राष्ट्र

एक ऐसे देश के भक्त

सुनील कुमार
याकूब मेमन की फांसी को लेकर हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया में बड़ी रफ्तार से खेमे बन गए. बहुत से लोग बिना अगली किसी दया याचिका पर सुनवाई के याकूब को टंगे देखना चाहती थी, कुछ लोग याकूब को फांसी के लायक मुजरिम न मानकर सजा में रहम की उम्मीद कर रहे थे, कुछ लोग यह मान रहे थे कि उसके मुस्लिम होने से उसे कोई रियायत नहीं मिल पाई, कुछ लोगों का यह मानना था कि मौत की सजा खत्म होनी चाहिए, और इसीलिए याकूब को भी फांसी नहीं मिलनी चाहिए.

कुछ लोग अदालत तक आधी रात के बाद भी जाकर इस फांसी को टलवाने की कोशिश करते रहे, कि इस पर और बहस हो जाने तक, फांसी को रोक दिया जाए. और कुछ लोग अदालत के रात भर जागकर इन कोशिशों पर सुनवाई करने को कोसते भी रहे. जितने मुंह, उतनी बातें.

लोकतंत्र में सभी किस्म की विचारधाराओं और सोच की जगह है. इस हिसाब से ये तमाम बातें एक सेहतमंद लोकतंत्र का सुबूत हो सकती थीं, अगर वे तर्क के रूप में सामने आतीं, या बहस के रूप में सामने आतीं. लेकिन कुछ राष्ट्रवादी, कुछ सम्प्रदायवादी, और कुछ हिंसक-अलोकतांत्रिक लोगों ने बहस की जगह को गालियों में तब्दील कर दिया.

उनकी गालियां धर्मनिरपेक्ष लोगों पर भी थीं, कानूनपसंद लोगों पर भी, फांसी-विरोधी लोगों पर भी, और लुभावनी-हड़बड़ी का विरोध करने वालों पर भी. मोटे तौर पर एक छोटा तबका तर्क और न्याय की बात कर रहा था, और एक बड़ा तबका धर्मोन्माद से लेकर उथले-राष्ट्रवाद तक के नारे लगाते हुए चौराहे पर इंसाफ के अंदाज में किसी मुजरिम से अपील का हक भी छीन लेना चाह रहा था.

जो लोकतंत्र पहले मीडिया में, और अब सोशल मीडिया में भी, लोगों को विचारों का हक दे रहा है, उसी लोकतंत्र के खिलाफ सोशल मीडिया का जैसा इस्तेमाल किसी भी बेचैन करने वाली नौबत में होता है, उससे वह लोकतांत्रिक-अधिकार प्रतिउत्पादक (काउंटर प्रोडक्टिव) साबित हो रहा है. लेकिन यह लोकतंत्र का बर्दाश्त है कि वह इसकी भी जगह देता है.

दिक्कत यह आ रही है कि सोशल मीडिया एक ऐसे भीड़भरे चौराहे में तब्दील हो गया है जहां पर किसी पर आरोप लगाकर उसे चौराहे पर ही मौत की सजा दी जा रही है, और आसपास की भीड़ एक हिंसक-उत्तेजना में तालियां बजा रही है.

पिछले कुछ दिनों में लगातार सीरिया और इराक जैसी जगहों से ऐसी तस्वीरें आ रही हैं जिनमें इस्लामी-आतंकी बेकसूर, असहमति रखने वाले, दूसरे धर्म के, या सरकार के सैनिकों जैसे लोगों को चौराहों पर मार रहे हैं, इमारतों से नीचे फेंक रहे हैं, सड़कों पर पिंजरों में बंद करके जिंदा जला रहे हैं, उनके हाथ काट रहे हैं, सिर काट रहे हैं, बच्चों से उन पर गोलियां चलवा रहे हैं, और लोग खड़े होकर देख रहे हैं.

यह उस समाज में लोकतांत्रिक समझ और फिक्र के खात्मे का सुबूत है कि ऐसी बेइंसाफ-हिंसा होते हुए देखने के लिए भीड़ जुट जाती है, कई बार खुश भी हो जाती है, कई बार मारने में शामिल भी हो जाती है. यह उस देश और उस समाज में इंसाफ और लोकतंत्र की समझ कमजोर होने या खत्म होने का सुबूत है.

