चुनाव विशेषछत्तीसगढ़बस्तर

बस्तर क्यों हारे

सुरेश महापात्र
भारतीय जनता पार्टी ने लगातार तीसरी बार छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने में बाजी मार ली. इस जीत के साथ राज्य में भाजपा ने अपना किला और मजबूत कर लिया है. इसका फायदा चार माह बाद होने वाले आम चुनाव में भी उसे ही मिलेगा. पर इस बार की जीत के बाद भी रमन हार गए. हां, यह सच है. रमन उस इलाके में हार गए जिसके बदौलत आज तक सत्ता की चाबी सौंपी जाती रही.

छत्तीसगढ़ बनने के बाद बीते दस बरस में यही फार्मुला पहले कांग्रेस फिर भाजपा के काम आता रहा. इस बार परिणाम उलट है. बस्तर में भाजपा हार गई. वजहें कई हैं जीरम हमला, नक्सली हिंसा, अशांति, असुरक्षा का भाव और पराजित नेताओं की छवि. यही वजह रहा कि भाजपा को बस्तर में आठ सीटें गंवानी पड़ीं. सीधा नुकसान सात सीटों का रहा.

बस्तर का परिणाम देखने से लग रहा था कि इस बार छत्तीसगढ़ में सरकार भी बदलेगी. पर परिणाम इसके उलट निकला. डा.रमन मैदानी इलाकों में बाजी मार गए. यानी संदेश साफ है भाजपा मैदानी इलाकों में मजबूत हुई और आदिवासी इलाकों में मजबूर. बस्तर में टिकट वितरण के समय से ही इस बात का अंदाजा लगाया जा रहा था कि यदि चेहरे नहीं बदले गए तो भाजपा को नुकसान उठाना पड़ सकता है. कई सीटों पर चहरों को लेकर अंतिम दिन तक जोर आजमाइश चलती रही.

इस बार बस्तर से मतदान का प्रतिशत बढ़ना शुरू हुआ तो दिल्ली तक यह रिकार्ड बनता रहा. बस्तर से ही पहली बार नोटा के प्रयोग की शुरूआत हुई. कुछ इलाकों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर केंद्रों में करीब 15 से 20 फीसदी तक मतदान में इजाफा हुआ.

बस्तर में भारी मतदान के अर्थ निकाले जाते रहे. पर मतदान के बाद से ही साफ दिख रहा था कि भाजपा के हाथ से बस्तर खिसक गया है. बस्तर में भाजपा के कई कद्दावर नेताओं को कांग्रेस के नए नवेले चेहरे चुनौती देते दिखे. इस चुनौती में प्रत्याशी और पार्टी से ज्यादा आम लोगों का रूझान था. यानी प्रत्याशियों को लेकर पहले से ही नकारात्मक माहौल रहा.

ऐसा नही है कि बस्तर में टिकट वितरण के बाद कांग्रेस में घमासान नही मचा. बल्कि सच्चाई तो यह है कि सत्तारूढ़ भाजपा से ज्यादा खलबली कांग्रेस में देखने को मिली. भाजपा संगठन ने सभी विधानसभा क्षेत्रों में अपने को संभाल लिया. प्रचार की कमान सीधे मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने संभाली. 12 विधानसभा क्षेत्रों में मुख्यमंत्री ने करीब 36 सभाएं लीं. यानी हर विधान सभा क्षेत्र में औसतन तीन सभा. सभी सभाओं में मुख्यमंत्री ने अपने काम, नाम और चेहरे के आधार पर जनता से वोट मांगते कहा कि उन्होंने अपना काम किया है अब पास फेल करने की जिम्मेदारी जनता की है. परिणाम आया और बस्तर की जनता ने मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को फेल कर दिया.

शायद अभी भी डा. रमन इस फैसले पर ऐतबार न कर रहे हों. इतना कुछ दिया फिर भी जनता ने मुंह मोड़ लिया. जिस चावल, नमक और चना योजना की पूरे देश में डंका बजाई जा रही है. इसकी शुरूआत ही बस्तर से की गई थी. इसी बस्तर ने डा.रमन को चाउर वाले बाबा की संज्ञा दी. इसी बस्तर ने कहा कि डा. रमन आदिवासियों के हितैशी हैं. अनेकों योजनाओं का सीधा फायदा बस्तर के लोगों और महिलाओं को मिला. बावजूद इसके मुख्यमंत्री को फेल करने का फैसला बस्तर की इव्हीएम मशीनों से निकला है.

चुनाव से ठीक पहले जीरम घाट पर नक्सलियों ने हमला कर दिया. इस हमले में बस्तर के कद्दावर आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा के साथ करीब 32 लोग मारे गए. जिन्हें शहीद की संज्ञा दी गई. कर्मा की शहादत के बाद भी चुनाव के दौरान कभी भी ऐसा नहीं लगा कि जीरम घाट पर नक्सली हमला कोई बड़ा मुद्दा बस्तर में बनेगा.

हालांकि यह लग रहा था कि बस्तर से बाहर शेष छत्तीसगढ़ में जीरम हमले में कांग्रेसियों की शहादत ही कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाएगी. उल्टे जिस रायपुर के दिग्गज नेता पं.विद्याचरण शुक्ल की मौत इस हमले में हुई उस इलाके में कांग्रेस का सुपड़ा साफ हो गया. इस मैदानी इलाके में डा. रमन अपना जादू चला गए. यहां सीधे नौ सीटों का नुकसान हुआ जिसकी भरपाई कांग्रेस कहीं से नहीं कर सकी.

आखिर बस्तर में ऐसा क्या हो गया कि डा. रमन या भाजपा के खिलाफ माहौल बन गया. इसकी पांच बड़ी वजहे दिखाई दे रही हैं पहला: बस्तर से बलीराम कश्यप जैसे आदिवासी नेतृत्व की कमी. दूसरा: दस साल तक सत्ता में काबिज जनप्रतिनिधियों का बदलाता रवैया. तीसरा नक्सल मोर्चे पर सरकार की भारी असफलता. चौथा: सरकार की मैदानी प्रशासन पर ढीली पकड़. पांचवां: अंतिम दौर में यकायक बस्तर राजपरिवार के प्रति सरकार का बेसुध झुकाव.

कई मौके आए जब इन सभी कारणों को लेकर डा. रमन जनता के सवालों के घिरे दिखे. कभी साफ जवाब नहीं दिया और न ही कभी सीधी कार्रवाई की. (इन पांच मुद्दों पर फिर कभी विश्लेषण) खैर बस्तर ने जो परिणाम दिया है उसकी आने वाले दिनों मे भी समीक्षा होती रहेगी. पहले दौर की समीक्षा में भितरघात बड़ी वजह नहीं दिख रही है. बल्कि आदिवासी क्षेत्रों में पराजय के बाद डा. रमन को अपने नीतिगत फैसलों की समीक्षा करना पड़े ताकि आदिवासी क्षेत्रों में खोया हुआ विश्वास वापस पा सकें.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!