Social Media

फेमिनिज्म यानी गर्दन से नीचे से शुरु और नीचे ही खत्म

रति सक्सेना | फेसबुक:अक्सर फेमिनिज्म के सम्बन्ध में चर्चा होती है तो बात गर्दन से नीचे से शुरु होती है ‌और नीचे ही खत्म हो जाती है. मैं समझ नहीं पाती कि हम विषय को नहीं समझते या फिर ना समझने की कोशिश करते हैं, क्यों कि फेमिनिज्म के असली अर्थ पर जाने में सम्भवतः स्थिति सर्व प्रिय ना रहे. जबकि फेमिनिज्म का कारण स्त्री की दोयम स्थित रही है, यूरोप जैसे स्थानों में दूसरे महायुद्ध के समय स्त्रियों को घर से बाहर दफ्तर संभालने को भेजा तो उन्होने इसमें एक आजादी ही पाई, लेकिन युद्ध के तुरन्त पश्चात् इंग्लैण्ड तक में स्त्रियों को वापिस घर में बैठाना शुरु कर दिया गया.

हमारे देश में भी जो मुखर स्त्री शब्द मिलते हैं, वे सब उनकी अपने पंखो के विस्तार की सोच थी. लेकिन आज के स्त्रीवादी लेखन को देख कर कभी कभी मुझे लगता है कि क्या अन्तर है रीतिकालीन अथवा शृंगार प्रधान साहित्य और तथाकथित स्त्रीवादी लेखन में जो देह से ऊपर उठ ही नहीं पाता. सम्भवतया मेरे दीमाग की गड़बड़ ही है कि मुझे कमलादास से ज्यादा स्त्रीवादी विचार उनकी माँ बालामणियम्मा की कविताओं में दिखाई देता है.

कारण बस यह है कि कमलादास देह की प्यास की परतों को खोलती है तो बालामणीयम्मा स्त्री के बौद्धिक विकास, उसकी चेतना , उसकी वैचारिकता को रेखांकित करती है. उनके लिए वाल्मीकि का रुदन पक्षीवध का परिणाम नहीं अपितु पत्नी उपेक्षा की ग्लानि है. उनकी स्त्री हर क्षेत्र में उड़ान की चाह रखता है.

मैं स्त्रीवादिता के आयतन के विकास के बारे में भी बात करना चाहूंगी और विशेष रूप से लेखन के सम्बन्ध में. स्त्री लेखन को यदि कहानी या कविता लेखन के रूप में बांध दिया जाये, तो भी समस्या होनी चाहिये. तात्पर्य यह है कि यह क्यों सोचा जाये कि स्त्री लेखन कथा काव्य तक सीमित है, क्यों नहीं गंभीर चिन्तन, साहित्यिक मैनेजमेन्ट और दायित्वों को भी स्त्री साहित्यिक दखल के रूप में रेखांकित किया जा सकता है?

मुझे दुख है कि कम से कम भारतीय भाषाओं के साहित्य में यह स्थिति नहीं दिखाई देती है. स्त्री साहित्यकारों के नाम पर कहानीकारों को कुछ सम्मान जरूर मिला है, लेकिन अभी भी जब काव्य पाठ हो, तो कुछ नामी पुरुष कवियों के साथ स्त्री कविता पाठ को तभी जगह मिलती है, जब वे बकायदा पुरुष निर्धारित सीमाओं में लेखन करती है.

गंभीर साहित्य और चिन्तन को तो बिल्कुल दरकिनार किया जाता है. मानो कि उनका कार्य लेखन की श्रेणी में आता ही नहीं है. यही नहीं, प्रायोगिक साहित्यिक दखल को पूरी तरह से दरकिनार किया जाता है.

स्त्री साहित्य के बारे में ज्यादातर बहसें अधूरी अथवा लीक से भटकी लगने लगी हैं, क्योंकि हम यही नहीं निर्धारित कर पाये हैं कि लेखन के क्षेत्र में स्त्री को एक दायरे में बाँधना भी सवाल खड़े करता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!