हिन्दुस्तान में चूंकि सरकारी या गैरसरकारी हिंसा अभी शहरी चौराहों पर इस तरह की नहीं है कि जिसे देखकर हिंसक सोच वाली भीड़ तालियां बजा सके, इसलिए सोशल मीडिया पर ही ऐसा हो रहा है. लेकिन सोशल मीडिया से परे भी कुछ घटनाएं फिक्र की हैं.

लोगों को याद होगा कि एक-दो बरस पहले जब छत्तीसगढ़ के बस्तर में नक्सलियों ने सीआरपीएफ के जवानों को एक ही हमले में बड़ी संख्या में मारा था, तब दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आहाते में रहने वाले छात्रों के कुछ समूहों ने बड़ी खुशियां मनाई थीं. जेएनयू को एक वामपंथी विचारधारा और आक्रामक तेवरों के लिए जाना जाता है.

कई बार वहां उठने वाले मुद्दे बेइंसाफी के खिलाफ होते हैं, लेकिन कुछ मौके ऐसे भी रहते हैं जब लोकतंत्र के खिलाफ हुए हमलों की तारीफ में वहां खुशियां मनाई जाती हैं. वहां के बहुत से पढऩे और पढ़ाने वाले लोगों का यह मानना है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में कमजोर के साथ इंसाफ तब तक नहीं हो सकता, जब तक इस व्यवस्था के खिलाफ हिंसा न की जाए.

लोकतंत्र के भीतर हिंसा को भी दूर तक बर्दाश्त करने की खूबी ही है. वह चाहे नक्सल हिंसा हो, चाहे वह गांधी की हत्या हो, चाहे वह बाबरी मस्जिद को गिराना हो, चाहे वह इंदिरा-राजीव की हत्या हो, चाहे वह गोधरा हो, चाहे वह गुजरात हो. भारतीय लोकतंत्र अपनी सोच पर चलते हुए बहुत से मौकों पर खामी की हद तक बर्दाश्त वाला लगता है, और ऐसा लगता है कि इसमें मुजरिमों को छूट ही छूट है. लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि मुम्बई बम ब्लास्ट के मुजरिम को अगर 22 बरस बाद आज फांसी हो पा रही है, तो उस आतंकी हमले के पहले गिराई गई बाबरी मस्जिद के मुजरिमों को आज तक कोई सजा नहीं हो पाई है. कहीं गोधरा के मामले चल रहे हैं, तो कहीं उसके बाद के गुजरात दंगों के. और इन सबसे पहले के 1984 के दंगों के मुजरिमों पर फैसला अब तक बाकी ही है.

लोकतंत्र कभी भी ऐसी तेज रफ्तार व्यवस्था नहीं हो सकता जिसमें कि किसी आरोपी को सुनवाई का हर मौका दिए बिना उस पर कोई भी फैसला हो जाए. कुछ लोगों को ऐसा तेज रफ्तार इंसाफ सुहा सकता है, लेकिन वे बैठकर अगर चैन से सोचें कि ऐसे तेज रफ्तार इंसाफ का शिकार अगर वे खुद हो जाएं, और उस वक्त हो जाएं, जब वे गुनहगार न हों, तब क्या होगा?

ब्रिटेन में जो स्कॉटलैंड यार्ड दुनिया की सबसे अच्छी जांच एजेंसियों में से एक माना जाता है, उस स्कॉटलैंड यार्ड के पकड़े हुए लोग, मौत की सजा मिल जाने के 58 बरस बाद बेकसूर साबित हुए, और न तो यार्ड उनको वापिस जिंदा कर सकता था, और न ही ब्रिटिश न्याय व्यवस्था. इसलिए आज अमरीका में मौत की सजा पाए हुए लोग दस-दस, बीस-बीस बरस तक तरह-तरह की अपीलों पर चलते रहते हैं, और अभी-अभी मौत की कतार से एक कैदी को वहां 30 बरस खड़े रहने के बाद बेकसूर पाकर रिहा किया गया.

