अर्बन नक्सल
विक्रम सिंघल
अभी दो दिन पहले हुए बुद्धिजीविओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की देश भर से हुई गिरफ्तारियों ने बहुत से प्रगतिशील लोगों को सकते में दाल दिया है. एक तरफ जहाँ उनकी इस सरकार के प्रति चिढ़ को एक और पुष्टि मिली, वहीं एक प्रकार के अविश्वास ने उन्हें बाधित किया है. उन्हें यह विश्वास नहीं हो रहा है कि जिन लोकत्रांत्रिक संस्थाओं पर उन्होंने भरोसा कर जीवन के निर्णय लिये थे, वे इतने कमजोर निकले. वहीं उन्हें अपनी गफलत का भी अहसास हो रहा है कि कैसे उनकी नाक के नीचे से सभी संस्थाओं पर एक विपरीत विचारधारा का कब्ज़ा हो गया और उन्हें भनक तक नहीं लगी और महज चार सालों में ही उन्हें पूरा तंत्र ही ढहता हुआ दिख रहा है.
इसके बाद होश संभाल कर उन्होंने इसका विरोध करना शुरू किया तो उन्हें आभास हुआ कि संवाद विशेषकर राजनीतिक संवाद की शब्दावली बदल चुकी है. उस शब्दावली की डिक्शनरी अब उनके या किसी विश्वविद्यालय के पास नहीं रह गयी है और उनके अर्थ एक अब एकाधिनायक के गिरफ्त में है, जो एक निष्ठावान मीडिया और लफँगाकरण की शिकार पद सेना के द्वारा प्रसारित होता है. यहाँ शब्द विमर्श को रोकने के लिए बनाये गए हैं. इसकी शुरुआत हमने 2011 में देखी थी, जब अन्ना आंदोलन के दौरान भ्रष्टाचार के मायनों को एक सीधी लकीर से बांधकर एक ऐसा औजार बना दिया गया कि किसी भी व्यक्ति या समूह को भ्रष्ट कह कर विमर्श से बेदखल किया जा सकता था. और यह एक विरुद्ध अन्य का खेल हो गया. जहाँ वह एक यही तंत्र तय करता था और जनसामान्य को आतंकित करने में सफल हो गया कि उन्हें भी उसी बेदखली का शिकार होना पड़ सकता है. जब यह कहा गया कि यदि आप उनके खिलाफ हैं तो आप भ्रष्ट हैं.
इसी तरह उन्होंने संवादहीनता की एक स्थिति पैदा कर दी चाहे वो ‘भ्रष्ठ’ कहकर हो या ‘राष्ट्रद्रोही’ कह कर. ऐसा ही कुछ उन्होंने ‘विकास’ के साथ भी किया और उसे एक ऐसा साध्य बना दिया, जिसके विरोध का आरोप किसी को भी बेदखल करने के लिए काफी था. इन सभी अर्थों को जोड़ कर एक और शब्द की रचना की गयी ‘अर्बन नक्सल’ जो इन तीनों शब्द भ्रष्ट, राष्ट्रद्रोही और विकास विरोधी को अपने भीतर समाहित करता है और इस तरह एक पूरी तरह से अस्वीकार्य और सर्वथा भर्त्सना का पात्र बनता है और जिसे तंत्र ‘अर्बन नक्सल ‘ कह दे, उसका सामाजिक और राजनैतिक अस्तित्व ख़ारिज कर दिया जाता है.
हमने ज्ञान मीमांसा में देखा है कि बुराई ज्ञान की क्षमता की सीमा है और जो बुद्धि के तर्क के परे होता है, जिसे चेतना अपने परिचय से जोड़ नहीं पाती, उसे बुरा कह कर संवाद के लिए अगम्य बना देती है. उसी प्रकार यह शब्द ‘अशुभ के समस्या’ की नई परिणति है.
