प्रसंगवश

माल्या चला, ‘चौकीदार’ देखता रहा

बादल सरोज
9000 करोड़ रुपये दबा विजय माल्या उड़ गया तथा भारतीय एजेंसियां ताकती रह गई. 17 बैंक, बकाया रकम 9 हजार करोड़ रुपये, कर्जदार आख़िरी बार 2 मार्च को संसद में बैठे हुए दिखाई दे रहे हैं. बैंकें लपक के बकाया वसूली अधिकरण (डेब्ट रिकवरी ट्रिब्यूनल ) और सरकार के पास जाती हैं. उनके वकीलों के संग देश के अटॉर्नी जनरल खुद खड़े होते हैं. बकायादार के विदेश भाग जाने पर रोक लगाने की गुहार लगाई जाती है. सुप्रीम कोर्ट पूछता है, कहाँ है अभियुक्त? जवाब में वही सरकार और वे ही अटार्नी जनरल हाजिर होकर जानकारी देते हैं कि मुजरिम तो सप्ताह भर पहले ही देश छोड़कर अंतर्ध्यान हो चुके हैं.

यह चन्द्रकान्ता संतति का कोई अध्याय या अगाथा क्रिस्टी के किसी नावेल की मिस्ट्री नहीं. यह किसी गिनी बिसाऊ या ग्रेनेडा या माल्टा जैसे अज्ञातकुलशील दन्त-नख विहीन देश की कहानी नहीं है. यह दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य भारत – दैट इज इंडिया- में, “अब तक की सबसे मजबूत सरकार” की कड़ी निगरानी वाली क़ानून एवं व्यवस्था के मंच पर घटित हुआ वह प्रहसन है जो उद्योगपति विजय माल्या के दिनदहाड़े, सरेआम भाग खड़े होने के रूप में घटित हुआ है. वे इस प्रहसन के इकलौते खलनायक नहीं हैं. इसके और भी नायक, प्रतिनायक और विदूषक हैं.

इनमे वे भी हैं जो सरकार और उसकी सीबीआई आदि इत्यादि एजेंसियों की धजा धारे बैठे हैं किन्तु यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि माल्या गए तो कहाँ गए !! सिर्फ अंदाजा है कि चूंकि उनकी ज्यादातर संपत्तियां इंग्लैंड में हैं, इसलिए अधिक संभावना उनके लन्दन में होने की हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने बैंको और सरकार से पूछा कि जब माल्या की ज्यादातर संपत्तियां विदेश में ही थीं तो आपने उन्हें किस आधार पर हजारों करोड़ का कर्जा दे दिया. बैंकों का जवाब दिलचस्प था कि जब उन्हें कर्जा दिया तब (शेयर) बाजार में उनकी साख बहुत ऊंची थी. बाद में उसमे गिरावट आ गयी !! आभासीय और प्रतीकात्मक वैल्यू और साख पर 9000 करोड़ रूपये थमा दिया जाना अपने आप में एक हिमालयी स्कैंडल है. विजय माल्या के देशान्तरण से ज्यादा गंभीर इस विषय पर जिम्मेदारी तय करने की जरूरत है.

50 के दशक में, इसकी तुलना में कहीं मामूली रकम के मूंदड़ा काण्ड ने सरकार को हिला कर रख दिया था. खुद कांग्रेस सांसद फ़ीरोज़ गांधी ने नेहरू सरकार के वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था. उनका कसूर सिर्फ इतना था कि उनके विभाग के कुछ अधिकारियों ने ताजी ताजी राष्ट्रीयकृत हुयी एलआईसी का पैसा एक उद्योग घराने के शेयर्स में लगा मारा था. मंत्री के इस्तीफे के साथ उस उद्योगपति को जेल हुयी थी. अफसरों की नौकरी गयी थी. यहाँ ऐसा कुछ होगा, इसका यकीन करना मुश्किल है. विजय माल्या को सांसद -राज्यसभा सदस्य- बनाने में मौजूदा सत्ता पार्टी के वोट खर्च हुए हैं. जो जाहिर है मुफ़्त में नहीं मिले होंगे .

सरकार जेएनयू की गेट पर खड़ी रही. मीडिया देशद्रोहिता के वीडियो बनाता रहा और समूचे राष्ट्र की देशभक्ति को उबाला खदकाया जाता रहा. इसी बीच अपनी मिसाल आप विजय माल्या संसद की गेट से बाहर आकर सीधे निकल लिए. लगता है देश के हुक्मरानों को हजारों करोड़ के घोटालों की तुलना में कुछ हजार युवाओं के नारों से ज्यादा डर लगता है.

काला धन विदेश से जब आएगा तब आएगा मगर फिलहाल तो विदेश भारतीय मुद्रा राक्षसों की सुरक्षित पनाहगाह बनता नजर आ रहा है. सरकार आज जब इस मसले पर संसद में लचर दलीलें और खोखले आश्वासन दे रही होगी तब लन्दन में भारत के दो नामी एनआरआई : नॉन रिटर्निंग इंडियन ललित मोदी और नॉन रिपेयिंग इंडियन विजय माल्या एक्सट्रा स्ट्रांग लागर बियर की चुस्कियों के साथ सन्नी देओल की एक फ़िल्म का डायलॉग ” क़ानून और इन्साफ ताकतवर के घर गुलाम बनकर रहते हैं” बोलते हुए किसी मंत्री या मंत्राणी की सिफारिशी चिट्ठी का इन्तजार कर रहे होंगे.

विजय माल्या कारपोरेट पूंजी और राजनीति के गाढे घोल की चाशनी में हाथ अंगुली सर पैर सब डुबोये बैठे हैं. यह नापाक घोल पहले क़ानून और व्यवस्था पर कालिख पोतता है उसके बाद लोकतंत्र और शासन प्रणाली को अपने रंग में रंगता है.

दांव पर सिर्फ पैसा नहीं बहुत कुछ है, इसलिए यह सिर्फ विजय माल्या का सवाल नहीं है. बेंजामिन फ्रेंकलिन के शब्दों में “न्याय तब तक नहीं होगा जब तक कि जो सीधे प्रभावित नहीं है वे भी विचलित होकर अन्याय की मुख़ालफ़त में नहीं उतरेंगे.” जिन्होंने गांधी को नहीं सुना, संविधान को नहीं माना वे बेंजामिन फ्रेंकलिन को समझेंगे, ऐसा मुश्किल ही जान पड़ता है.

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