इसलिए लोकतंत्र में पूर्वाग्रह, नफरत, हिंसा, और हड़बड़ी में किसी की जिंदगी नहीं लेनी चाहिए. हमारी अपनी सोच तो यह है कि मौत की सजा खत्म होनी चाहिए, क्योंकि एक बुनियादी बात यह है कि जो जिंदगी कोई देश किसी को दे नहीं सकता, उसे वह जिंदगी लेने का कोई हक नहीं होना चाहिए.

दूसरी बात यह कि गलतियां जांच एजेंसियों और अदालतों से भी हो सकती हैं, और इनको जिंदगी लेने का हक नहीं मिल सकता. इसी मुद्दे को लेकर कांग्रेस नेता शशि थरूर ने आज सुबह एक ट्वीट किया जिसे लेकर उन्हें खूब गालियां पड़ रही हैं. उन्होंने लिखा कि एक इंसान को फांसी पर चढ़ा दिया गया, और उसका उन्हें दुख है. उन्होंने लिखा कि सरकार प्रायोजित ऐसी हत्याएं हमें नीचा दिखा रही हैं, जिसने हमें हत्यारों के स्तर पर ला दिया है. शशि थरूर ने अपनी ट्वीट में कहीं भी अपना दुख याकूब मेमन के लिए नहीं लिखा, बल्कि उन्होंने मौत की सजा के खिलाफ लिखा. लेकिन जो लोग एक नफरत के तहत हड़बड़ी में किसी को फांसी पर टांगना चाहते हैं, उनके पास सिद्धांत की बात करने वाले एक असहमत के लिए गालियों का जखीरा तैयार है.

आज भारतीय समाज के जो लोग याकूब मेमन की फांसी को एक लोकतांत्रिक कार्रवाई मानने के बजाय नफरत के एक जश्न की तरह मनाना चाहते हैं, उनकी आस्था लोकतंत्र पर नहीं है. लोगों को यह याद रखना चाहिए कि अजमल कसाब से लेकर याकूब मेमन तक को फांसी दिलवाने वाले सरकारी वकील की कही एक बात इस देश में बरसों से गूंज रही थी कि कांग्रेस की सरकार कसाब को जेल में बिरयानी खिला रही थी. यह बहुत बड़ा चुनावी नारा भी बना था. और पिछले बरस इसी वकील ने यह साफ किया कि उन्होंने बिरयानी वाली वह बात एक जुमले के रूप में कही थी, उसका हकीकत से लेना-देना नहीं था.

अब बिरयानी को लेकर जिन लोगों को गालियां पड़ीं, और जिनके वोट छीने गए, उनका क्या होगा? इस देश की सरकार और यहां की अदालत की जो हेठी इस जुमले के बाद नफरत ने खड़ी कर दी थी, उस हेठी का क्या होगा?

सड़क हो या सोशल मीडिया, हिंसक भीड़ का बर्ताव लोकतंत्र और इंसाफ से परे होता है. और ऐसे लोगों को जब हिंसा का मौका मिलता है, तो वे ओवरटाईम करने वाले किसी कर्मचारी की तरह अधिक घंटों तक इसी हिंसा की नुमाइश करने में लग जाते हैं.

राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए अपने से असहमत तमाम लोगों को गद्दार कहते हुए, देशनिकाला देते हुए जो लोग अपने को देशभक्त साबित करते हैं, वे एक ऐसे देश की अपनी सोच भी साबित करते हैं जिसमें कोई लोकतंत्र नहीं रहेगा. वे भक्त तो हैं, लेकिन एक ऐसे देश के जो कि लोकतंत्र नहीं है. उनकी हिंसा उनकी कल्पना के ऐसे अलोकतांत्रिक देश के भी फायदे की नहीं होगी, क्योंकि उनकी ऐसी हिंसा अमरीका जैसे दादा को आकर उन पर बम बरसाने का एक तर्क भी दे देगी.

फिलहाल भारत की सड़क से लेकर यहां के सोशल मीडिया तक नफरत और पूर्वाग्रह, हिंसा और बेइंसाफी का शोर इतना बढ़ा हुआ है, कि इसके बीच इंसाफ और इंसानियत हाशिए पर धकेल दिए गए हैं.

* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और रायपुर से प्रकाशित शाम के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक हैं.

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