‘दीदी’ की तीन परेशानियां
नई दिल्ली | बीबीसी: ‘मोदी लहर’ के अभाव तथा कांग्रेस-वाम में बढ़ती नजदिकियां ममता बनर्जी के लिये परेशानी का सबब बन सकती है. मोदी लहर के समय कांग्रेस तथा खासकर वाम के जो वोट बीजेपी को गये थे वे यदि वापस कांग्रेस तथा वाम को मिल जाये तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ‘दीदी’ के लिये मुकाबला कठिन हो सकता है. दूसरी तरफ चुनाव आयोग ने भी बूछ कैपचरिंग रोकने के लिये कमर कस ली है. इस कारण से ममता बनर्जी और उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के लिए 2016 का विधानसभा चुनाव एक मुश्किल लड़ाई बनता जा रहा है.
हालांकि 2009 के बाद से तृणमूल कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लगातार चुनाव जीत रही है.
वाम दलों और कांग्रेस के बीच गठबंधन होने की हालत में तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों को 294 सीटों में से 90 फ़ीसदी पर एकजुट विपक्ष से सीधी टक्कर मिलेगी. इस एकजुटता ने शायद ममता बनर्जी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं.
कुछ दिन पहले ही ममता बनर्जी ने मालदा में रैली करके अपने चुनाव अभियान की शुरुआत की थी. इसके बाद दो और रैलियां मुर्शिदाबाद ज़िले में की गईं. दोनों ही ज़िले को कांग्रेस का मजबूत गढ़ माना जाता है. जब ममता वहां लोगों को संबोधित कर रही थीं, तो उन्होंने कांग्रेस और वाम दलों के पुराने कड़वे रिश्तों की याद दिलाते हुए जनता से अपील की कि वे इस ‘गैर-सैद्धांतिक गठबंधन’ का समर्थन न करें.
ममता का इस गठबंधन से परेशान होना लाज़िमी है. 2014 के आम चुनाव में तृणमूल का वोट शेयर 39.30 फ़ीसदी था और कांग्रेस का 9.6 फ़ीसदी. वाम मोर्चे को 30 फ़ीसदी वोट मिले थे. पश्चिम बंगाल में वाम दल और कांग्रेस 1952 के पहले आम चुनाव से एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ते आए हैं.
अब शायद कांग्रेस और वाम दलों में ऐसी समझ बनती दिख रही है कि सत्ताधारी तृणमूल के ख़िलाफ़ साझा उम्मीदवार उतारे जाएं.
कांग्रेस और वाम दल सीट बंटवारे को लेकर अपने मतभेद दूर कर रहे हैं, तो वहीं दोनों दलों के समर्थकों ने गठबंधन के समर्थन में पोस्टरबाज़ी शुरू कर दी है. दोनों विरोधी दलों की नज़दीकियां बढ़नी शुरू हो गई हैं. कई रैलियों में कांग्रेस और वामदल (ख़ासकर सीपीएम) के झंडे एक साथ लहराते देखे गए.
तीन ऐसी बातें हैं, जिन पर आगामी चुनाव परिणाम निर्भर करेंगे.
पहली यह है कि वाम दल और कांग्रेस के वोट एक-दूसरे को किस हद तक जाएंगे? दोनों तरफ़ ऐसे लोग हैं, जो मानते हैं कि दोनों दलों के बीच दूरी रहनी चाहिए. इसलिए समझौते का तो सवाल ही नहीं.
डॉक्टर अशोक मित्रा ऐसे ही लोगों में हैं. वाम मोर्चा की सरकार में वित्त मंत्री रहे अशोक मित्रा के मुताबिक़ यह प्रस्तावित गठबंधन सिद्धांत पर आधारित नहीं बल्कि सत्ता में वापस आने का लालच है.
कांग्रेस की ओर से पूर्व राज्यसभा सांसद और अब विधायक देबप्रसाद रॉय इस गठबंधन का हिस्सा बनने से इनकार करते हैं और उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने के प्रस्ताव से इनकार किया है. लेकिन इस तरह के लोगों का जनता के बीच कोई बहुत बड़ा आधार नहीं है.
कमोबेश दोनों तरफ़ के समर्थकों ने एक साथ काम करना शुरू कर दिया है और ज़्यादा से ज़्यादा वोट एक-दूसरे को दिलवाने में लग गए हैं.
दूसरी बात यह कि 2014 के चुनाव में ‘मोदी लहर’ पर सवार होकर बीजेपी ने बेहतर प्रदर्शन किया था. उसने राज्य में जीत तो दो सीटों पर दर्ज की, पर बीजेपी का वोट शेयर पांच फ़ीसदी से बढ़कर 17 फ़ीसदी चला गया था.
बीजेपी को अचानक मिला यह समर्थन तृणमूल और विपक्षी वोट बैंक में सेंधमारी करके हासिल हुआ है. अब मोदी लहर नहीं है और बीजेपी एक के बाद एक परेशानी झेल रही है.
पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी की लोकप्रियता में कमी दिख रही है. तो सवाल है कि बीजेपी के इस नुक़सान का फ़ायदा किसे होगा?
अगर इन राजनीतिक दलों को 2011 और 2014 के बीच हासिल वोटों की तुलना करें, तो दिखता है कि बीजेपी को 2014 में मिलने वाला अतिरिक्त वोट शेयर वाम दल के वोट बैंक से कटकर आया.
तब वाम नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं ने अपने ऊपर सत्ता पक्ष के समर्थकों के कथित हिंसक हमले पर लगभग रक्षात्मक रुख अपनाया हुआ था. इसी तरह कांग्रेस समर्थकों पर भी हमले हो रहे थे. इसलिए उस वक़्त यह संदेश गया कि एक बार मोदी सरकार बन जाएगी तो फिर बीजेपी राज्य में विपक्षी कार्यकर्ताओं को सत्तारूढ़ पार्टी के हमले से बचाएगी.
अब जब बीजेपी की छवि को नुक़सान पहुँचा है, तो बहुत गुंजाइश है कि 2014 के आम चुनाव में बीजेपी की ओर गया परंपरागत वोट फिर अपने-अपने दलों के पास चला जाएगा.
इसमें जो वोट शेयर कांग्रेस और वाम दलों का है, वो अगर उनके पास आ गया तो तृणमूल कांग्रेस के लिए चुनौती बन जाएगी.
तीसरी बात यह है कि चुनाव आयोग इस साल चुनाव कैसे करवाता है. इस बार लग रहा है कि चुनाव आयोग अधिक सक्रिय भूमिका निभाएगा. आयोग के सभी सदस्यों ने राज्य का कई बार दौरा कर सभी राजनीतिक दलों से बात की है.
सुरक्षा बलों की अभूतपूर्व व्यवस्था हो रही है. पैरामिलिट्री फ़ोर्स की 700 बटालियनें तैनात हो रही हैं, जिनमें 200 को पहले से ही राज्य में तैनात कर दिया गया है और वे कई ज़िलों में फ़्लैग मार्च कर रहे हैं.
अगर बूथ पर क़ब्ज़े की कोशिशों पर फिर लगाम लगाने में कामयाबी मिली, तो एक बार फिर यह चुनाव परिणाम को प्रभावित करेगा.