हिंदी के अंगने में अमिताभ का काम
विष्णु खरे
भारत ही संसार का एकमात्र देश है, जहाँ बॉक्स-ऑफिस पर सफल अभिनेताओं-अभिनेत्रियों तथा स्टेडियम में कामयाब क्रिकेटरों को ब्रह्माण्ड के किसी भी विषय का विशेषज्ञ मान कर चला जाता है. सलमान ख़ान को सौर-ऊर्जा और ईशांत शर्मा को ईशावास्योपनिषद पर प्रवचन देते देख-सुन कर शायद किसी को हैरत नहीं होगी.
उन जैसों की सेलेब्रिटी आड़ में अपना बौद्धिक दिवालियापन और अलोकप्रियता छिपाने, भीड़ तथा स्पॉन्सर जुटाने और मीडिया-कवरेज सुनिश्चित करने के लिए सरकारें और संस्थाएँ किसी-न-किसी बहाने उन्हें मंच पर अपनी बग़ल में बैठा ही लेती हैं.
इस भोपाली विश्व हिंदी सम्मेलन को ही लीजिए. पिछले एक-दो में मैं गया हूँ और बाक़ी के बारे में बतौर पत्रकार पढ़ा-सुना-छापा है. नागपुर के बाद ही मेरा विश्वास दृढ़ हो गया था कि इस सम्मेलन सहित हिंदी के नाम पर चल रहे ऐसे सारे आयोजनों और संस्थानों को, जिन्हें आढ़तें और दुकानें कहना अधिक उपयुक्त होगा, अविलम्ब और स्थायी रूप से बंद कर देना चाहिए.
मेरे अनेक विदेशी हिंदी विद्वान मित्र इस विश्व सम्मेलन से बहुत दुःखी और निराश रहते हैं. हाँ, कुछ हिन्दीभाषी हिंदी ‘’विद्वानों’’ के लिए यह विभिन्न जुगाड़ों की एक स्वर्ण-संधि रहती है. और इस बार तो अवतार-पुरुष अमिताभ बच्चन के ऐतिहासिक दरस-परस, सैल्फ़ी-सान्निध्य की प्रबल संभावना है. देखते हैं कौन बनता है करोड़पति.
यूँ अमिताभजी की हिंदी पैडिग्री शंकातीत है. वह हिंदी के ‘’मधुशाला’’ जैसे लोकप्रिय काव्य और ‘’क्या भूलूँ क्या याद करूँ’’ सरीखे दिलचस्प, भले ही नैतिक रूप से कुछ संदिग्ध, आत्मकथा-खंड के प्रणेता, लेकिन अंग्रेज़ी के एम.ए. पीएच.डी. इलाहाबादी प्राध्यापक हरिवंशराय ‘’बच्चन’’ के बेटे हैं. हिंदी उनकी मातृभाषा है, जो कि बहुत कम फ़िल्मवालों के लिए कहा जा सकता है.
लेकिन यह अपवाद नहीं, नियम होना चाहिए था. जिस तरह हम अपने इन्फ़ीरिऑरिटी कॉम्प्लेक्स में किसी विदेशी को हिंदी बोलते सुनकर धन्य या कृतकृत्य होते हैं, वैसे किसी बड़े या छोटे हिन्दुस्तानी एक्टर को देखकर क्यों हों?
फिल्म उद्योग अब तक हिंदी से कई खरब रुपये कमा चुका है. हिंदी-उर्दू-हिन्दुस्तानी में अँगूठा-छाप, नामाक़ूल एक्टर-एक्ट्रेस अरबपति हैं. खाते हिंदी की हैं, बोलते ग़लत-सलत ख़ानसामा-अंग्रेज़ी में हैं. इसलिए जब अर्ध-विश्वसनीय, अनर्गल हिंदी अखबारों में कहा जा रहा है कि अमिताभ बच्चन विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से आख़िरी दिन युवा पीढ़ी को हिंदी बोलने-लिखने के लिए प्रेरित करेंगे और उसे सीखने के गुर बताएँगे, जबकि ऐसी युवा पीढ़ी वहाँ निमंत्रित ही नहीं है, तो इब्तिदा में ही लाचारी से कहने का दिल करता है कि मियाँ हकीम साहब पहले अपने कुनबे का तो इलाज कीजिए.
दरअसल, अमिताभ बच्चन और उनसे पहले दिलीप कुमार ने फ़िल्म इंडस्ट्री में तहजीब और ज़ुबान के साथ खयानत की है. उन्होंने निजी तौर पर तो हुनर के नए मयार कायम किए लेकिन अपने रोब-दाब के बावजूद अपनी बिरादरी को वह रूहानी रहनुमाई नहीं दी जो वह दे सकते थे.
