपी का 34.3 फीसदी जीएफसीएफ था. जो अब घटकर 29 फीसदी हो गया है. निवेश में जो तेजी 2004-05 से 2011-12 के बीच दिखी थी, वह अब नहीं दिख रही है. तीन साल तक निवेश बढ़ाने के तरह-तरह के नुस्खे आजमाने के बाद नरेंद्र मोदी सरकार के पास अब एक विकल्प है. सरकार रेटिंग एजेंसियों की परवाह किए बगैर रोजगार सृजन और लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने का काम करे.

सरकार को बड़े राजनीतिक निर्णयों से बचना चाहिए. नोटबंदी और बगैर तैयारी के लागू किया गया जीएसटी अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं था. सरकार का जोर ग्रामीण बुनियादी ढांचे, कृषि, गैर कृषि ग्रामीण रोजगार, विनिर्माण में रोजगार सृजन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे कार्यों पर निवेश करना चाहिए. इनसे लोगों की आमदनी बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था में मांग और निवेश को गति मिलेगी.
1966 से प्रकाशित इकॉनामिक एंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय

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