आज से लगभग एक दशक पहले हम पाकिस्तानी मीडिया की निरर्थकता पर अक्सर हँसते थे, जहाँ बड़े-बड़े षड्यंत्रों का हवाला और पाकिस्तान को उसके केंद्र में होने का दावा किया जाता था. तब हम कहते थे कि जब कोई देश और उसका विमर्श अज्ञानी और अशिक्षित लोगों के हाथ में चला जाये तो उन्हें अपने पद को जायज़ ठहराने के लिए अज्ञान का वातावरण का निर्माण करना पड़ता है और उसके लिए वो या तो ज्ञान या बुद्धि को ही ख़ारिज कर देते हैं या फिर षड्यंत्रों का हवाला देकर ज्ञान को मिथ्या साबित करने का प्रयास करते हैं. इस उपक्रम में बुद्धिजीवियों को अपने आप ही षड्यंत्रकारी मान लिया जाता है, जिन्होंने उस मिथ्या ज्ञान को प्रचारित किया था.
‘अर्बन नक्सल’ में ‘नक्सल’ देशद्रोह और विकास विरोध को इंगित करता है तो ‘अर्बन’ भ्रष्टाचार और षड़यंत्र को. यह पूरी दुनिया में देखा गया है कि कोई भी कट्टरपंथ सबसे पहले बुद्धिजीवियों और कलाकारों को निशाना बनती है और इसकी शुरुआत लोक और आंचलिक कलाकारों से होती है. लेकिन जब वो आभिजात्य शहरी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के बुद्धिजीवियों तक पहुँच जाये तो इसका अर्थ है कि समाज को बुद्धिहीन और भ्रमित करने का प्रयोजन लगभग पूरा हो चुका है.
इसी क्रम में आती है विश्वसनीयता या आप्तता की लड़ाई. क्योंकि तंत्र की पहुँच अधिकतर अपने अनुयायियों तक ही होती है, उसे आम जनता तक पहुँचाने के लिए उन्हें दुष्प्रचार का यन्त्र बनाना पड़ता है, जिसकी मूल अवधारणा या तो गोएबल के सिद्धांत पर आधारित होती है कि झूठ को बार बार दोहराने पर वह सच मान लिया जाता है, या फिर प्राचीन भारतीय कहानी के अनुरूप है, जहाँ बहुत सारे लोगों द्वारा एक ही झूठ की पुष्टि कर उसे सच बनाया जाता है. हम याद है कि चार चोरों ने बारी-बारी से बकरी को कुत्ता बताकर किसान को भ्रमित कर दिया और उसने बकरी को त्याग दिया.
लेकिन इन दोनों से अलग भी एक और स्रोत है जनमानस के सत्य का और वह है आप्त वचन, विश्वसनीय लोगों के कथन और यहाँ संघर्ष है उस आप्तता पर अधिकार का. गिरफ्तार किये गए सभी लोग अपनी जनवादी छवि और कार्यों से समाज के सबसे निचले तबके से सीधे जुड़े हुए थे. और यह वह तबका है, जो बहस से राय नहीं बनाता क्योंकि यही वह तबका है, जो नग्न सत्य का साक्षी होता है. फिर मीडिया की इन तक पहुँच भी सिमित है. ऐसे में जब यह तबका इस भ्रमजाल को नकारने लगता है तंत्र की मजबूरी हो गयी आम लोगों को लोगों से दूर करने की. एक तरफ तो इसे लगता है कि ‘अर्बन नक्सल’ कहकर इनकी विश्वसनीयता को ख़ारिज किया जाए. पर वह जानता है कि यह आसान नहीं है. ऐसे में कम से कम उन्हें लोगों से दूर कर दिया जाए ताकि उनके विरोधियों की साझी विश्वसनीयता में कमी आये क्योंकि राजनैतिक विरोधियों की विश्वसनीयता ख़त्म करने में इसे खासी सफलता मिल चुकी है.
‘अर्बन नक्सल’ सरकार के सर्वदर्शी होने की आकांक्षा को भी प्रदर्शित करती है. आधार हो या फिर एनआरसी, हमारी सरकार जनता पर एक बड़ी-सी सर्वदर्शी आँख को स्थापित करना चाहती है. यह चेतावनी है लोगों को कि विरोध की हर हरकत पर इस आँख की नज़र है और इसका अंजाम कितना भयावह हो सकता है.
लेखक पेशे से चिकित्सक और स्वतंत्र विचारक हैं.