इन्होंने अपना एकांत निर्वाण पा लिया लेकिन मूसा, बुद्ध, मुहम्मद, गाँधी,नेहरू, आम्बेडकर की तरह अपनी कौम को मुक्ति नहीं दिला सके. उनमें एक कृपण स्वार्थपरकता है. आज सिने-उद्योग में उर्दू का फ़ातिहा पढ़नेवाला कोई नहीं है और ख़राब हिंदी ग़लत रोमन में लिखी जा रही है.
हरिवंश राय बच्चन ने सैकड़ों साहित्यिक पुस्तकों को घर में स्थानाभाव के कारण दिल्ली के दरियागंज के कबाड़ी बाज़ार में बिकवा कर बरसों पहले ऐसा स्कैंडल बरपा किया था जो अब तक एक दुस्स्वप्न की तरह याद किया जाता है.
लेकिन अमिताभजी के पास अपनी या ग़ैरों की सौ हिंदी किताबें भी होंगी इसकी कल्पना कठिन है. हिंदी की किसी साहित्यिक पत्रिका का तो कोई सवाल ही नहीं उठता.
उन्होंने अपने पिता की आत्मकथा के पहले खंड का अनुवाद रूपर्ट स्नैल से करवा कर छपवाया ज़रूर था, उनकी अन्य रचनाओं को लेकर भी उनकी कुछ योजनाएँ हैं, लेकिन अपने पिता की स्मृति में कोई महत्तर साहित्यिक पुरस्कार या न्यास स्थापित नहीं किया.
इलाहाबाद या दिल्ली यूनिवर्सिटी को हरिवंशराय बच्चन चेयर या फ़ैलोशिप नहीं दी, न अपने शेरवुड स्कूल या किरोड़ीमल कॉलेज में कोई हिंदी लेखन, भाषण या वाद-विवाद प्रतियोगिता ही स्थापित की, जबकि पैसा है कि उनके सभी पारिवारिक बँगलों में चतुर्भुज बरस रहा है.
उन्होंने यदि हिंदी भाषा या साहित्य पढ़ा है तो किस स्तर तक, इसकी कोई जानकारी हासिल नहीं है. अमिताभ बच्चन का कोई भी सम्बंध मुंबई की या वृहत्तर हिन्दी साहित्यिक दुनिया से नहीं है. उनका सम्बंध साहित्य से ही नहीं है.
तब उन्हें इस विश्व हिंदी सम्मेलन के अंतिम दिन के शायद अंतिम सत्र में हिंदी को स्वीकार्य और लोकप्रिय बनाने का उपक्रम और आह्वान करने का ज़िम्मा प्रधानमंत्री ने क्यों सौंपा?
हर स्तर पर कहा जा रहा है कि इस सम्मेलन का एक-एक ब्यौरा ख़ुद नरेनभाई देख और तय कर रहे हैं. सब कुछ टॉप सीक्रेट है. हम जानते ही हैं कि अमितभाई चैनलों और अखबारों में न जाने क्या-क्या, उन्हें खुद याद नहीं होगा, बेचने के अलावा गुजरात के ब्रांडदूत भी हैं.
भाजपा करे भी तो क्या ? उसके पास न सही बुद्धिजीवी हैं न असली लेखक. अटलजी बहुत घटिया कवि हैं लेकिन सुपर स्टार नरेनभाई तो और भी दयनीय कहानीकार हैं और महान गुजराती कथा साहित्य और आलोचना को बदनाम कर रहे हैं.
लेखकों के नाम पर भाजपा के पास उन्हीं-उन्हीं मीडियाकर प्रतिक्रियावादी जोकरों की गड्डी है, उसे जितना भी फेंटो वही निकर आते हैं इसीलिए इस सम्मेलन में प्रासंगिक सर्जनात्मक हिंदी लेखन के लिए कोई गुंजाइश नहीं रखी गई है.
ये भी सुना है कि आरएसएस के पास उनकी एक लम्बी, काली सूची भी है जो अस्पृश्यता की चेतावनी के साथ मंत्रालयों-विभागों के पास रख दी गई है, हालाँकि मुझे लगता है कि इसमें नाटकीय अतिशयोक्ति है क्योंकि लुम्पेन हिन्दुत्ववादी तत्व हिंदी के लेखकों को फ़िलहाल इतना ख़तरनाक नहीं समझते हैं. इसीलिए नागपुर के उत्तर में अभी तक दाभोलकर, पानसरे या कलबुर्गी नहीं हो पाया है.
भारत के अलावा कहीं और देशभाषा सम्मेलन नहीं होते हैं और होते भी हैं तो उनमें न तो नेता जाते, न एक्टर बुलाए जाते, न वह ख़ुद जाते. वह अपनी भद्द नहीं पिटवाते. यहाँ तो जितने छिछले और छिछोरे नेता, उतने ही मतिमंद, मौक़ापरस्त और मुसाहिब अभिनेता. अब तनी द्याखौ अइसन सरउ बिस्व हिंदी सम्मेलन मा हमका हिंदी सिखैहैं.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार और जानेमाने कवि हैं.
(बीबीसी हिंदी डॉटकॉम से साभार)