दाल किसानों की चिंता
दाल के उत्पादन और कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव से किसानों और उपभोक्ताओं को बचाने के लिए सतत नीतियों की आवश्यकता है.दाल की कीमतों में हालिया गिरावट अधिक आपूर्ति की वजह से आई है. यह लगातार दूसरा साल है जब दाल की कीमतों में कमी हुई और किसानों को लाभ नहीं हुआ है. 2014-15 में स्थिति अलग थी. उस वक्त उत्पादन कम हुआ था और कीमतें बढ़ गई थीं. इससे दाल की खपत पर नकारात्मक असर पड़ा था. उसके बाद से दालों का रकबा बढ़ा और 2018 में कीमतों में भारी कमी दिख रही है. दालों के उत्पादन और कीमतों में होने वाले उतार-चढ़ाव से निपटने के लिए नीतियां बनाने में सरकार नाकाम रही है.
2014-15 में इसके पहले वाले साल के मुकाबले दालों का उत्पादन 9.7 फीसदी कम हुआ. यह कमी सूखे और जमाखोरी की वजह से और दिखी. सूखे का जोखिम इसलिए भी अधिक दिखता है क्योंकि कुल रकबे का 88 फीसदी बारिश पर आधारित है. 2015-16 में दालों का उत्पादन 1.635 करोड़ टन था. जबकि आयात 57.9 लाख टन था. घरेलू खपत के लिए 2.189 करोड़ टन दाल उपलब्ध था.
इसके बाद सरकार काफी देर से हरकत में आई और कीमतों को काबू में रखने के लिए सरकारी खरीद बढ़ाया, अरहर, मूंग और उड़द पर आयात शुल्क खत्म किया, निर्यात के नियम कड़े किए और भंडारण की सीमा तय की. सरकार ने 20 लाख टन का बफर स्टाॅक बनाने का भी निर्णय लिया ताकि कीमतों को नियंत्रित रखा जा सके. दाल उत्पादन करने वाले किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्यों में लगातार बढ़ोतरी की.
उसके बाद से बाजार की स्थिति बदल गई है. अच्छे माॅनसून और अधिक एमएसपी की वजह से दालों का रकबा और उत्पादन दोनों बढ़ा है. 2016-17 में घरेलू उत्पादन बढ़कर 2.295 करोड़ टन हो गया और 66.1 लाख टन का आयात किया गया. घरेलू बाजार में 2.942 करोड़ टन दालों की उपलब्धता हो गई. यह पिछले सालों के मुकाबले काफी अधिक है.
2017-18 के लिए तीसरे अग्रिम अनुमानों में दालों का उत्पादन 2.451 करोड़ टन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने का अनुमान है. यह पिछले साल से 13.7 लाख टन अधिक है. यह पिछले पांच सालों के औसत उत्पादन से 56.6 लाख टन अधिक है. अप्रैल से दिसंबर 2017 के बीच 51 लाख टन दालों का आयात भी किया गया. इस वजह से मांग से अधिक आपूर्ति हो गई. कीमतें कम होने लगीं. थोक मूल्य सूचकांक में 2017-18 में दालों की कीमतों में औसतन 26.7 फीसदी कमी आई.
पिछले साल की कीमतों के मुकाबले मंडी भाव 30 फीसदी कम रहे. सरकार ने भले ही एमएसपी बढ़ा दी हो लेकिन मंडियों में किसानों को इससे कम कीमतें मिलीं. उपज की लागत में बढ़ोतरी हुई. 2015-16 में यह 2.8 फीसदी बढ़ी और 2016-17 में 3.7 फीसदी बढ़ी. इसका मतलब यह हुआ कि किसानों की आमदनी घटी. समस्या और अधिक गहराई प्रभावी सरकारी खरीद नीति के अभाव में. एमएसपी किसानों को सही कीमत देने में नाकाम रहा है.
इन स्थितियों से यह पता चलता है कि दाल की कीमतें मौसमी उतार-चढ़ाव की शिकार हैं. कमी के दौर में जिस तरह की रणनीति अपनाई गई थी, अब उससे अलग रणनीति अपनाने की जरूरत है. अतिरिक्त आपूर्ति के खपत के तरीके तलाशने होंगे. किसानों को इसका खामियाजा नहीं भुगतना चाहिए और न ही सिर्फ कारोबारियों को किसानों और उपभोक्ताओं की कीमत पर फायदा मिलना चाहिए.
भारत दाल का सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है. ऐसे में किन हस्तक्षेपों की जरूरत है? भारत से बाहर दाल की बहुत मांग नहीं है. ऐसे में घरेलू नीतियों के जरिए ही इस समस्या का समाधान किया जा सकता है. बंपर उपज को देखते हुए सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एक तय सीमा तक दाल वह उचित कीमत पर खरीदेगी. इसे आयात और निर्यात का नियमन करना चाहिए.
इसके अलावा अधिक सक्रिय नीतियों और संस्थाओं की जरूरत है ताकि किसानों को उतार-चढ़ाव की स्थिति में भी सही कीमत मिल सके. किसानों को उत्पादक कंपनी या सहकारी संस्थाओं के जरिए उन्हें बाजार तक सही पहुंच मिले ताकि वे कीमतों को लेकर मोलभाव करने की स्थिति में रहें. इससे बिचैलियों द्वारा कीमतों में हेरफेर भी खत्म होगा. बेहतर बीजों की उपलब्धता, सिंचाई, भंडारण और कोल्ड स्टोरेज जैसी सुविधाएं जरूरी हैं. कृषि कंपनियों द्वारा लंबे समय की खरीद समझौते जरूरी हैं ताकि किसानों को बाजार में आपूर्ति बढ़ने की दिक्कतों से बचाया जा सके.
आज सिर्फ जरूरत इस बात की नहीं है कि राज्य बेहतर खरीद नीति अपनाएं बल्कि वितरण के लिए भी बेहतर तंत्र विकसित करें और गरीबों के उपभोग के लिए दाल उपलब्ध करा सकें. खास तौर पर उन राज्यों में जहां पोषण संबंधित दिक्कतें अधिक हैं.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय